प्रियप्रवास
(खड़ी-बोली का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य)
अध्योध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
साहित्यवाचस्पति, साहित्यरत्न, कविसम्राट्
भूमिका
विचार-सूत्र
सहृदय वाचकवृन्द!
मैं बहुत दिनों से हिंदी भाषा में एक काव्य-ग्रंथ लिखने के लिए लालायित था। आप कहेंगे कि जिस भाषा में 'रामचरित-मानस', 'सूरसागर', 'रामचिन्द्रका', 'पृथ्वीराज रासो', 'पद्मावत' इत्यादि जैसे बड़े अनूठे काव्य प्रस्तुत हैं, उसमें तुम्हारे जैसे अल्पज्ञ का काव्य लिखने के लिए समुत्सुक होना वातुलता नहीं तो क्या है? यह सत्य है, किंतु मातृभाषा की सेवा करने का अधिकार सभी को तो है; बने या न बने, सेवा-प्रणाली सुखद और हृदय-ग्राहिणी हो या न हो, परंतु एक लालायित-चित्त अपनी प्रबल लालसा को पूरी किये बिना कैसे रहे? जिसके कांत-पादांबुजों की निखिल-शास्त्र-पारंगत पूज्यपाद महात्मा तुलसीदास, कवि-शिरोरत्न महात्मा सूरदास, जैसे महाजनों ने परम सुगंधित अथच उत्फुल्ल पाटल प्रसून अर्पण कर अर्चना की है-कविकुल-मण्डली-मण्डन केशव, देव, बिहारी, पद्माकर इत्यादि सहृदयों ने अपनी विकच-मल्लिका चढ़ा कर भक्ति-गद्गद-चित्त से आराधना की है-क्या उसकी मैं एक नितान्त साधारण पुष्प द्वारा पूजा नहीं कर सकता? यदि 'स्वान्तः सुखाय' मैं ऐसा कर सकता हूँ तो अपनी टूटी-फूटी भाषा में एक हिंदी काव्य-ग्रंथ भी लिख सकता हूँ; निदान इसी विचार के वशीभूत होकर मैंने 'प्रियप्रवास' नामक इस काव्य की रचना की है।
काव्य-भाषा
यह काव्य खड़ी बोली में लिखा गया है। खड़ी बोली में छोटे-छोटे कई काव्य-ग्रंथ अब तक लिपिबद्ध हुए हैं, परंतु उनमें से अधिकांश सौ-दो सौ पद्यों में ही समाप्त हैं, जो कुछ बड़े हैं वे अनुवादित हैं मौलिक नहीं। सहृदय कवि बाबू मैथलीशरण गुप्त का 'जयद्रथवध' निस्सन्देह मौलिक ग्रंथ है, परंतु यह खण्ड-काव्य है। इसके अतिरक्त ये समस्त ग्रंथ अन्त्यानुप्रास विभूषित हैं, इसलिए खड़ी बोलचाल में मुझको एक ऐसे ग्रंथ की आवश्यकता देख पड़ी, जो महाकाव्य हो; और ऐसी कविता में लिखा गया हो जिसे भिन्नतुकांत कहते हैं। अतएव मैं इस न्यूनना की पूर्ति के लिए कुछ साहस के साथ अग्रसर हुआ और अनवरत परिश्रम कर के इस 'प्रियप्रवास' नाम ग्रंथ की रचना की; जो कि आज आप लोगों के कर-कमलों में सादर समर्पित है। मैंने पहले इस ग्रंथ का नाम 'ब्रजांगना-विलाप' रखा था, किंतु कई कारणों से मुझको यह नाम बदलना पड़ा, जो इस ग्रंथ के समग्र पढ़ जाने पर आप लोगों को स्वयं अवगत होंगे। मुझ में महाकाव्यकार होने की योग्यता नहीं मेरी प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी नहीं जो महाकाव्य के लिए उपयुक्त उपस्कर संग्रह करने में कृतकार्य हो सके, अतएव मैं किस मुख से यह कह सकता हूँ कि 'प्रियप्रवास' के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य न होने की न्यूनता दूर हो गई। हाँ, विनीत भाव से केवल इतना ही निवेदन करूँगा कि महाकाव्य का आभास-स्वरूप यह ग्रंथ सत्रह सर्गों में केवल इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इसको देखकर हिंदी-साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ सुकवियों और सुलेखकों का ध्यान इस त्रुटि के निवारण करने की ओर आकर्षित हो। जब तक किसी बहुज्ञ मर्मस्पर्शिनी-सुलेखनी द्वारा लिपिबद्ध होकर खड़ी बोली में सर्वांग सुंदर कोई महाकाव्य आप लोगों को हस्तगत नहीं होता, तब तक यह अपने सहज रूप में आप लोगों के ज्योति-विकीर्णकारी उज्ज्वल चक्षुओं के सम्मुख है, और एक सहृदय कवि के कण्ठ से कण्ठ मिला कर यह प्रार्थना करता है, 'जबलौं फुलै न केतकी; तबलौं बिलम करील।'
कविता-प्रणाली
यद्यपि वर्तमान पत्र और पत्रिकाओं में कभी-कभी एक आध भिन्नतुकांत कविता किसी उत्साही युवक कवि की लेखनी से प्रस्तुत होकर आज कल प्रकाशित हो जाती हैं, तथापि मैं यह कहूँगा कि भिन्नतुकांत कविता भाषा-साहित्य के लिए एक बिल्कुल नई वस्तु है; और इस प्रकार की कविता में किसी काव्य का लिखा जाना तो 'नूतनं नूतनं पदे पदे' है। इस लिए महाकाव्य लिखने के लिए लालायित होकर जैसे मैंने बालचापल्य किया है, उसी प्रकार अपनी अल्प विषया-मति साहाय्य से अतुकांत कविता में महाकाव्य लिखने का यत्न करके मैं अतीव उपहासास्यपद हुआ हूँ। किंतु, यह एक सिद्धान्त है कि 'अकरणात् मन्दकरणम् श्रेय:' और इसी सिद्धान्त पर आरूढ़ हो कर मुझ से उचित वा अनुचित यह साहस हुआ है। किसी कार्य में सयत्न होकर सफलता लाभ करना बड़े भाग्य की बात है, किंतु सफलता न लाभ होने पर सयत्न होना निन्दनीय नहीं कहा जा सकता। भाषा में महाकाव्य और भिन्नतुकांत कविता में लिख कर मेरे जैसे विद्या बुद्धि के मनुष्य का सफलता लाभ करना यद्यपि असंभव बात है किंतु इस कार्य के लिए सयत्न होना गर्हित नहीं हो सकता, क्योंकि 'करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।'जो हो परंतु यह 'प्रियप्रवास' ग्रंथ आद्योपांत अतुकांत कविता में लिखा गया है-अतः मेरे लिए यह पथ सर्वथा नूतन है, अतएव आशा है कि विद्वद्जन इसकी त्रुटियों पर सहानुभूतिपूर्वक दृष्टिपात करेंगे।
संस्कृत के समस्त काव्य-ग्रंथ अतुकांत अथवा अन्त्यानुप्रासहीन कविता से भरे पड़े हैं। चाहे लघुत्रयी, रघुवंश आदि, चाहे वृहत्रयी किरातादि, जिसको लीजिये उसी में आप भिन्नतुकांत कविता का अटल राज्य पावेंगे। परंतु हिंदी काव्य-ग्रंथों में इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है। उस में आप अन्त्यानुप्रासहीन कविता पावेंगे ही नहीं। अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण-सुखद होते हैं और कथन को भी मधुरतर बना देते हैं। ज्ञात होता है कि हिंदी-काव्य-ग्रंथों में इसी कारण अन्त्यानुप्रास की इतनी प्रचुरता है। बालकों की बोलचाल में, निम्न जातियों के साधारण कथन और गान तक में आप इसका आदर देखेंगे, फिर यदि हिंदी काव्य-ग्रंथों में इसका समादर अधिकता से हो तो आश्चर्य क्या है? हिंदी ही नहीं, यदि हमारे भारतवर्ष की प्रांतिक भाषाओं-बँगला, पंजाबी, मरहठी, गुजराती आदि-पर आप दृष्टि डालेंगे तो वहाँ भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादार पावेंगे; उर्दू और फ़ारसी में भी इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। अरबी का तो जीवन ही अन्त्यानुप्रास है, उसके पद्य-भाग को कौन कहे, गद्य-भाग में भी अन्त्यानुप की बड़ी छटा है। मुसलमानों के प्रसिद्ध धर्म्म-ग्रंथ कुरान को उठा लीजिये, यह गद्य-ग्रंथ है; किंतुइसमें अन्त्यानुप्रसा की भरमार है। चीनी, जापानी जिस भाषा को लीजिये, एशिया छोड़ कर यूरोप और आफ्रीका में चले जाइये, जहाँ जाइयेगा वहीं कविता में अन्त्यानुप्रास का समदार देखियेगा। अन्त्यानुप्रास की इतनी व्यापकता पर भी समुन्नत भाषाओं में भिन्नतुकांत कविता आदृत हुई है, और इस प्रकार की कविता में उत्तमोत्तम ग्रंथ लिखे गये हैं। संस्कृत की बात मैं ऊपर कह चुका हूँ; बँगला में इस प्रकार की कविता से भूषित 'मेघनाद वध' नाम एक सुंदर काव्य है। अँगरेजी में भिन्नतुकांत कविता में लिखित कई उत्तमोत्तम पुस्तकें हैं।
कहा जाता है, भिन्नतुकांत कविता सुविधा के साथ की जा सकती है; और उसमें विचार-स्वतंत्रता, सुलभता और अधिक उत्तमता से प्रकट किये जा सकते हैं। यह बात किसी अंश में सत्य है, परंतु मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि केवल इसी विचार से अन्त्यानुप्रास विभूषित कविता की आवश्यकता नहीं है। यदि अन्त्यानुप्रास आदर की वस्तु न होता, तो वह कदापि संसारव्यापी न होता; उसका इतना समादृत होना ही यह सिद्ध करता कि वह आदरणीय है। इसके अतिरिक्त एक साधारण वाक्य को भी अन्त्यानुप्रास सरस कर देता है। हाँ, सौकर्य्य साधन के लिए उसको विविध प्रकार की कविता से विभूषित करने के उद्देश्य से अतुकांत कविता के भी प्रचलित होने की आवश्यकता है; और मैंने इसी विचार से इस 'प्रियप्रवास' ग्रंथ की रचना, इस प्रकार की कविता में की है।
काव्यवृत्त
मैंने ऊपर निवेदन किया है कि संस्कृत कविता का अधिकांश भिन्नतुकांत है, इसलिए यह स्पष्ट है कि भिन्नतुकांत कविता लिखने के लिए संस्कृत-वृत्त बहुत ही उपयुक्त हैं। इसके अतिरक्त भाषा छन्दों में मैंने जो एक आध अतुकांत कविता देखी उसको बहुत ही भद्दी पाया; यदि कोई कविता अच्छी भी मिली तो उसमें वह लावण्य नहीं मिला, जो संस्कृत-वृत्तों में पाया जाता है; अतएव मैंने इस ग्रंथ को संस्कृत-वृत्तों में ही लिखा है। यह भी भाषा-साहित्य में एक नई बात है। जहाँ तक मैं अभिज्ञ हूँ अब तक हिंदी-भाषा में केवल संस्कृत-छन्दों में कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया है। जब से हिंदी भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है तब से लोगों की दृष्टि संस्कृत-वृत्तों की ओर आकर्षित है, तथापि मैं यह कहूँगा कि भाषा में कविता के लिए संस्कृत-छन्दों का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नहीं देखा जाता। हम लोगों के आचार्य्यवत् मान्य श्रीयुत् पण्डित बालकृष्ण भट्ट अपनी द्वितीय साहित्य-सम्मेलन की स्वागत-संबंधिनी वक्तृता में कहते हैं:-
''आज कल छन्दों के चुनाव में भी लोगों की अजीब रुचि रही है; इन्द्रवज्रा, मन्द्राक्रान्ता, शिखरिणी आदि संस्कृत छन्दों का हिंदी में अनुकरण हम में तो कुढ़न पैदा करता है।''
(द्वितीय हिंदी-साहित्य सम्मेलन का कार्यविवरण 2 भाग ; पृ.8)
'प्रियप्रवास' ग्रंथ 15 अक्टूबर, सन् 1909 ई. को प्रारम्भ और कार्य्य-बाहुल्य से 24 फरवरी, वन् 1913 ई. को समाप्त हुआ है। जिस समय आधे ग्रंथ को मैं लिख चुका था, उस समय माननीय पण्डित जी का उक्त वचन मुझे दृष्टिगोचर हुआ। देखते ही अपने कार्य पर मुझ को कुछ क्षोभ सा हुआ, परंतु मैं करता तो क्या करता, जिस ढंग से ग्रंथ प्रारम्भ हो चुका था, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता था। इसके अतिरिक्त श्रद्धेय पण्डित जी का उक्त विचार मुझको सर्वांश में समुचित नहीं जान पड़ा, क्योंकि हिंदी-भाषा के छन्दों से संस्कृत-वृत्त खड़ी बोली की कविता के लिए अधिक उपयुक्त हैं, और ऐसी अवस्था में सर्वथा त्याज्य नहीं कहे जा सकते। मैं दो एक वर्तमान भाषा-साहित्य-अनुरागियों की अनुमति नीचे प्रकाशित करता हूँ। इन अनुमतियों के पठन से भी मेरे उस सिद्धान्त की पुष्टि होती है, जिसको अवलम्बन कर मैंने संस्कृत-वृत्तों में अपना ग्रंथ रचा है। उदीयमान युवक कवि पं० लक्ष्मीधर वाजपेयी वि० सम्वत् 1968 में प्रकाशित अपने 'हिंदी मेघदूत' की भूमिका के पृष्ठ 3, 4 में लिखते हैं:-
''जब तक खड़ी बोली की कविता में संस्कृत के ललित-वृत्तों की योजना न होगी तब तक भारत के अन्य प्रान्तों के विद्वान् उससे सच्चा आनन्द कैसे उठा सकते हैं ? यदि राष्ट्रभाषा हिंदी के काव्य-ग्रंथों का स्वाद अन्य प्रांतवालों को भी चखाना है तो उन्हें संस्कृत के मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, मालिनी, पृथ्वी, वसंततिलका, शार्दूलविक्रीड़ित आदि ललित वृत्तों से अलंकृत करना चाहिए। भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान् संस्कृत-भाषा के वृत्तों से अधिक परिचित हैं, इसका कारण यही है कि संस्कृत भारतवर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है। भाषा का गौरव बढ़ाने के लिए काव्य में अनके प्रकार के ललित वृत्तों और नूतन छन्दों का भी समावेश होना चाहिए।"
साहित्यमर्मज्ञ, सहृदयवर, समादरणीय श्रीयुत पण्डित मन्नन द्विवेदी, सम्वत् 1970 में प्रकाशित 'मर्यादा' की ज्येष्ठ, आषाढ की मिलित संख्या के पृष्ठ 96 में लिखते हैं:-
"यहाँ एक बात बतला देना बहुत ज़रूरी है। जो बेतुकांत की कविता लिखे, उसको चाहिए कि संस्कृत के छन्दों को काम में लाये। मेरा ख्याल है कि हिंदी पिंगल के छंन्दों में बेतुकांत कविता अच्छी नहीं लगती। स्वर्गीय साहित्याचार्य पं.अम्बिकादत्त जी व्यास ऐसे विद्वान भी हिंदी-छन्दों में अच्छी बात बेतुकांत कविता नहीं कर सके। कहना नहीं होगा कि व्यास जी का 'कंसवध' काव्य बिल्कुल रद्दी हुआ है।''
अब रही यह बात कि संस्कृत-छन्दों का प्रयोग मैं उपुक्त रीति से कर सका हूँ या नहीं, और उनके लिखने में मुझको यथोचित सफलता हुई है या नहीं। मैं इस विषय में कुछ लिखना नहीं चाहता, इसका विचार भाषा-मर्म्मज्ञों के हाथ है। हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि आद्य उद्योग में असफल होने की ही अधिक आशंका
भाषा-शैली
'प्रियप्रवास' की भाषा संस्कृत-गर्भित है। उसमें हिंदी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है। अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में 'प्रियप्रवास' लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रंथ लिखा जाता। कोई भाषा-मर्मज्ञ सोचेंगे-इस प्रकार संस्कृत-शब्दों को ढूंस कर भाषा के प्रकृत रूप को नष्ट करने की चेष्टा करना नितान्त गर्हित कार्य है। उक्त वक्तृता में भट्ट जी एक स्थान पर कहते हैं:-
"दूसरी बात जो मैं आजकल खड़ी बोली के कवियों में देख रहा हूँ, वह समासबद्ध, क्लिष्ट संस्कृत-शब्दों का प्रयोग है, यह भी पुराने कवियों की पद्धति के प्रतिकूल है।"
इस विचार के लोगों से मेरी यह प्रार्थना है कि क्या मेरे इस एक ग्रंथ से ही भाषा-साहित्य की शैली परिवर्तित हो जावेगी? क्या मेरे इस काव्य की लेख-प्रणाली ही अब से सर्वत्र प्रचलित और गृहीत होगी? यदि नहीं, तो इस प्रकार का तर्क समीचीन न होगा। हिंदी भाषा में सरल पद्य में एक से एक सुंदर ग्रंथ हैं। जहाँ इस प्रकार के अनेक ग्रंथ हैं, वहाँ एक ग्रंथ 'प्रियप्रवास' के ढंग का भी सही। इसके अतिरिक्त मैं यही कहूँगा कि क्या ऐसे संस्कृत-गर्भित ग्रंथ हिंदी में अब तक नहीं लिखे गये हैं? और क्या जनसमाज में वे समादृत नहीं हैं? क्या रामचरितमानस, विनय पत्रिका और रामचन्द्रिका से भी 'प्रियप्रवास' अधिक संस्कृत-गर्भित है? क्या जिस प्रकार की संस्कृत-गर्भित खड़ी बोली की कविता आजकल सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है, 'प्रियप्रवास' की कविता दुरूहता में उससे आगे निकल गई है? यह ग्रंथ न्यायदृष्टि से पढ़ कर यदि मीमांसा की जावेगी तो कहा जावेगा कभी नहीं, और ऐसी दशा में मुझे आशा है कि इस विषय में मैं विशेष दोषी न समझा जाऊँगा। कुछ संस्कृत-वृत्तों के कारण और अधिकतर मेरी रुच से इस ग्रंथ की भाषा संस्कृत- गर्भित है, क्योंकि अन्य प्रांतवालों में यदि समादार होगा तो ऐसे ही ग्रंथों का होगा। भारतवर्ष भर में संस्कृत-भाषा आदृत है। बँगला, मरहठी, गुजराती, वरन् तामिल और पंजाबी तक में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। इन संस्कृत शब्दों को यदि अधिकता से ग्रहण करके हमारी हिंदी-भाषा उन प्रान्तों के सज्जनों के सम्मुख उपस्थित होगी तो वे साधारण हिंदी से उसका अधिक समादर करेंगे, क्योंकि उसके पठन-पाठन में उनको सुविधा होगी और वे उसको समझ सकेंगे। अन्यथा हिंदी के राष्ट्र-भाषा होने में दुरूहता होगी, क्योंकि सम्मिलन के लिए भाषा और विचार का साम्य ही अधिक उपयोगी होता है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य प्रांतवालों से घनिष्ठता का विचार करके हम लोग अपने प्रांतवालों की अवस्था और अपनी भाषा के स्वरूप को भूल जावें। यह मैं मानूँगा कि इस प्रांत के लोगों की शिक्षा के लिए और हिंदी भाषा के प्रकृत-रूप की रक्षा के निमित्त, साधारण वा सरल हिंदी में लिखे गये ग्रंथों की ही अधिक आवश्यकता है; और यही कारण है कि मैंने हिंदी में कतिपय संस्कृत- गर्भित ग्रंथों की प्रयोजनीयता बतलाई है। परंतु यह भी सोच लेने की बात है कि क्या यहाँवालों को उच्च हिंदी से परिचित कराने के लिए ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता नहीं है, और यदि है तो मेरा यह ग्रंथ केवल इसी कारण से उपेक्षित होने योग्य नहीं। जो सज्जन मेरे इतना निवेदन करने पर भी अपनी भौंह की बंकता निवारण न कर सकें, उनसे मेरी यह प्रार्थना है कि वे 'वैदेही-वनवास'* के कर-कमलों में पहुँचने तक मुझे क्षमा करें, इस ग्रंथ को मैं अत्यन्त सरल हिंदी और प्रचलित छन्दों में लिख रहा हूँ।
मैंने ऊपर लिखा है कि "क्या 'रामचरितमानस' 'रामचंद्रिका' और 'विनयपत्रिका' से भी 'प्रियप्रवास' अधिक संस्कृत-गर्भित है," मेरे इस वाक्य से संभव है कि कुछ भ्रम उत्पन्न होवे, और यह समझा जावे कि मैं इन पूज्य- ग्रंथों के वन्दनीय ग्रंथकारों से स्पर्द्धा कर रहा हूँ और अपने काँच की हीरक-खण्ड के साथ तुलना करने में सयत्न हूँ। अतएव मैं यहाँ स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर देता हूँ कि मेरे उक्त वाक्य का मर्म्म केवल इतना ही है कि संस्कृत-शब्दों के बाहुल्य से कोई ग्रंथ अनादृत नहीं हो सकता। यह और बात है कि संस्कृत- शब्दों का प्रयोग उचित रीति और चारु-रूपेण न हो सके, और इस कारण से कोई ग्रंथ हास्यास्पद और निन्दनीय बन जावे।
कवि तागत स्वारस्य
हिंदी के कतिपय साहित्यसेवियों का यह भी विचार है कि खड़ी बोली में सरस और मनोहर कविता नहीं हो सकती। पूज्य पण्डित जी अपने उक्त भाषण में ही एक स्थान पर लिखते हैं:-
''खड़ी बोली की कविता पर हमारे लेखकों का समूह इस समय टूट पड़ा है। आज कल के पत्रों और मासिक-पत्रिकाओं में बहुत सी इस तरह की कवितायें छपी हैं, परंतु इनमें अधिकतर ऐसी हैं जिनको कविता कहना ही कविता की मानो हँसी करना है; हमें तो काव्य के गुण इनमें बहुत कम जँचते हैं।"
"मेरे विचार में खड़ी बोली में एक इस प्रकार का कर्कशपन है कि कविता के काम में ला उसमें सरसता संपादन करना प्रतिभावान् के लिए भी कठिन है, तब तुकबन्दी करनेवालों की कौन कहे।"
इन सज्जनों का विचार यह है कि मधुर कोमलकांत पदावली' जिस कविता में न हो वह भी कोई कविता है! कविता तो वही है जिसमें कोमल शब्दों का विन्यास हो, जो मधुर अथच कांतपदावली द्वारा अलंकृत हो। खड़ी बोली में अधिकतर संस्कृत-शब्दों का प्रयोग होता है, जो हिंदी के शब्दों की अपेक्षा कर्कश होते हैं। इसके व्यतीत उसकी क्रिया भी ब्रजभाषा की क्रिया से रूखी और कठोर होती है; और यही कारण है कि खड़ी बोली की कविता सरस नहीं होती और कविता का प्रधान गुण माधुर्य्य और प्रसाद उसमें नहीं पाया जाता। यहाँ पर मैं यह कहूँगा कि पदावली की कांतता, मधुरता, कोमलता केवल पदावली में ही सन्निहित है, या उसका कुछ संबंध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से भी है? मेरा विचार है कि उसका कुछ संबंध नहीं, वरन् बहुत कुछ संबंध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से है। कर्पूरमंजरीकार प्रसद्धि राजशेखर कवि अपनी प्रस्तावना में प्राकृत-भाषा की कोमलता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं:-
परुसा सक्कअबंधा पाउअबन्धोबिहोइ सुउमारो।
पुरुसांणं महिलाणं जेत्तिय मिहन्तरं तेत्तिय मिमाणम् ॥
इस श्लोक के साथ निम्नलिखित संस्कृत रचनाओं को मिला कर पढ़िये:-
इतर पापफलानि यथेच्छया वितरतानि सहे चतुरानन।
अरसिकेषु कवित्वनिवेदनम् शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख॥
विद्या विनयोपेता हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य।
काञ्चनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानंदम् ॥
वारिजेनेव सरसी शशिनेत्र निशीथिनी।
यौवनेनेव वनिता नयेन श्रीर्मनोहरा॥
आयाति याति पुनरेव जलं प्रयाति
पद्यांकुराणि विचिनोति धुनोति पक्षौ॥
उन्मत्तवद् भ्रमति कूजति मन्दमन्दम्
कान्तावियोगविधुरो निशि चक्रवाक:॥
कतिपय पंक्तियाँ दोनों के गद्य की भी देखिये:-
"एसां अहं देवदामिहुणम् रोहिणीमि अलञ्छणम् मक्खीकदुअ अज्जउत्तम् प्पसादेमि, अज्ज प्पहुदि अज्जउत्तीजम् इत्थिअम् कामोदिजा अ अज्जउत्तस्स समागमप्पणइणी ताएम एपीदिवन्धेण वणि वत्ति दव्वम्।"
-विक्रोमर्वशी
"अहं खलु सिद्धादेशजनितपरित्रासेन राज्ञा पालकेन घोषादानीय विशसने गूढागारे बन्धनेन बद्धः तत्माच्च प्रियसुह्त्शर्विलकप्रसादेन-बन्धनात् विमुक्तोस्मि।"
-मृच्छकटिक
अब बतलाइये कोमल-कांत-पदावली और सरसता किसमें अधिक है? उक्त प्राकृत श्लोक का रचयिता कहता है कि "संस्कृत की रचना पुरुष और प्राकृत की सुकुमार होती है, पुरुष स्त्री में जो अन्तर है वही अन्तर इन दोनों में है।" परंतु दोनों भाषाओं की ऊर्ध्व लिखित कपितय पंक्तियों को पढ़ कर आप अभिज्ञ हुए होंगे कि उसके कथन में कितनी सत्यता है। कोमल-कांत पद कौन हैं? वही जिनके उच्चारण में मुख को सुविधा हो और जो श्रुतिकटु न हों। संयुक्ताक्षर और टवर्ग जिस रचना में जितने न्यून होंगे वह रचना उतनी ही कोमल और कांत होगी; और वे जितने अधिक होंगे उतनी ही अधिक वह कर्कश होगी। अब आप देखें शब्द-संख्या निर्देश से प्राकृत और संस्कृत के उद्धृत श्लोकों और वाक्यों में से किसमें युक्ताक्षर और टवर्ग अधिक है। आप प्राकृत श्लोक और वाक्य में ही अधिक पावेंगे, और ऐसी दशा में यह सिद्ध है कि प्राकृत से संस्कृत की ही पदावली कोमल, मधुर और कांत है।
मैं कतिपय प्राकृत वाक्यों को उनके संस्कृत अनुवाद सहित नीचे लिखता हूँ। आप इनको भी पढ़कर देखिये किसमें कोमलता और मधुरता अधिक है। और प्राकृत एवं संस्कृत के उन शब्दों को विशेष मनोनिवेश-पूर्वक पढ़िये जिनके नीचे लकीर खींची हुई है, और इस बात की मीमांमा कीजिये कि एक दूसरे का रूपान्तर होने पर भी उनमें कौन कांत है।
अज्जस्सज्जेब पिअबआस्सेन चुण बुड्ढेण।
आर्यस्यैव प्रियवयस्येन चूर्ण वृद्धेन।
आ: दासीएपुत्ता चुणबुड्ढा कदाणुक्खु तुम कुबिदेणरणा पलायेण णव बहु केस कलावं बिअ ससुअन्धं कप्पिजन्तं पेक्सिस्मं।
आ: दास्या: पुत्र चूर्ण वृद्ध कृदानु खलु त्वां कुपितेन राज्ञा पालकेननववधू केशकलापमिव ससुगन्धं छेद्यमानं प्रेक्षिष्ये।
अम्हारिस जण जोग्गेण बम्हणेण ऊबनिमन्तितेण।
अस्मादृश जन योग्येन ब्राह्मणेन उपनिमन्त्रितेन ॥
ह्रादेहं शलिल जलहिं पाणिएहिं उज्जाणेउबबण काणणेणिशणे
णालीहि सहजुबदी हिइत्थिआहिंगन्धब्बोबिअशुदेहि अङ्गकेहि
स्नातोहं सलिलजलं पानीयः उद्याने उपवन कानने निशण्णे।
नारीभिः सह युवतीभिः स्त्रीभिगन्धर्व इव मुहितैरङ्गकैः।
हत्थशुञ्जदो मुहशञ्जदो इन्दिशञ्जदो शेक्खु माणुशे।
किं कलेदि लाअउले तश्श पललोओ हत्थे णिच्चले।
हस्तसंयतः मुखसंयत इन्द्रियसंयतः सखलु मनुष्यः।
किं करोति राजकुलं तस्य परालोको हस्ते निश्चलः॥
-मृच्छकटिक
यदि कहा जावे कि संस्कृत-श्लोकों और वाक्यों के चुनने में जिस सहृदयता से काम लिया गया है, प्राकृत के श्लोकों और वक्यों के चुनने में वैसा नहीं किया गया, तो पहले तो यह तर्क इस लिए उचित न होगा कि प्राकृत वाक्यों या श्लोकों का ही अनुवाद तो संस्कृत में नीचे दिया गया है। दूसरे मैं इस तर्क के समाधान के लिए कतिपय प्राकृत और संस्कृत के मनोहर श्लोकों और वाक्यों को नीचे लिखता हूँ। आप उनको मिलाइये, और देखिये कि दोनों की सरसता और कोमलता में कितना अन्तर है।
असारे सार मतिनो सारे चासार दस्सिनो।
ते सारे नाधि गच्छन्ति मिच्छा संकप्पगोचरा॥1॥
अप्पमादेन मघवा देवानं सेद्वतं गतो।
अप्पमादं परां सन्ति पमादो गरहितो सदा॥2॥
नपुष्पगंधो पटिवातमेति न चन्दनं तग्गर मल्लिका वा।
सतं च गंधो पटिवातमेति सब्बादिसा सप्पुरिसोपवायति ॥3॥
उदकं हि नयन्ति नेतिका उसुकारानमयन्ति तेजनं।
दारुनमयन्ति तच्छका आत्तानं दमयन्ति पण्डिता॥4॥
मासे मासे सहस्सेनयो यजेथ सतं समम्।
एकं च भावितत्तान मुहुत्तमपि पूजये॥5॥
-धम्मपद
रणन्त मणिणेउरं झणझणन्तहारच्छडं।
कलक्कणिद किंकिणी मुहर मेहलाडम्बरं।
विलोल बलआवलीजणिदमंजुसिंजारवं।
णकस्समणमोहणं ससिमुहीअहिन्दोलणम्।।6।।
-कर्पूरमंजरी
अलिरसौ नलिनीवनवल्लभः कुमुदिनीकुलकेलिकलारसः ।
विधिवशेन विदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहुमन्यते ॥1॥
केवानसन्तिभुवितामर सावतंसाहं सावलीबलसन्निवेशा।
किंचातकोफलमवेक्ष्यसवज्रपातांपौरन्दरीमुपगतोनववारिधाराम् ॥2॥
निर्वाणदीपे किमु तैलदानं चोरे गते वा किमु सावधानम्।
वयोगते कि वनिताविलासः पयोगते किं खलु सेतुबंधः॥3॥
वरमसिधारा तरुतलवासो वरमिह भिक्षा वरमुपवासः।
वरमपि घोरे नरके पतनं न च धनगर्वितबान्धवशरणम्॥4॥।।
विहाररासखेदभेद धीरतीर मारुता।
गतागिरामगोचरे यदीयनीरचारुता।
प्रवाहसाहचर्या पूत मेदिनी नदी नदा
धुनोतु नो मनोमलंकलिन्दनन्दिनी सदा ॥5॥
-काव्यसंग्रह
* * * *
शिलीमुखेस्मिंस्तवनामवांछिते मृगोपनीते मृगशावलोचना।
प्रमोदमाप्तेयमितो विलोकिते करे चकोरीव तुषारदीधितैः॥1॥
मनसिजवरबीर बैजयन्त्यास्त्रिभुवनदुर्लभविभ्रमैकभूमेः।
कुचमुकुलविचित्रपत्रवल्लीपरिचित एष सदा शशिप्रभायाः॥2॥
-साहसांकचरित
"णम् पहादा रअणी ता सिग्धम् सअणम् परिच्चआमि। अधवा लहु लहु उत्थिदाबि किं कारिस्समणमे उद्ददेसुम पहादकरणीये सुम्हथ्यपादाओप्सरित, कामो दाणिम् सकामोभोदु, जेण असच्चसन्धे जणेपिअसही सुद्धहिअआपदं कारिदा।"
-शकुन्तला नाटक
* * * *
"सैवाहं कादम्बरीयानेन कुमारेण मत्तमदमुखरमधुकरकुलकलकोलाहलाकुलिते , कोककामिनीकरुणकूजिते विरहिजनमनोदु:खे विकचदलारविन्दनिस्यन्दसुगन्ध-
मन्दगन्धवाहानन्दितददशदिशि प्रदोषसमये विकसितकुसुममामोदमुकलित-
मानिनीमानग्रहोन्मोचहस्ते , कुसुमायुधे।"
-कादम्बरी
यदि इन श्लोकों और गद्य अवतरणों को पढ़कर यह युक्ति उपस्थित की जावे कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई? प्राकृत भाषा की उत्पत्ति का कारण यही है न कि संस्कृत के कठिन शब्दों की सर्वसाधारण यथा रीति उच्चारण नहीं कर सकते थे, वे उच्चारण सौकर्य-साधन और मुख की सुविधा के लिए उसे कुछ कोमल और सरल कर लेते थे क्योंकि मनुष्य का स्वभाव सरलता और सुविधा को प्यार करता है; तो यह सिद्ध है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति ही सरलता और कोमलतामूलक है। अर्थात् प्राकृत भाषा उसी का नाम है जो संस्कृत के कर्कश शब्दों को कोमल स्वरूप में ग्रहण कर जन-साधारण के सम्मुख यथाकाल उपस्थित हुई है; और ऐसी अवस्था में यह निर्विवाद है कि संस्कृत भाषा से प्राकृत कोमल और कांत होगी। मैं इस युक्ति को सर्वांश में स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं हूँ। यह सत्य है कि प्राकृत भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत के कर्कश स्वरूप को छोड़ कर कोमल हो गये हैं। किंतु कितने शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत शब्दों का मुख्य रूप त्याग कर उच्चारण-विभेद से नितान्त कर्ण-कटु हो गये हैं और यही शब्द मेरे विचार में प्राकृत वाक्यों को संस्कृत वाक्यों में अधिकांश स्थलों पर कोमल नहीं होने देते।
निम्नलिखित शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत का कर्कश रूप छोड़ कर प्राकृत में कोमल और कांत हो गये हैं:
1 संस्कृत प्राकृत संस्कृत प्राकृत संस्कृत प्राकृत
धर्म्म घम्म गर्ब गब्ब पुत्र पुत्त
गन्धर्ब गन्धब्ब दर्शिनः दस्सिनो अप्रमादेन अप्पमादेन
2 प्रशंसन्ति पसंसन्ति प्रमादः प्रमादो सर्व
किंतु निम्नलिखित शब्द नितान्त श्रुति-कटु हो गये हैं:
संस्कृत प्राकृत संस्कृत प्राकृत
प्रियवस्येन पिअवअस्सेण वृद्धेन बुड्ढेण
बृद्ध बुड्ढा कदानु कदाणु
खलु क्खु कुपितेन कुबिदेण
राज्ञा रणा पालकेन पालयेण
नव णव मिव बिअ
जन जण योग्येन जोग्गेण
सलिल शलिल पानीयैः पाणिएहि
उद्याने उज्जाणे उपबन उबबण
उपनिमंत्रितैन उबणिमन्तिदेण स्नातोहं ह्लादेहं
इन दोनों प्रकार के उद्धृत शब्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो गया कि प्राकृत में संस्कृत के यदि अनेक शब्द कर्कश से कोमल हो गये हैं, तो उच्चारण- विभिन्नता, जल-वायु और समय-स्रोत के प्रभाव से बहुत से शब्द कोमल बनने के स्थान पर परम कर्ण-कटु बन गये हैं। संस्कृत के न, द्ध, व, य इत्यादि के स्थान पर प्राकृत भाषा में ण, ड, ढ, ब, अ इत्यादि का प्रयोग उसको बहुत ही श्रुति-कटु कर देता है, और ऐसी अवस्था में जिस युक्ति का उल्लेख किया गया है, एकांश में मानी जा सकती है सर्वांश में नहीं। और जब यह युक्ति सर्वांश में गृहीत नहीं हुई, तो जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन मैं ऊपर से करता आया हूँ वही निर्विवाद ज्ञात होता है, और हमको इस बात के स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है कि प्राकृत भाषा से संस्कृत भाषा परुष नहीं है। तथापि राजशेखर जैसा वावदूक विद्वान् उसको प्राकृत से परुष बतलाता है, इसका क्या कारण है?
मैं समझता हूँ इसके निम्नलिखित कारण हैं:-
1. एक संस्कार जो सहस्रों वर्ष तक भारतवर्ष में फैला था, और जो प्राकृत को संस्कृत की जननी और उससे उत्तम बतलाता था।
2. प्राकृत का सर्वसाधारण की भाषा अथवा अधिकांश उसका निकटवर्ती वह केवल होना।
3. बोलचाल में अधिक आने के कारण प्राकृत का संस्कृत की अपेक्षा बोधगम्य होना।
और इसी लिए मेरा यह विचार है कि पदावली की कांतता, कोमलता और मधुरता केवल पदावली में ही सन्निहित नहीं है। वरन् उसका बहुत कुछ संबंध संस्कार और हृदय से भी है। संभव है कि मेरा यह विचार इन कतिपय पंक्तियों द्वारा स्पष्टतया प्रतिपादित न हुआ हो। इसके अतिरिक्त यह कदापि सर्वसम्मत न होगा कि प्राकृत से संस्कृत परुष नहीं है, अतएव मैं एक दूसरे पथ से अपने इस विचार को पुष्ट करने की चेष्टा करता हूँ।
जिस प्राकृत भाषा के विषय में यह सिद्धान्त हो गया था कि:-
सा मागधी मूलभाषा नरेय आदि कप्पिक।
ब्राह्माणमसूटल्लाप समबुद्धच्चापि भाषरे॥
पतिसम्बिध अत्तृय, नामक पाली ग्रंथ में जिस भाषा के विषय में लिखा गया है कि "यह भाषा देवलोक, नरलोक, प्रेतलोक और पशु जाति में सर्वत्र ही प्रचलित है, किरात, अन्धक, योणक, दामिल, प्रभृति भाषा परिवर्तनशील हैं। किंतु मागधी, आर्य और ब्राह्माणगण की भाषा है, इसलिए अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समानरूपेण व्यवहृत है। मागधी भाषा को सुगम समझ कर बुद्धदेव ने स्वयं पिटकनिचय को सर्वसाधारण के बोध-सौकर्य के लिए इस भाषा में व्यक्त किया था।" जिस प्राकृत को राजशेखर जैसा असाधारण विद्वान् संस्कृत से कोमल और मधुर होने का प्रशंसापत्र देता है, काल पाकर वह अनादृत क्यों हुई? उसका प्रचार इतना न्यून क्यों हो गया कि उसके ज्ञाताओं की संख्या उँगलियों पर गिनी जाने योग्य हो गई? मधुरता, कोमलता, कांतता किसको प्यारी नहीं है, सुविधा का आदर कौन नहीं करता; फिर सुविधामूलक मधुर कोमलकांत भाषा का व्यवहार क्यों कवियों की रचनाओं आदि में दिन-दिन अल्प होता गया? कहा जावेगा कि प्राकृत भाषा की प्रिय-दुहिता परम सरला और मनोहरा हिंदी भाषा का प्रचार ही इस हास का कारण है। परंतु प्रश्न तो यह है कि यह प्रिय दुहिता अपनी जन्मदायिनी से इतनी विरक्त क्यों हो गई कि दिन-दिन उसके शब्दों को त्याग कर संस्कृत शब्दों को ग्रहण करने लगी; काल पाकर क्यों थोड़े प्राकृत शब्द भी अपने मुख्य रूप में उसमें शेष नहीं रहे, और उस संस्कृत के अनेक शब्द उसमें क्यों भर गये जो कि परुष कही जाती है।
उस काल के ग्रंथों में केवल एक ग्रंथ पृथ्वीराज रासो, अब हम लोगों को प्राप्त है, अतएव मैं उसी ग्रंथ के कुछ पद्यों को यहाँ उद्धृत करता हूँ। आप लोग इनको पढ़कर देखिये कि किस प्रकार उस समय प्राकृत के शब्दों का व्यवहार न्यून और कैसे संस्कृत के शब्दों का समादर अधिक हो चला था। आज कल प्राकृत भाषा हम लोगों की इतनी अपरिचिता है कि उसके बहुत से शब्दों का व्यवहार करने के कारण ही, हम लोग अनुराग के साथ 'पृथ्वीराज रासो' को नहीं पढ़ सकते और उससे घबड़ाते हैं।
श्लोक
आसामहीब कब्बी नवनव कित्तिय संग्रह ग्रंथ।
सागरसरिसतरंगी वोहथ्थ्यं उक्तियं चलयं॥
दोहा
काव्य समुद कविचन्द कृति युगति समप्न् ज्ञान।
राजनीति वोहिथ सफल पार उतारन यान॥
सत्त सहस नष सिष सरस सकल आदि मुनि दिष्य।
घट बढ़ मत कोऊ पढ़ौ मोहि दूसन न बासिष्य॥
चन्द की रचना में तो प्राकृत शब्द मिलते भी हैं, वरन् कहीं कहीं अधिकता से मिलते हैं, किंतु महाकवि चन्द के पश्चात् के जितने कवियों की कवितायें मिलती हैं उनमें प्राकृत भाषा के शब्दों का व्यवहार बिल्कुल नहीं पाया जाता। कारण इसका यह है कि इस समय प्राकृत भाषा का व्यवहार उठ गया था और हिंदी का राज्य हो गया था। इस काल की रचना में अधिकांश हिंदी-शब्द ही पाये जाते हैं; हिंदी शब्द के साथ आते हैं तो संस्कृत के शब्द आते हैं, प्राकृत के शब्द बिल्कुल नहीं आते। महात्मा तुलसीदास, भक्तवर सूरदास और कविवर केशवदास की रचना में तो कहीं कहीं हिंदी शब्दों से भी अधिक संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।
पहले आप इन तीनों महोदयों के प्रथम की रचनाओं को देखिये:-
तरवर से एक तिरिया उसने बहुत रिझाया।
बाप का उसके नाम जो पूछा आधा नाम बताया।
सर्व सलोना सब गुन नीका। वा बिन सब जग लागे फीका॥
वाके सिर पर होवे कोन। ए सखि साजन? ना सखि लोन ॥
सिगरी रैन मोहि संग जागा। भोर भया तो बिछुरन लागा।
वाके बिछुरत फाटत हीया। ए सखि साजन? ना सखि दीया ॥
-अमीर खसरो
क्या पढ़ियै क्या गुनियै। क्या वेद पुराना सुनिये॥
सुने क्या होई। जो सहज न मिलियो सोई॥
हरि का नाम न जपसि गँवारा। क्या सोचै बारम्बारा॥
अँधियारे दीपक चाहियै। इक वस्तु अगोचर लहियै ।।
वस्तु अगोचर पाई। घट दीपक रह्यो समाई॥
कह कबीर अब जाना। जब जाना तो मन माना।
हृदय कपट मुख ज्ञानी। झूठे कहा बिलोवसि पानी॥
काया मांजसि कौन गुना। जो घट भीतर है मलना।
लौकी अठ सठ तीरथ न्हाई। कौरापन तऊ न जाई ।।
कह कबीर बीचारी। भवसागर तार मुरारी॥
-कबीरसाहब
नागमती चित्तौर पथ हेरा। पिउ जो गये फिर कीन न फेरा॥
सुआ काल है लैगा पीऊ। पीउ न जात जात बरु जीऊ॥
भयो नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा।।
करन बान लीनो के छंदू। भरथहिं भो झलमला अनंदू॥
लै कंतहिं भा गरूर अलोपी। विरह वियोग जियहिं किमि गोपी।
का सिर बरनों दिपइ मयंकू। चाँद कलंकी वह निकलंकू ॥
तेही लिलार प तिलक बईठा। दुइज पास मानों ध्रुव डीठा ।।
-मलिक मुहम्मद जायसी
अब आप उक्त तीनों महोदयों की रचनाओं को देखिये। इनमें संस्कृत शब्दों की कितनी प्रचुरता है:-
जमुना जल बिहरति ब्रज-नारी
तट ठाड़े देखत नँदनन्दन मधुर-मुरलि कर धारी।
मोर मुकुट श्रवनन मणि कुण्डल जलज-माल उर भ्राजत।
सुंदर सुभग श्याम तन नव घन बिच बग-पाँति विराजत॥
उर बनमाल सुभग बहु भाँतिन सेत लाल सित पीत ।
मनों सुरसरि तट बैठे शुक बरन बरन तजि भीत।
पीतांबर कटि मैं छुद्रावलि बाजत परम रसाल।
सूरदास मनो कनकभूमि ढिग बोलत रुधिर मराल॥
-भक्तवर सूरदास
सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जीके॥
चितवन चारु मार मद हरनी। भावत हृदय जात नहिं बरनी॥
कलकपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।
कुमुद-बंधु कर निन्दक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल विशाल तिलक झलकाहीं। कच विलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
रेखा रुचिर कम्बु कल ग्रीवा। जनु त्रिभुवन सोभा की सींवा॥
-महात्मा तुलसीदास
हरि कर मंडन सकल दुख खंडन
मुकुर महि मंडल को कहत अखण्ड मति।
परम सुबास पुनि पीयुख निवास
परिपूरन प्रकास केसोदास भूअकाश गति॥
बदन मदन कैसो श्री जू को सदन जहँ,
सोदर सुभोदर दिनेस जू को मीत अति।
सीता जू के मुख सुखमा की उपमा को
कहि कोमल न कमल अमल न रजनिपति॥
-कविवर केशवदास
यदि अभिनिविष्ट चित्त से इस विषय में विचार किया जावे तो स्पष्टतया यह बात हदयङ्गम होगी कि संस्कृत-शब्दों के समादर और प्राकृत शब्दों में अप्रीति का मुख्य कारण बौद्ध-धर्म को पराजित कर पुन: वैदिक धर्म का प्रतिष्ठा-लाभ करना है; जिसने संस्कृत की ममता पुन: जागरित कर दी। जब वैदिक-धर्म के साथ-साथ संस्कृत-भाषा का फिर आदर हुआ, तब यह असंभव था कि प्राकृत शब्दों के स्थान पर फिर संस्कृत-शब्दों से अनुराग न प्रकट किया जाता। सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा का त्याग असंभव था, किंतु यह संभव था कि उसमें उपयुक्त संस्कृत-शब्द ग्रहण कर लिए जावें। निदान उस काल और उसके परवर्ती काल के कवियों की रचनायें मैंने जो ऊपर उद्धृत की हैं उनमें आप ये ही बातें पावेंगे।
प्राकृत, कोमल, कांत और मधुर होकर भी क्यों त्यक्त हुई? इस लिए कि सर्वसाधारण का संस्कार और हृदय उसके अनुकूल न रहा, इस लिए कि वह बोलचाल की भाषा से दूर जा पड़ी और बोधगम्य न रही। संस्कृत के शब्द बोलचाल की भाषा से और भी दूर पड़ गये थे; और वह भी बोधगम्य नहीं थे; किंतु, धार्मिक-संस्कार ने उसके साथ सहानुभूति की, और इस सहानुभूति-जनित-हृदय- ममता ने उसको पुनः समादर का पान दिया। एक बात और है-मुख-सुविधा और श्रवन-सुखदाता मानसिक श्रम के सम्मुख आदृत और वांछनीय नहीं होती, और कांतता एवं कोमलता धार्मिक किंवा जाति-भाषा-मूलक संस्कार और तज्जनित- हृदय-ममता के सामने स्थान और सम्मान नहीं पाती। मुख और श्रवण मन के अनुचर हैं। जिस कविता के पठन करने में मुख को सुविधा हुई, सुनने में कान को आनन्द हुआ, किंतु समझने में मन को श्रम करना पड़ा, तो वह कविता अवश्य उद्वेगकर होगी, और यदि अपार श्रम करके भी मन उसको न समझ सका तो उसकी कांतता और कोमलता उसकी दृष्टि में कठोरता, दुरूहता और जटिलता की मूर्ति छोड़ और क्या होगी? इसके विपरीत वह यदि लिखने पढ़ने किंवा बोलचाल की भाषा की निकटवर्त्तिनी हो, मन के श्रम का आधार न हो, और उसमें मुख-सुविधाकारक अथच श्रवण-सुखद शब्द पर्याप्त भी न पाये जावें तो भी वह कविता आदृत और गृहीत होगी; और उसके श्रवण-कटु एवं मुख-असुविधाकारक शब्द कोमल और कांत बन जावेंगे, क्योंकि सुविधा ही प्रधान है।
जब इस व्यापार में धार्मिक किंवा जातिभाषा- मूलक संस्कार भी आकर सम्मिलित हो जाता है तब इसका रंग और गहरा हो जाता है। ब्रजभाषा ऐसी मधुर भाषा दूसरी नहीं मानी जाती, किंतु कुछ लोगों का विचार है कि फ़ारसी के समान मधुर भाषा संसार में दूसरी नहीं है। इस भाषा का प्रसिद्ध विद्वान और कवि अलीही जब हिन्दुस्तान में आया, तो उसको ब्रजभाषा के माधुर्य की प्रशंसा सुनकर कुछ स्पर्धा हुई। वह ब्रज-प्रांत में इस कथन की सत्यता की परीक्षा के लिए गया। मार्ग में उसको एक ग्वालिन जल ले जाते हुए मिली, जिसके पीछे पीछे एक छोटी कोमल बालिका यह कहती हुई दौड़ रही थी, 'मायरे माय गैल साँकरी पगन मैं काँकरी गड़तु हैं।' इस बालिका का कथन सुनकर वे चक्कर में आ गये और सोचा कि जहाँ की गँवार बालिकाओं का ऐसा सरस भाषण है, वहाँ के कवियों की वाणी का क्या कहना ! परंतु उनके सहधर्मियों ने इसी परम लावण्यवती, कोमला अथच मनोहरा ब्रजभाषा का क्या समादर किया, उन्होंने चुन-चुन कर इसके शब्दों को अपनी कविता में से निकाल बाहर किया और उनके स्थान पर फ़ारसी, अरबी के अकोमल और श्रुति-कटु शब्दों को भर दिया।
सबसे पहले मुसलमान कवि जिन्होंने हिंदी-भाषा में कविता करने के लिए लेखनी उठाई, अमीर खुसरो थे। यह कवि तेरहवें शतक में हुआ है। इसकी कविता का रंग देखिये:-
खालिकबारी सिरजनहार। वाहिद एक बेदाँ करतार ।
रसूल पयम्बर जान बसीठ। यार दोस्त बोली जा ईठ॥
जेहाल मिस्की मकुन तग़ाफुल। दुराय नैना बनाय बतियाँ।
किताबे हिज़रां न दारम् ऐ जाँ । न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।।
दक्षिण का सादी नामक एक आदिम उर्दू कवि बतलाया जाता है। उसकी कविता का नमूना यह है:-
हम तुम्हन को दिल दिया, तुम दिल लिया औ दुख दिया।
हम यह किया तुम वह किया, ऐसी भली यह पीत है।
वली भी उर्दू का आदिम कवि है, उसकी कविता का भी उदाहरण अवलोकन कीजिये:-
दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन।
जा कहो कोई मुहम्मद शाह सों
इन दोनों के उपरान्त ही शाह मुबारक का समय है, उसकी कविता का ढंग यह है:-
मत क़ह्न सेती हाथ में ले दिल हमारे को।
जलता है क्यों पकड़ता है ज़ालिम अंगारे को॥
ऊपर की कविताओं से प्रकट है कि पहले मुसलमान कवियों ने जो रचना की है उसमें या तो हिंदी-पदों और शब्दों को बिल्कुल फ़ारसी या पदों या शब्दों से अलग रखा है, या फ़ारसी अरबी शब्दों को मिलाया है तो बहुत ही कम; अधिकांश हिंदी शब्दों से ही काम लिया है, किंतु आगे चलकर समय ने पलटा खाया और निम्नलिखित प्रकार की कविता होने लगी:-
नूर पैदा है जमाले यार के साया तले।
गुल है शरमिन्दा रुखे दिलदार के साया तले॥
नासिख़
आफ़ताबे हश्र है या रब कि निकला गर्म गर्म।
कोई आँसू दिलजलों के दीदये ग़मनाक से ॥
न लौह गोर पै मस्ती के हो न हो तावीज़।
जो हो तो खिश्ते खुमे मैं कोई निशाँ के लिए॥
-जौक
खमोशी में निहाँ मूंगश्ता लाखों आरजूयें हैं।
चिरागे मुर्दा हूँ मैं बेज़बाँ गोरे ग़रीबाँ का॥
नक़श नाज़े बुततेन्नाज़ ब आग़ोश रक़ीब।
पायताऊस पये जामये मानी माँगे॥
यह तूफ़ांगाह जोशेइज्तिराबे शाम तनहाई।
मा शोआये आफ़ताबे सुब्हमहशरतारे बिस्तर है।
लबे ईसा की जुम्बिश करती है गहवाग जुबानी।
क़यामत कुश्तये लाले बुतां का ख्वाबे संगी है।
गालिब
अब प्रश्न यह है कि वह कौन सी बात है कि जिसके कारण ब्रजभाषा का, कि किसके माधुर्य पर अलीहज़ीं ऐसा उदार हृदय पारसी कवि लोट पोट हो गया था, पीछे मुसलमान कवियों द्वारा तिरस्कार हुआ। क्यों उन्होंने उसके कोमल कांत पदों के स्थान पर फ़ारसी और अरबी के श्रुति-कटु शब्दों का व्यवहार करना उचित समझा? क्यों उन्होंने ब्रजभाषा के सुविधापूर्वक उच्चारित वाले ग, ख, ज, फ, इत्यादि अक्षरों से निर्मित शब्दों के स्थान पर रौन, खे, जे, फ़े इत्यादि श्रुतिकंठ- विदीर्णकारी अक्षरों से मिलित शब्दों का आदर किया? इसका उत्तर इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि अरबी और फ़ारसी भाषा में उसके अक्षरों और शब्दों में, उनके धार्मिक और जातिभाषा-मूलक संस्कार ही ने उन्हें उनसे आदृत बनाया, इनमें जो उनकी हदय-ममता है उसी ने उन्हें इनको अंगीकृत करने के लिए बाध्य किया।
जो कुछ अब तक कहा गया, उससे यह बात भली प्रकार सिद्ध हो गई कि किसी पदावली की कोमलता, कांतता, मधुरता का बहुत कुछ संबंध, संस्कार और हृदय से है। इस अवसर पर यह कहा जा सकता है कि कोमलता, कांतता इत्यादि का संबंध हृदय या संस्कार से नहीं है, वास्तव में उसका संबंध पदावली से ही है। हाँ, उसके आदृत या अनादृत होने का संबंध निस्सन्देह संस्कार और हृदय से है। क्योंकि यदि दो बालक ऐसे उपस्थित किये जावें कि जिनमें एक सुंदर हो और दूसरा असुंदर, तो निज अपत्य होने के कारण असुंदर बालक में पिता का हृदय ममता हो सकती है, उसका स्वाभाविक संस्कार उसे निज पुत्र का आदर और सम्मान-दृष्टि से देखने के लिए बाध्य कर सकता है, किंतु इससे वह सुंदर नहीं हो जावेगा; सुंदर बालक को ही सुंदर कहा जावेगा। इसी प्रकार किसी अकांत और अकोमल पद को किसी का संस्कार और हृदय-भाव कांत और कोमल नहीं बना सकता; क्योंकि न्याय-दृष्टि कोमल और कांत को ही कोमल और कांत कह सकती है। जब सबको अपना ही अपत्य सुंदर ज्ञात होता है तो इससे यह सिद्ध है कि उसको दूसरे के अपत्य के सौंदर्य की अनुभूति नहीं होती; और जब अनुभूति नहीं होती तो उसकी दृष्टि में उसका सौंदर्य ही क्या? इसी प्रकार जब किसी पदावली की कांतता, मधुरता, कोमलता की अनुभूति ही नहीं होती, तो उसकी कांतता, मधुरता, कोमलता ही क्या? वास्तव में बात यह है कि ऐसे स्थानों पर संस्कार और हृदय ही प्रधान होता है।
पीयूषवर्षी कवि बिहारीलाल के निम्नलिखित दोहे कितने सुंदर और मनोहर हैं:-
बड़े बड़े छबि छाकु छकि छिगुनी छोर छुटैन।
रहे सुरँग रँग रँग वही, नहँदी महँदी नैन ।
सतर भौंह रूखे बचन, करति कठिन मन नीठि।
कहा कहाँ है जात हरि हेरि हँसोंहीं डीठि॥
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, देन कहै, नटि जाय॥
यक भीगे चहले परे, बूड़े बहे हजार।
किते न औगुन जग करे, नै बै चढ़ती बार ॥
परंतु आधुनिक पाठशलाओं के विद्यार्थियों और वर्तमान खड़ी बोली के अनुरागियों के सामने इनको रखिये, देखिये वह इनका कितना आदर करते हैं। मैंने देखा है कि आज कल के खड़ी बोली के रसिक ब्रजभाषा की कविता से उतना ही घबराते हैं, जितना कि वह किसी अपरिचित किंवा अल्प परिचित भाषा की कविता से घबड़ा सकते हैं। कारण इसका क्या है? कारण इसका यही है कि लिखने पढ़ने और बोलचाल की भाषा से वह दूर पड़ गई है। इन दोहों का माधुर्य्य, लालित्य, और कोमलता अथच कान्नता निर्विवाद है; किंतु जब वह इनको समझते ही नहीं, यदि समझने की चेष्टा करते हैं तो मन को विशेष श्रम करना पड़ता है, फिर उनकी दृष्टि में इनकी कोमलता और कांतता ही क्या? किंतु यदि इन दोहों के स्थान पर कोई संस्कृत-गर्भित खड़ी बोली की कविता रख दीजिये, तो देखिये वह उसको पढ़ कर कितना मुग्ध होते हैं और कितना आनन्दानुभव करते हैं; अतएव उनको उसी में कोमलता और कांतता दृष्टिगत होती है। और यही कारण है कि आजकल संस्कार और हृदय-ममता दोनों खड़ी बोली की ओर आकर्षित हो गई हैं; कि जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण खड़ी बोली की कविता का समधिक प्रचार है। जिन प्राचीन विद्वान् सज्जनों का संस्कार ब्रजभाषा के माधुर्य और कांतता के विषय में दृढ़ हो गया है, और इस कारण उसकी ममता उनके हृदय में बद्धमूल है, वे यदि कहें कि खड़ी बोली की कविता कर्कश होती है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या। ऐसे ही जिन्होंने ब्रजभाषा का अभूतपूर्व रस आस्वादन नहीं किया है, जो ब्रजभाषा की रचना में दुर्बोधता उपलब्ध करते हैं, वे यदि खड़ी बोली का समादर और प्यार करें और उसे ही कांत और कोमल समझें तो इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं, सदा ऐसा ही होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा। अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है; इस समय इस समय खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अतएव मैंने भी प्रियप्रवास' को खड़ी बोली में ही लिखा है। संभव है कि उसमें अपेक्षित कोमलता और कांतता न हो, परंतु इससे यह सिद्धान्त नहीं हो सकता कि खड़ी बोली में सुंदर कविता हो ही नहीं सकती। वास्तव बात यह है कि यदि उसमें कांतता और मधुरता नहीं आई है तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष है, खड़ी बोली का नहीं।
ग्रंथ का विषय
इस ग्रंथ का विषय श्रीकृष्णचन्द्र की मथुरा-यात्रा है; और इसीसे इसका नाम "प्रियप्रवास' रखा गया है। कथा-सूत्र से मथुरा-यात्रा के अतिरिक्त उनकी और ब्रज-लीलायें भी यथास्थान इसमें लिखी गई हैं। जिस विषय के लिखने के लिए महर्षि व्यासदेव, कवि-शिरोमणि सूरदास और भाषा के अपर मान्य कवियों तथा विद्वानों ने लेखनी की परिचालना की है, उसके लिए मेरे जैसे मंदधी का लेखनी उठान नितान्त मूढ़ता है। परंतु जैसे रघुवंश लिखने के लिए लेखनी उठा कर कवि- कुल-गुरु कालिदास ने कहा था, "मणौबज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः,। उसी प्रकार इस अवसर पर मैं भी स्वच्छ हृदय से यही कहूँगा "अति अपार जे सरित वर, जो नृप सेतु कराहिं । चढ़ि पिपीलिका परम लघु, बिनु श्रम पारहिं जाहिं ।।" रहा यह कि वास्तव में मैं पार जा सका हूँ या बीच ही में रह गया हूँ, किंवा उस पावन सेतु पर चलने का साहस करके निन्दित बना हूँ, इसकी मीमांसा विबुध जन करें। मेरा विचार तो यह है कि मैंने इस मार्ग में भी अनुचित दुस्साहस किया है, अतएव तिरस्कृत और कलंकित होने की आशा है। हाँ, यदि मर्मज्ञ विद्वज्जन इसको उदार दृष्टि से पढ़कर उचित संशोधन करेंगे, तो आशा है कि किसी समय में इस ग्रंथ का विषय भी रसिकों के लिए आनन्दकारक होगा।
हम लोगों का एक संस्कार है, वह यह कि जिनको हम अवतार मानते हैं, उनका चरित्र जब कहीं दृष्टिगोचर होता है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते हैं, जिसमें उसके ब्रह्मत्व का निरूपण हो। जो सज्जन इस विचार के हों, वे मेरे प्रेमाम ब्रह्मत्व का निरूपण हो। जो सज्जन इस विचार के हों, वे मेरे प्रेमाम्बुप्रश्रवण, प्रेमाम्बुप्रवाह और प्रेमाम्बुवारिधि नामक ग्रंथों को देखें; उनके लिए यह ग्रंथ नहीं रचा गया है। मैंने श्रीकृष्णचन्द्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म कर के नहीं। अवतारवाद को जड़ मैं श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक मानता हूँ "यद् यद् विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छत्वं ममतेजोंशसंभवम्"; अतएव जो महापुरुष है, उसका अवतार होना निश्चित है। मैंने भगवान् श्रीकृष्ण का जो चरित अंकित किया है, उस चरित का अनुधावन करके आप स्वयं विचार करें कि वे क्या थे, मैंने यदि लिख कर आपको बतलाया कि वे ब्रह्म थे, और तब आपने उनको पहचाना तो क्या बात रही! आधुनिक विचारों के लोगों को यह प्रिय नहीं है कि आप पंक्ति-पंक्ति में तो भगवान् श्रीकृष्ण को ब्रह्म लिखते चलें और चरित्र लिखने के समय "कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः प्रभुः" के रंग में रँग कर ऐसे कार्यों का कर्ता उन्हें बनावें कि जिनके करने में एक साधारण विचार के मनुष्य को भी घृणा होवे। संभव है कि मेरा यह विचार समीचीन न समझा जावे, परंतु मैंने उसी विचार को सम्मुख रखकर इस ग्रंथ को लिखा है, और कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे कि आधुनिक लोग भी सहमत हो सकें। आशा है कि आप लोग दयार्द्र हृदय से मेरे उद्देश्य के समझने की चेष्टा करेंगे और मुझको वृथा वाग्वाण का लक्ष्य न बनावेंगे।
वर्णन-शैली
रुचि-वैचित्र्य-स्वाभाविक है। कोई संक्षेप वर्णन को प्यार करता है कोई विस्तृत वर्णन को। किसी को कालिदास की प्रणाली प्रिय है, किसी को भवभूति की। संक्षेप वर्णन से जो हृदय पर क्षणिक गहरा प्रभाव पड़ता है कोई उसको आदर देता है, कोई उस विस्तृत वर्णन से मुग्ध होता है, जिसमें कि पूरी तौर पर रस का परिपाक हुआ हो। निदान किसी ग्रंथ की वर्णन-शैली का प्रभाव किसी मनुष्य पर उसकी रुचि के अनुसार पड़ता है। जो विस्तृत वर्णन को नहीं प्यार करता वह अवश्य किसी ग्रंथ के विस्तृत वर्णन को पढ़ कर ऊब जावेगा; इसी प्रकार जिसको किसी रस का संक्षेप वर्णन प्रिय नहीं, वह अवश्य एक ग्रंथ के संक्षेप वर्णन को पढ़ कर अतृप्त रह जावेगा। और यही कारण है कि प्रतिष्ठित ग्रंथकारों की समालोचनायें भी नाना रूपों में होती हैं। मैंने अपने ग्रंथ में वर्णन के विषय में मध्य पथ ग्रहण है, किंतु इस दशा में भी संभव है कि किसी सज्जन को कोई प्रसंग संक्षेप में वर्णन किया जान पड़े और किसी को कोई कथा भाग अनुचित विस्तार से लिखा गया ज्ञात हो। मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँगा, यदि ग्रंथ के सहृदय पाठकगण इस विषय में मुझे समुचित सम्मति देंगे, जिसमें कि दूसरी आवृत्ति में मैं अपने वर्णनों पर उचित मीमांसा कर सकूँ।
कवितागत कतिपय शब्द
अब मैं इस ग्रंथ की कविता में व्यवहृत किये गये कुछ शब्दों के विषय में विचार करना चाहता हूँ। सब भाषाओं में गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, कारण यह है कि छंद के नियम में बँध जाने से ऐसी अवस्था प्रायः उपस्थित हो जाती है, कि जब उसमें शब्दों को तोड़-मरोड़ कर रखना पड़ता है, या उसमें कुछ ऐसे शब्द सुविधा के लिए रख देने पड़ते हैं, जो गद्य में व्यवहृत नहीं होते। यह हो सकता है कि जो शब्द तोड़ या मरोड़ कर रखना पड़े वह, या गद्य में अव्यवहृत शब्द कविता में से निकाल दिया जावे, परंतु ऐसा करने में बड़ी भारी कठिनता का सामना करना पड़ता है; और कभी-कभी तो यह दशा हो जाती है कि ऐसे शब्दों के स्थान पर दश शब्द रखने से भी काम नहीं चलता। इस लिए कवि उन शब्दों को कविता में रखने के लिए बाध्य होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि उन शब्दों के पर्यायवाची दूसरे शब्द उसी भाषा में मौजूद होते हैं, और यदि वे शब्द उन शब्दों के स्थान पर रख दिये जावें, तो किसी शब्द को विकलांग बना कर या गद्य में अव्यवहृत शब्द रखने के दोष से कवि मुक्त हो सकता है; परंतु लाख चेष्टा करने पर भी कवि को समय पर वे शब्द स्मरण नहीं आते, और वह विकलांग अथवा गद्य में अव्यवहृत शब्द रख कर ही काम चलाता है। और यही कारण है कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है। कवि-कर्म बहुत ही दुरूह है। जब कवि किसी कविता का एक चरण निर्माण करने में तन्मय होता है, तो उस समय उसको बहुत ही दुर्गम और संकीर्ण मार्ग में होकर चलना पड़ता है। प्रथम तो छंद की गिनी हुई मात्रा अथवा गिने हुए वर्ण उसका हाथ पाँव बाँध देते हैं, उसकी क्या मजाल कि वह उसमें से एक मात्रा घटा या बढ़ा देते देवे, अथवा एक गुरु को लघु के स्थान पर या एक गुरु के स्थान पर एक लघु को रख देवे। यदि वह ऐसा करे तो वह छंद-रचना का अधिकारी नहीं। जो इस विषय में सतर्क हो कर वह आगे बढ़ा, तो हृदय के भावों और विचारों को उतनी ही मात्रा वा उतने ही वर्गों में प्रकट करने का झगड़ा सामने आया, इस समय जो उलझन पड़ती है, उसको कवि हृदय ही जानता है। यदि विचार नियत मात्रा अथवा वर्गों में स्पष्टतया न प्रकट हुआ, तो उसका यह दोष लगा कि उसका वाच्यार्थ साफ़ नहीं, यदि कोमल वर्गों में वह स्फुरित न हुआ, तो कविता श्रुतिकटु हो गई। यदि उसमें कोई घृणाव्यञ्जक शब्द आ गया तो अश्लीलता की उपाधि शिर पर चढ़ी, यदि शब्द तोड़े-मरोड़े गये तो च्युतदोष ने गला दबाया, यदि उपयुक्त शब्द न मिले तो सौ-सौ पलटा खाने पर भी एक चरण का निर्माण दुस्तर हो गया, यदि शब्द यउपाधिाशर पर चढ़ा, उपयुक्त शब्द न मिले तो सौ-सौ पलटा खाने पर भी एक चरण का निर्माण दुस्तर हो गया, यदि शब्द यथा-स्थान न पड़े तो दूरान्वय दोष ने आँखें दिखायीं। कहाँ तक कहें, ऐसी कितनी बातें हैं, जो कविता रचने के समय कवि को उद्विग्न और चिन्तित करती हैं, और यही कारण है कि प्रसिद्ध 'बहारदानिश' ग्रंथ के रचयिता ने बड़ी सहृदयता से एक स्थान पर यह शेर लिखा है:-
बराय पाकिये लफ़्जे शबे बरोज़ आरन्द
कि मुर्ग माही बाशन्द ख़ुफ़्ता ऊबेदार ॥
इसका अर्थ यह है कि "कवि एक शब्द को परिष्कृत करने के लिए उस रात्रि को जाग कर दिन में परिणत करता है, जिसको चिड़ियाँ और मछलियाँ तक निद्रा देवी के शान्ति-मय अङ्क में शिर रख कर व्यतीत करती हैं।" यदि कवि-कर्म इतना कठोर न होता, तो कवि-कुल-गुरु कालिदास जैसे असाधारण विद्वान और विद्या-बुद्धि-निधान, 'त्रयम्बकम् संयमिनं ददर्श' इस लोक-खण्ड में 'त्र्यम्बकम्' के स्थान पर 'त्रयम्बकम्' न लिख जाते, जो कि 'त्र्यम्बकम्' का अशुद्ध रूप है। यदि इस त्र्यम्बकम् के स्थान पर वह त्रिलोचनम् लिखते तो कविता सर्वथा निर्दोष होती; किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया, जिससे यह सिद्ध होता है, कि कविता करने के समय बहुत चेष्टा करने पर भी उनको यह शुद्ध और कोमल शब्द स्मरण नहीं आया, और इसीसे उन्होंने एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया जो च्युत-दोष से दूषित है। किसी किसी ने लिखा है कि उस काल में ऐसा व्याकरण प्रचलित था कि जिसके अनुसार 'त्र्यम्बकम्' शब्द भी अशुद्ध नहीं है, किंतु यह कथन ऐसे लोगों का उस समय तक मान्य नहीं है, जब तक कि वह व्याकरण का नाम बतला कर उस सूत्र को भी न बतला दें कि जिसके द्वारा यह प्रयोग भी शुद्ध सिद्ध हो। इस विचार के लोग यह समझते हैं कि यदि कवि-कुल-गुरु कालिदास की रचना में कोई अशुद्धि मान ली गई, तो फिर उनकी विद्वत्ता सर्वमान्य कैसे होगी। उनकी वह प्रतिष्ठा जो संसार की दृष्टि में एक चकितकर वस्तु है, कैसे रहेगी। अतएव येन केन प्रकारेण वे लोग
एक साधारण दोष को छिपाने के लिए एक बहुत बड़ा अपराध करते हैं, जिसको विवुध समाज नितान्त गर्हित समझता है।
इस विचार के लोग भाव-राज्य के उस मनोमुग्धकर-उपवन पर दृष्टि नहीं डालते, कि जिसके अंक में सदाशय और सद्विचार रूपी हृदय-विमोहक प्रफुल्ल- प्रसूनों के निकटवर्ती दो चार दोष-कण्टकों पर कोई दृष्टिपात ही नहीं करता। कवि किसी भाषा-हीन शब्द को यथाशक्ति तो रखता नहीं; जब रखता है तो विवश होकर रखता है जिसकी रचना अधिकांश सुंदर है, जिसके भाव लोक-विमुग्धकर और उपकारक हैं, उसकी रचना में यदि कहीं कोई दोष आ जावे तो उस पर कौन सहृदय दृष्टिपात करता है, और यदि दृष्टिपात करता है तो वह सहृदय नहीं।
"जड़ चेतन गुन दोष मय, विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार।
संसार में निर्दोष कौन वस्तु है? सभी में कुछ न कुछ दोष है, जो शरीर बड़ा प्यारा है; उसी को देखिये, उसमें कितना मल है। चन्द्रमा में कलंक है, सूर्य में धब्बे हैं, फूल में कीड़े हैं; तो क्या ये संसार की आदरणीय वस्तुओं में नहीं हैं? वरन् जितना इनका आदर है अन्य का नहीं है। कवि-कर्म-कुशल कालिदास की रचना इतनी अपूर्व और प्यारी है, इतनी सरस और सुंदर है, इतनी उपदेशमय और उपकारक है, कि उसमें यदि एक दोष नहीं सैकड़ों दोष होवें, तो भी वे स्निग्ध-पत्रावली-परिशोभित, मनोरम-पुष्प-फल-भार-विनम्र पादप के, दश पाँच नीरस, मलीन, विकृत पत्तों समान दृष्टि डालने योग्य न होंगे। फि उन दोषों के विषय में बात बनाने से क्या लाभ? मैं यह कह रहा था कि कवि कर्म नितान्त दुरूह है। अलौकिक प्रतिभाशाली कालिदास जैसे जगन्मान्य कवि भी इस दुरूहता-वारिधि- सन्तरण में कभी-कभी क्षम नहीं होते। जिनका पदानुसरण करके लोग साहित्य-पथ में पाँव रखना सीखते हैं, उन हमारे संस्कृत और हिंदी के धुरन्धर और मान्य साहित्याचार्यों की मति भी इस संकीर्ण स्थल पर कभी-कभी कुण्ठित होती है, और जब ऐसों की यह गति है तो साधारण कवियों की कौन कहे? मैं कवि कहलाने के योग्य नहीं, टूटी-फूटी कविता करके कोई कवि नहीं हो सकता, फिर यदि मुझसे भ्रम प्रमाद हो, यदि मेरी कविता में अनेक दोष होवें तो क्या आश्चर्य! अतएव आगे जो मैं लिखूगा, उसके लिखने का यह प्रयोजन नहीं है, कि मैं रूपान्तर से अपने दोषों को छिपाना चाहता हूँ-प्रत्युत् उसके लिखने का उद्देश्य कतिपय शब्दों के प्रयोग पर प्रकाश डालना मात्र है।
कतिपय क्रिया
हिंदी गद्य में देखने के अर्थ में अधिकांश देखना धातु के रूपों का ही व्यवहार होता है, कोई-कोई कभी अवलोकना, विलोकना, दरसना, जोहना, लखना धातु के रूपों का भी प्रयोग करते हैं; किंतु इस अर्थ के द्योतक निरखना और निहारना धातु के रूपों का व्यवहार बिल्कुल नहीं होता। अतएव इन कतिपय क्रियाओं के रूपों का व्यवहार कोई कोई खड़ी बोली के पद्य में करना उत्तम नहीं समझते, किंतु मेरा विचार है कि इन कतिपय क्रियाओं से भी यदि खड़ी बोली के पद्यों में संकीर्ण स्थलों पर काम लिया जावे तो उसके विस्तार और रचना में सुविधा होगी। मैं ऊपर दिखला चुका हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, अतएव इनको ब्रजभाषा की क्रिया समझ कर तज देना मुझे उचित नहीं जान पड़ता और इसी विचार से मैंने अपनी कविता में देखने के अर्थ में इन क्रियाओं के रूपों का व्यवहार भी उचित स्थान पर किया है। ऐसी ही कुछ और क्रियायें हैं, जो ब्रजभाषा की कविता में तो निस्सन्देह व्यवहत होती हैं, परंतु खड़ी बोली के गद्य में इनका व्यवहार सर्वथा नहीं होता; या यदि होता है तो बहुत न्यून। किंतु मैंने अपनी कविता में इनको भी निस्संकोच स्थान दिया है। मेरा विचार है कि इन क्रियाओं के व्यवहार से खड़ी बोली का पद्य-भाण्डार सुसम्पन्न और ललित होने के स्थान पर क्षति-ग्रस्त और असुंदर न होगा। ये क्रियायें लसना, विलसना, रचना, विराजना, सोहना, बगरना, बलजाना, तजना इत्यादि हैं। आधुनिक खड़ी बोली के कविता-लेखकों में से यद्यपि कई एक अपर सज्जनों को भी इनको काम में लेता देखा जाता है, किंतु इन लोगों में अधिकांश वे सज्जन हैं, जो ब्रजभाषा से कुछ परिचित हैं। जिन्होंने ब्रजभाषा का कोमल-कांत-वदन बिल्कुल नहीं देखा, उनकी कविता में इन क्रियाओं का प्रयोग कथञ्चित् होता है। मैं अपने कथन की पुष्टि गद्य के अवतरणों और आधुनिक वर्तमान कवियों की कविताओं का अपेक्षित अंश उठा कर, कर सकता हूँ-किंतु ऐसा करने में यह लेख बहुत विस्तृत हो जावेगा। ब्रजभाषा की क्रियाओं का प्रयोग खड़ी बोली में उसके नियमानुसार होना चाहिए; ब्रजभाषा के नियमानुसार नहीं, अन्यथा वह अवैध और भ्रामक होगा।
कुछ वर्णों का हलंत प्रयोग
हिंदी भाषा के कतिपय सुप्रसिद्ध गद्य-पद्य लेखकों को देखा जाता है कि ये इसका, उसका इत्यादि को इस्का, उस्का इत्यादि और करना, धरना इत्यादि को कर्ना, धर्ना इत्यादि लिखने के अनुरागी हैं। पद्य में ही संकीर्ण स्थलों पर वे ऐसा नहीं करते, गद्य में भी इसी प्रकार इन शब्दों का व्यवहार वे उचित समझते हैं। खड़ी बोली की कविता के लब्धप्रतिष्ठ प्रधान लेखक श्रीयुत पं. श्रीधर पाठक लिखित नीचे की कतिपय गद्य-पद्य की पंक्तियों को देखिये:-
"यह एक प्रेम-कहानी आज आपको भेंट की जाती है-निस्सन्देह इस्में ऐसा तो कुछ भी नहीं जिस्से यह आपको एक ही बार में अपना सके।"
"नम्र भाव से कीनी उस्ने विनय समेत प्रणाम"
"चला साथ योगी के हर्षित जहँ उस्का विश्राम"
"नहीं बड़ा भण्डार मढ़ी में कीजै जिस्की रखवाली"
"दोनों जीव पधारे भीतर जिन्के चरित अमोल"
-एकांतवासी योगी
हमारे उत्साही नवयुवक पण्डित लक्ष्मीधर जी वाजपेयी ने भी अपने 'हिंदी मेघदूत' में कई स्थानों पर इस प्रणाली को ग्रहण किया है; नीचे के पद्यों को अवलोकन कीजिये:-
"उस्का नीला जल पट तट श्रोणि से तू हरेगा"
"उसके शांतीहर पैत लखेगा सखा यों"
'जिस्की सेवा उचित रति के अंत में मत्करों से"
वाजपेयी जी की कविता वर्णवृत्त में लिखी गई है, जिसमें लघु गुरु नियतरूप में प्रयोग मैं उचित नहीं समझता; इसके निम्न लिखित कारण हैं: संख्या से आते हैं, इस लिए यदि उन्होंने दो दीर्घ रखने के लिए कविता में उसका, उसके, जिसकी के स्थान पर उस्का, उस्के, जिस्की लिखा तो उनका यह कार्य विवशतावश है। ऐसे स्थलों पर यह प्रयोग अधिक निन्दनीय नहीं है, किंतु गद्य में अथवा वहाँ, जहाँ कि शुद्ध रूप में ये शब्द लिखे जा सकते हैं, इन शब्दों का संयुक्त रूप में प्रयोग मैं उचित नहीं समझता; इसके निम्न लिखित कारण है:-
1. यह कि गद्य की भाषा में जो शब्द जिस रूप में व्यवहृत होते हैं, मुख्य उनके सब रूप बनाये हैं, तो अब उनके विषय मे एक नवीन पद्धति स्थापित करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती; क्योंकि व्यारकण उच्चारण के अनुकूल ही बनता है, उसके प्रतिकूल नहीं। समय पाकर उच्चारण में भिन्नता अवश्य हो जाती है और अवस्थाओं को छोड़कर पद्य की भाषा में भी उन शब्दों का उसी रूप में व्यवहृत होना समीचीन, सुसंगत और बोधगम्य होगा।
2. यह कि उसको, जिसमें, जिसको इत्यादि शब्दों को प्राचीन और आधुनिक अधिकांश गद्य-पद्य लेखक इसी रूप में लिखते आते हैं, फिर कोई कारण नहीं है कि इस प्रचलित प्रणाली का बिना किसी मुख्य हेतु के परित्याग किया जावे।
3. यह कि हिंदी भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति यथा संभव संयुक्ताक्षरत्व से बच कर रहने की है, अतएव उसके सर्वनामों इत्यादि को जो कि समय-प्रवाह-सूत्र से संयुक्त रूप में नहीं हैं, संयुक्त रूप में परिणत करना दुर्बोधता और क्लिष्टता संपादन करना होगा।
अब रही यह बात कि यदि वास्तव में हिंदी में कुछ अकारान्त वर्ण, शब्द- खण्ड और धातु-चिह्न के प्रथम के अक्षर हलंतवत् बोले जाते हैं, तो कोई कारण नहीं है, कि उच्चारण के अनुसार वे लिखे न जावें। इस विषय में मेरा यह निवेदन है कि इन वर्गों, शब्द-खण्डों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षरों का ऐसा उच्चारण हिंदी के जन्म-काल से ही है, या कुछ काल से हो गया है? और यदि जन्म-काल से ही है,तो इसके व्याकरण-रचयिताओं और लेखकों ने इस विषय में अमनोनिवेश क्यों किया? यदि उन्होंने मनोनिवेश नहीं भी किया तो एक वास्तव और युक्तिसंगत बात के ग्रहण करने में इस समय संकोच क्या? और यदि उसके ग्रहण में संकोच उचित नहीं, तो केवल पद्य में ही वे क्यों ग्रहण किये जावें, गद्य में भी क्यों न गृहीत हों? इन प्रश्नों के उत्तर में अधिक न लिखकर मैं केवल इतना ही कहूँगा कि इन वर्णों, शब्द-खण्डों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षरों को भाषा व्याकरण कर्ताओं ने स्वर-संयुक्त माना है, हलंतवत् नहीं। क्योंकि हलंतवत् क्या? कोई व्यञ्जन या तो स्वर-संयुक्त होगा या हलंत, और जब उन्होंने उनको स्वर-संयुक्त मानकर ही स्वर-संयुक्त होगा या हलंत, और जब उन्होंने उनको स्वर-संयुक्त मानकर ही उनके सब रूप बनाये हैं, तो अब उनके विषय मे एक नवीन पद्धति स्थापित करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती; क्योंकि व्यारकण उच्चारण के अनुकूल ही बनता है, उसके प्रतिकूल नहीं। समय पाकर उच्चारण में भिन्नता अवश्य हो जाती है और उस समय व्याकरण भी बदलता है, परंतु इन वर्गों, शब्द-खण्डों और धातु चिह्नों के प्रथम के अक्षर के लिए अभी वे दिन नहीं आए हैं। सोचिए, यदि इसको, जिसको इत्यादि को इस्को, जिस्को लिखें और करना, धरना, चलना इत्यादि को कर्ना, धर्ना, चल्ना इत्यादि लिखने लगें, तो हिंदी भाषा में कितना बड़ा परिवर्तन उपस्थित होगा।
समादरणीय पाठक जी का एक लेख खड़ी बोली की कविता पर प्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्य विवरण में मुद्रित हुआ है, उसके पृष्ठ 32 में एक स्थान पर उन्होंने इस विषय पर विचार करते हुए ऐसे शब्दों के विषय में यह लिखा है:-
'भाषा के शील संरक्षण की दृष्टि से पद्य लिखने में आवश्यकतानुसार बोलने की रीति अवलम्बन करने से कोई आपत्ति तो नहीं उपस्थित होती।"
"इस सब जगड्बाल के प्रदर्शन से मेरा अभिप्राय यह नहीं है, कि हमारी भाषा के पद्य में इस प्रकार शब्द व्यवहार करना चाहिए, किंतु बुधजनों के विचार के लिए यह मेरी केवल एक प्रस्तावना मात्र है।"
ये दोनों वाक्य यह स्पष्ट बतला देते हैं कि प्रशंसित पाठक जी भी गद्य में इस प्रकार शब्दों को लिखना उचित नहीं समझते; पद्य में भी वह आवश्यकतानुसार ऐसा प्रयोग आपत्ति-रहित मानते हैं। पाठक जी के निम्नलिखित वाक्यांशों से भी
यही बात सिद्ध होती है।
''आज कल मैं ऐसे स्थान पर हूँ कि उदाहरण नहीं दे सकता।", दूसरा वह जिसमें भाषा का यह गुण उपेक्षित सा देखने में आता है", "मिश्रित वा खिचड़ी भाषा के पद्य में यह योग्यता नहीं आ सकती", "ऐसी भाषा का प्रयोग उत्कृष्ट काव्य में कदापि न करना चाहिए"।
(हि.सा.स. , प्रथम भाग, पृ29)
''उसके मन में सर्वोत्तम है उसका ही प्रिय जन्मस्थान"
"उनके उर के मध्य मूर्खता का अंकुर भी बोता है"
-श्रान्तपथिक पृष्ठ 4,13
अब मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि कुछ अकारान्त वर्ण जैसे बस, अब जतन इत्यादि के स, ब, न आदि, कुछ ऐसे शब्द-खण्ड के अन्त्याक्षर जिन पर बोलने में आघात सा पड़ता है, जैसे गलबाहीं, मन-भावना इत्यादि के गल और मन आदि, कुछ ऐसे वर्ण जो धातु-चिह्न के पहले रहते हैं जैसे करना, धरना, चलना इत्यादि के र, ल आदि, यदि आवश्यकतानुसार उच्चारण का ध्यान करके पद्य में हलंत कर लिए जावें तो उससे कुछ सुविधा होगी या नहीं? और ऐसे प्रयोग का हिंदी भाषा के पद्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? मैं प्रशंसित पाठक जी के उक्त लेख में से ही एक पद्य यहाँ उठाता हूँ, आप इसे अवलोकन कीजिये:-
पर् इत्ने पर् भी तो नहिं मन हुआ शांत उनका।
वस् अब क्या करना था जब जतन कोई नहिं चला।
इस पद्य में इतने को इत्ने, पर को पर् बस को बस् और अब को अब् किया गया है। यह संस्कृत का शिखरिणी छंद है। यगण, भगण, नगण, सगण, मगण, लघु गुरु का शिखरिणी छंद होता है। श्रुतबोध में इसका लक्षण यह लिखा है:-
यदि प्राच्यो ह्रस्वस्तुलितकमले पञ्चगुरवः।
ततो वर्णाः पञ्च प्रकृतिसुकुमारङ्गि लघवः॥
त्रयोन्ये चोपान्त्याः सुतनुजघने भोगसुभगे।
रसैरीशै यस्यां भवति विरतिः सा शिखरिणी॥
इस लिए यदि ऊपर के दोनों चरण निम्नलिखित रीति से लिखे जावें तो निर्दोष होंगे; जैसे वे लिखे गये हैं, उन रीति से लिखने में छन्दों-भङ्ग होता है:-
परित्ने पर् भी तो नहिं मन हुआ शांत उनका।
बसब क्या कर्ना था जब जतन कोई नहिं चला॥
प्रथम प्रकार से लिखने में पहले चरण में दो लघु के उपरान्त चार गुरु पड़ते हैं, किंतु उक्त नियमानुसार एक लघु के पश्चात् पाँच गुरु होने चाहियें। इस लिए यह चरण खण्ड 'परित्ने पर भी' कर दिया जावे तो दोष निवृत्त हो जाता है। इसी प्रकार 'बस् अब क्या करना था'। यों लिखने से दूसरे चरण के प्रथम खण्ड में पहले तीन गुरु फिर दो लघु और बाद को दो गुरु पड़ते हैं, अतएव यह चरण-खण्ड भी सदोष है, यह जब यों लिखा जावे कि 'बसब क्या कर्ना था' तो ठीक होगा। किंतु यह बतलाइये कि इस प्रकार शब्द-विन्यास कहाँ तक समुचित होगा। संस्कृत के यत्, तत् की भाँति पर को पर्, बस को बस् और अब को अब् लिख कर एक गुरु बना लेना कहाँ तक युक्तिसंगत और हिंदी भाषा की प्रणाली के अनुकूल है, इसको सहृदय पाठक स्वयं विचारें। इन्हीं दोनों चरणों में मन, उनका, जब और जतन भी हैं, किंतु ये मन्, उन्का, जब् और जतन् नहीं बनाये गये। मुख्य कारण यह है कि ऐसा करने से छंद और सदोष हो जाता तथा उसकी भङ्गता का पारा और ऊँचा चढ़ जाता। इसलिए उनके रूप परिवर्तन की आवश्यकता नहीं हुई। यदि यह प्रणाली भाषा पद्य में चलाई जावे तो उसमें कितनी जटिलता और दुरूहता आ जावेगी इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं; कथित दोनों बातें ही इसका पर्याप्त प्रमाण हैं। हिंदी भाषा की प्रकृति हलंत को प्रायः सस्वर बना लेने की है। यदि उसकी इस प्रकृति पर दृष्टि न रख कर उसके सस्वर वर्णों को भी हलंत बना कर उसे संस्कृत का रूप दिया जाने लगे तो उसका हिंदीपन तो नष्ट हो ही जायगा, साथ ही वह संस्कृत भाषा के हलंत वर्गों के समान संधिसाहाय्य से सौंदर्य-संपादन करने के स्थान पर नितांत असुविधामूलक पद्धति ग्रहण करेगी और अपनी स्वाभाविक सरलता खो देगी।
संस्कृत के निम्नलिखत पद्यों को देखिये, इनमें किस प्रकार हलंत वर्णों ने सस्वर व्यञ्जन का रूप ग्रहण किया है और इस परिवर्तन से इन पदों में कितना माधुर्य्य आ गया है। हिंदी में किसी हलंत वर्ण को यह सुयोग कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी प्रकृति ही ऐसी नहीं है। उदाहरण के लिए नीचे कविता के दोनों चरण ही पर्याप्त हैं:-
वसुधामपि हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमती मिवापराम्।
इति यथाक्रममाविरभून्मधुई मवतीमवतीर्य्य वनस्थलीम्।
-रघुवंश
मामपि दहत्येकायमहर्निशिमनल इवापत्यातसमुद्भवः शोकः।
शून्यमिव प्रतिभाति में जगत् अफलमिव पश्यामि राज्यम्।।
कादम्बरी
जो उर्दू के ढंग का पद्य सुधी पाठक जी ने संगीत शाकुन्तल से उठाया है, उसको भी मैं नीचे लिखता हूँ, आप लोग इसे भी देखिये:-
पर इस्से पूछ ले क्या इसका मन है।
तू सोचे जा न कर चिन्ता कुछ इसकी।
इस पद्य में इससे को इस्से कर दिया गया है; किंतु दोनों की ही चार मात्रायें हैं, इस लिए इस पद्य में यदि इस्से के स्थान पर इससे ही रहता तो भी कोई अन्तर न पड़ता जैसा कि पद्य के दूसरे चरण के इसकी, और इसी चरण के इसका' के इसी रूप में लिखे जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ा। यह उन्नीस मात्रा का मात्रिक छंद है, इसके चरणों में दो दो मात्रा अधिक है। इससे जो तौल कर न पढ़ा जावे,तो इनमें छन्दोभङ्ग होता है। परंतु यह छन्दोभङ्ग-दोष उनमें के इससे, इसका, इसकी को इस्से, इस्का, इस्की कर देने से दूर नहीं हो सकता, क्योंकि मात्रा दोनों रूपों में ही समान हैं फिर उसको यह रूप देने से क्या लाभ? हाँ, यदि वे निम्नलिखित प्रकार से लिखे जावें तो निस्सन्देह उनकी सदोषता दूर हो जावेगी, परंतु ऐसी अवस्था में शब्दार्थ के समझने में कितनी उलझन होगी, यह अविदित नहीं है:-
प, इससे पूछ ले क्या इसक मन है।
तु सोचे जा, न कर चिन्ता कुछिसकी।।
संस्कृत के वर्णवृत्त और हिंदी के मात्रिक छन्दों की नियमावली इतनी सुंदर और तुली हुई है, और उसमें लघु गुरु वर्णों के संस्थान और मात्राओं की संख्या इस रीति से नियत की गई है कि यदि सावधानी से कार्य किया जावे, तो उनकी रचना में छन्दोभङ्ग हो ही नहीं सकता। दूसरी बात यह कि जब पद्य-रचना हो गई तो जैसे चाहिए पढ़िये, दूसरे से पढ़वाइये, उसके पढ़ने में उलझन होगी ही नहीं। क्योंकि उसमें एक लघु गुरु अक्षर का हेर फेर नहीं, एक मात्रा घट बढ़ नहीं, फिर छन्दोभङ्ग कैसे होगा; और जब छन्दोभङ्ग नहीं होगा तो उलझन क्यों होगी? किंतु उर्दू पद्यों की रचना वज़न पर होती है, न उनमें लघु, गुरु का नियम है, न मात्राओं का; केवल कुछ वज़न नियत हैं, उन्हीं वज़नों को कैंडा मान कर उसी कैंडे पर उसमें कविता की जाती है। जैसे, एक वज़न बताया गया, "मफ़ऊलफ़ायलातुन मफ़ऊलफ़ायलातुन' अब इसी वज़न पर उर्दू के कवि को कविता करनी पड़ती है, उसको यह ज्ञात नहीं है कि कितने अक्षर और मात्रा से इस वज़न का छंद बनेगा। यह प्रणाली उसने अरबी और फ़ारसी से ली है। अभ्यास एक अद्भुत वस्तु है, उससे सब कुछ हो सकता है; और उसीके द्वारा केवल वज़न के आश्रय से अरबी फ़ारसी में बिना छन्दोभङ्ग के बड़ी सुंदर कवितायें लिखी गई हैं। उनमें एक मात्रा की भी घटी-बढ़ी नहीं पाई जाती; वज़न पर ही उनकी अधिकांश कविता छन्दों-गति विषय में सर्वथा निर्दोष हैं। परंतु उर्दू में केवल वज़न ने बड़ी उलझन पैदा की है। मुख्य कर उन लोगों के लिए जो वर्णवृत्त और मातृक छंद पढ़ने के अभ्यस्त हैं। उर्दू कवियों ने वज़न पर काम किया है, इसलिए भाषा की क्रियाओं और शब्दों को बेहतर दबा-दुबू और तोड़-फोड़ डाला है। क्योंकि वज़न के कैंड़े पर वे प्रायः ठीक नहीं उतर सके। उर्दू भाषा में लिखे गये छंद को कोई मनुष्य उस समय तक शुद्धता से कदापि नहीं पढ़ सकता, जब तक कि उसको वज़न न ज्ञात हो। य पढ़ना चाहेगा, तो अधिकांश स्थलों पर उसका पतन होगा। मिर्जा ग़ालिब का एक शेर है:-
यह कहाँ की दोस्ती है जो बने हैं दोस्त नासेह।
कोई चाराकार होता कोई ग़म गुसार होता॥
यह शेर यदि निम्नलिखित प्रकार से लिख दिया जावे तब तो उसको सब शुद्धतापूर्वक पढ़ लेंगे, अन्यथा बिना वज़न पर दृष्टि डाले उसका ठीक-ठीक पढ़ना असंभव है:-
य कहाँ की दोस्ती है जुबनेह दोस्त नासह।
को चारकार होता को ग़म गुसार होता॥
यह हिंदी भाषा का चौबीस मात्रा का दिग्पाल छंद है, जिसमें बारह-बारह मात्राओं पर विराम होता है। किंतु आप देखें, चौबीस मात्रा का छंद बना कर लिखने में उक्त शेर के कुछ शब्द कितने विकृत हुए हैं और किस प्रकार उनमें दुर्बोधता आ गई है। अतएव बोध के लिए शब्दों का शुद्ध रूप में लिखा जाना ही समुचित और आवश्यक ज्ञात होता है। हाँ, पढ़ने के लिए उस वज़न का अवलंबन करना पड़ेगा जो कि दिग्पाल छंद का है, चाहे शब्दों और रसना को कितना ही दबाना पड़े, निदान यही प्रणाली प्रचलित भी है। जब उर्दू बह्न में लिखे गये शेर, या हिंदी-भाषा के पद्य, लिखे चाहे जिस प्रकार से जावें, पढ़े वज़न के अनुसार ही जावेंगे तो फिर शब्दों को विकृत करने से क्या प्रयोजन? मैं समझता हूँ इस विषय में वही पद्धति अवलम्बनीय है, जो अब तक प्रचलित और सर्वसम्मत है।
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कभी-कभी मात्रिक छन्दों में भी स्वर संयुक्त वर्ण को हलंतवत् पढ़ने से ही छंद की गति निर्दोष रहती है, और कहीं कहीं इस छंद में भी वर्णवृत्त के समान नियमित स्थान पर नियत रीति से लघु, गुरु रखने से ही काम चलता है। किंतु उर्दू बह्र के वज़न ही जब इस काम को पूरा कर देते हैं, तो शब्दों को विकृत कर के बोध में व्याघात उत्पन्न करना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता। वज़न के अनुकूल शब्दों को विकृत करके कविता को ठीक कर लेना यद्यपि छंद की गति के लिए अवश्य उपयोगी होगा, परंतु उससे जो शब्दों में विकृति होगी, वह बड़ी ही दुर्बोधता और जटिलतामूलक होगी; अतएव ऐसी अवस्था में वज़न का आश्रय ही वांछनीय है, शब्द की विकृति नहीं; निदान इस समय यही प्रणाली प्रचलित और गृहीत है।
मैंने इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर 'प्रियप्रवास' में इसको, जिसको, करना इत्यादि को इसी रूप में लिखा है; उनको संयुक्ताक्षर का रूप नहीं दिया है। न, जन, मन, मदन, बस, अब इत्यादि के अंतिम अक्षरों को कहीं गुरु बनाने के लिए हलंत किया है, आशा है मेरी यह प्रणाली बुधजन द्वारा अनुमोदित समझी जायेगी।
हलंत वर्णों का सस्वर प्रयोग
मैं ऊपर लिखा आया हूँ कि हिंदी भाषा की यह स्वाभाविकता है कि वह प्राय: युक्त वर्णों को सारल्य के लिए अयुक्त बना लेती है और हलंत वर्ण को सस्वर कर लेती है; गर्व, मर्म, धर्म, दर्प, मार्ग इत्यादि का गरब, मरम, दरप, मारग इत्यादि लिखा जाना इस बात का प्रमाण है। यद्यपि आजकल की भाषा अर्थात् गद्य में ये शब्द प्राय: शुद्ध रूप में ही लिखे जाते हैं, किंतु साधारण बोलचाल में वे अपभ्रंश रूप में ही काम देते हैं। खड़ी बोलचाल की कविता में गद्य के संसर्ग से वे शुद्ध रूप में ही लिखे जाने लगे हैं। किंतु आवश्यकता पड़ने पर उनके अपभ्रंश रूप से भी काम लिया जाता है। मेरे विचार में यह दोनों प्रणाली ग्राह्य है। हलंत वर्ण को सस्वर पास आचार्यों और प्रधान काव्य-कर्ताओं द्वारा व्यवहार किये जाने की सनद भी है, जैसा कि निम्नलिखित पद्य-खण्डों के अवलोकन करने से अवगत होगा:-
शुक से मुनि शार द से बकता
चिरजीवन लोमस से अधिकाने।
गोस्वामी तुलसीदास
आपने करम करि उतरोंगो पार,
तो पै हम करतार करतार तुम काहे को।
-सेनापति
राति ना सुहात परभात आली,
जब मन लागि जात काहू निरमोही सों।
-पद्माकर
जो विपति हूँ मैं पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं।
ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संशय नहीं।
-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)
निदान इसी प्रणाली का अवलम्बन करके मैंने भी प्रियप्रवास' में मरम इत्यादि शब्दों का प्रयोग संकीर्ण स्थलों पर किया है। ऐसा प्रयोग मेरी समझ में उस दशा में यथाशक्ति न करना चाहिए, जहाँ वह परिवर्तित रूप में किसी दूसरे अर्थ का द्योतक होवे। जैसा कि कविवर बिहारीलाल के निम्नलिखित पद्य का समर शब्द है, जो स्मर का अशुद्ध रूप है और कामदेव के अर्थ में ही प्रयुक्त है; परंतु अपने वास्तव अर्थ संग्राम की ओर चित्त को आकर्षित करता है।
"धस्यो मनो हिय घर समर ड्योढ़ी लसत निसान"
हिंदी-भाषा की कथित प्रकृति पर दृष्टि रख कर ही प्राचीन कतिपय लेखकों ने पद्य क्या गद्य में भी अनेक शब्दों के हलंत वर्ण को सस्वर लिखना प्रारम्भ कर दिया था। मुख्यत: वे उस हलंत वर्ण को प्रायः सस्वर करके लिखते थे जो किसी शब्द के अन्त में होता था। इस बात को प्रमाणित करने के लिए मैं मार्मिक लेखक स्वर्गीय श्रीयुत पण्डित प्रतापनारायण मिश्र लिखित कतिपय पंक्तियाँ उनके प्रसिद्ध 'ब्राह्मण' मासिक पत्र के खण्ड 4 संख्या 1, 2 से आगे अविकल उद्धृत करता हूँ :-
"तो कदाचित कोई परमेश्वर का नाम भी न ले"
'आप को चन्द्र सूर्य इन्द्र करण व हातिम बनाया करते हैं"
"छोटे-बड़े दरिद्री धनी मूर्ख विद्वान सब का यही सिद्धान्त है"
पृष्ठ संख्या 10
"सभी या तो प्रत्यक्ष ही विषवत या परम्परा द्वारा कुछ न कुछ नाश करनेवाले"
"बंधनरहित होने पर भी भगवान का नाम दामोदर क्यों पड़ा"
-संख्या 2 पृष्ठ 2
"द्रुपदतनया को केशाकरषण एवं वनवास आदि का दुख सहना पड़ा"
'यदि थोड़े से लोग उसके चाहनेवाले हैं भी तो निर्बल निरधन बदनाम"
-संख्या 2 पृष्ठ 3
"यद्यपि कभी कभी विद्वान, धनवान और प्रतिष्ठावान लोग भी उसके यहाँ जा रहते हैं"
-संख्या 2 पृष्ठ 5
'उसके चाहनेवाले उसे सारे जगत की भाषा से उत्तम माने बैठे हैं"
-संख्या 2 पृष्ठ 6
'इससे निरलज्ज हो के साफ़ लिखते हैं।'
संख्या 1 पृष्ठ 4
किंतु आज कल गद्य में किसी हलंत वर्ण को सस्वर लिखना तो उठता ही जा रहा है, प्रत्युत पद्य में भी इसका प्रचार हो चला है। मध्य के हलंत वर्ण की बात तो दूर रही इन दिनों किसी शब्द के अन्त्यस्थित हलंत को भी कतिपय आधुनिक प्रधान लेखक सस्वर लिखना नहीं चाहते। कदाचित्, विद्वान्, विषवत्, भगवान्, धनवान्, प्रतिष्ठावान्, जगत् इत्यादि शब्दों के अंतिम वर्ण को भी वे अब संस्कृत की रीति के अनुसार हलंत ही लिखते हैं। आज कल वही लोग ऐसा नहीं करते जो संस्कृत कम जानते हैं अथवा प्राचीन प्रणाली के अनुमोदक हैं, अन्यथा प्रायः हिंदी- लेखक इसी पथ के पान्थ हैं। मैं यह कहूँगा कि इस प्रथा का जितना अधिक सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रचार हो रहा है, उतना ही संस्कृत से अनभिज्ञ लेखक को हिंदी लिखना एक प्रकार से दुस्तर हो चला है और इस मार्ग में कठिनता उत्पन्न हो गई है; परंतु समय के प्रवाह को कौन रोक सकता है? पद्य में अब भी यह प्रणाली सर्वतोभावेन गृहीत नहीं हुई है; उदाहरण स्वरूप अग्रलिखित पद्यों पर दृष्टिपात कीजिये:-
"मित्र बंधु विद्वान साधु-समुदाय एक सपना पाया।"
"इस प्रकार हो विज्ञ जगत में नहीं किसी पर मरता हूँ।'
"तो भी किंतु कदाचित यदि बहु देशों का हम करें मिलान।"
"परिमित इच्छावान वहाँ के योग्य वहाँ का है वासी।"
"दीन उसे बेचे है औ धनवान मोल को माँगे है।"
-पं० श्रीधर पाठक (श्रान्तपथिक)
"थे नियम विद्या विनय के और हम विद्वान थे।
धर्मनिष्ठा थी सभी गुणवान थे श्रीमान थे॥"
-सरस्वती , भाग 14 खंड 2 संख्या 5 पृष्ठ 633
मैंने भी 'प्रियप्रवास में कदाचित्, महत् इत्यादि शब्दों का प्रयोग आवश्यक स्थलों पर उनके अंतिम हलंत वर्ण को सस्वर बना कर किया है। मेरा विचार है कि कविता के लिए इतनी सुविधा आवश्यक है, यों तो हिंदी की गठन-प्रणाली का ध्यान करके इनका गद्य में भी इस प्रकार लिखा जाना सर्वथा असंगत नहीं है।
शाब्दिक विकलांगता
इस ग्रंथ में जायेंगे, वैसाही, वैसीही इत्यादि के स्थान पर जायँगे, वैसिही, वैसही इत्यादि भी कहीं-कहीं लिखा गया है। यह शाब्दिक विकलांगता पद्य में इस सिद्धान्त के अनुसार अनुचित नहीं समझी जाती "अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभङ्गं न कारयेत्।" अतएव इस विषय में मैं विशेष कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं समझता। केवल 'जायँगे' के विषय में इतना कह देना चाहता हूँ कि अधिकांश लेखक गद्य में भी इस क्रिया को इसी प्रकार लिखते हैं। नीचे के वाक्यों को देखिये:-
"अरे वेणुवेत्रक, पकड़ इस चन्दनदास को घरवाले आप ही रो पीट कर चले जायँगे"
-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)
"धार्मिक अथवा सामाजिक विषयों पर विचार न किया जायगा, हिंदी समाचार पत्रों में छापने के लिए भेज दी जाय"
-द्वि० हि० सा० स० वि० प्रथम भाग पृष्ठ 50-51
अब इसके प्रतिकूल प्रयोगों को देखिये:-
"कहीं भी इतने लाल नहीं होते कि वे बोरियों में भरे जावें।"
"हिंदी भाषा के उत्तमोत्तम लेखों के साथ गिना जावे।"
"धीरे धीरे अपने सिद्धान्त के कोसों दूर हो जावेंगे।"
-द्वि० हिसा०स०वि० की भूमिका पृष्ठ 1 ,2,4 ।
"मेरे ही प्रभाव से भारत पायेगा परमोज्ज्वल ज्ञान।"
'मिट अवश्य ही जायेगा यह अति अनर्थकारी अज्ञान।"
"जिसमें इस अभागिनी का भी हो जावे अब बेड़ा पार।"
-श्रीयुत् पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी
मेरा विचार है कि जायँगे, जायगा, दी जाय इत्यादि के स्थान पर जायेंगे या जावेंगे, जायेगा वा जावेगा, दी जाये वा दी जावे इत्यादि लिखना अच्छा है, क्योंकि यह प्रयोग ऐसी सब क्रियाओं में एक सा होता है, किंतु प्रथम प्रयोग इस प्रकार की अनेक क्रियाओं में एक सा नहीं हो सकता। जैसे जाना धातु का रूप तो जायेंगे, जायगा इत्यादि बन जावेगा; परंतु आना, पीना इत्यादि धातुओं का रूप इस प्रकार न बन सकेगा, क्योंकि आयगा, पीयेगा इत्यादि नहीं लिखा जाता। आयेगा या आवेगा, पीयेगा या पीवेगा इत्यादि ही लिखा जाता है।
विशेषण-विभिन्नता
हिंदी भाषा के गद्य-पद दोनों में विशेषण के प्रयोग में विभिन्नता देखे जाती है। सुंदर स्त्री या सुन्दरी स्त्री, शोभित लता या शोभिता लता, दोनों लिखा जाता है। निम्नलिखित गद्य-पद्य को देखिये इनमें आपको दोनों प्रकार का प्रयोग मिलेगा:-
"अभी जो इसने अपने कानों को छूनेवाली चञ्चल चितवन से मुझे देखा"
"जो स्त्रियाँ ऐसी सुंदर हैं उन पर पुरुष को आसक्त कराने में कामदेव को अपना धनुष नहीं चढ़ाना पड़ता"
-कर्पूरमंजरी पृष्ठ 10,11
"निरवलम्बा, शोकसागरमग्ना, अभागिनी अपनी जननी की दुरवस्था एक बार तो आँखें खोल कर देखो"
"तुम लोग अब एक बेर जगतविख्याता, ललनाकुलकमलकलिका-प्रकाशित राजानिचयपूजितपादपीठा, सरलहृदया, आर्द्रचित्ता, प्रजारंजन-कारिणी, दयाशीला, आर्य्यस्वामिनी, राजेश्वरी महारानी विक्टोरिया के चरणकमलों में अपने दुःख को निवेदन करो"
-भारत जननी पृष्ठ 9,11
''धूनी तपै आग की ज्वाला चञ्चल शिखा झलकती है"
"कोमल, मृदुल, मिष्टवाणी से दुख का हेतु परखता है'
''अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेमसुधा बरसाता था"
-एकांतवासी योगी (पं० श्रीधर पाठक)
"जयति पतिप्रेमपनप्रानसीता।
नेहनिधि रामपद प्रेमअवलम्बिनी सततसहवास पतिव्रत पुनीता"
-पं० श्रीधर पाठक
"भृकुटी विकट मनोहर नासा"
"सोह नवल तनसुंदर सारी'
"मोह नदी कहँ सुंदर तरनी'
सकल परमगति के अधिकारी'
"पुनि देखी सुरसरी पुनीता''
''मम धामदा पुरी सुखरासी"
'नखनिर्गता सुरबन्दिता त्रयलोकपावन सुरसरी"
-महात्मा तुलसीदास
इस सर्वसम्मत प्रणाली पर दृष्टि रख कर ही इस ग्रंथ में भी विशेषणों का प्रयोग उभय रीति से किया गया है।
हिंदी-प्रणाली प्रस्तुत शब्द
कुछ शब्द इसमें ऐसे भी प्रयुक्त हुए हैं, जो सर्वथा हिंदी प्रणाली पर निर्मित हैं। संस्कृत-व्याकरण का उनसे कुछ संबंध नहीं है। यदि उसकी पद्धति के अनुसार उनके रूपों की मीमांसा की जावेगी तो वे अशुद्ध पाये जावेंगे, यद्यपि हिंदी भाषा के नियम से वे शुद्ध हैं। ए शब्द मृगदृगी, दृगता इत्यादि हैं। मृगदृगी का मृगदृषी, दृगता का दृक्ता शुद्ध रूप है; परंतु कवितागत सौकर्य-संपादन के लिए उनका वही रूप रखा गया है। हिंदी भाषा के गद्य-पद्य दोनों में इसके उदाहरण मिलेंगे, एक यहाँ पर दिया जाता है:
"ऐसी रुचिर-दृगी मृगियों के आगे शोभित भले प्रकार।"
-बाबू मैथिलीशरण गुप्त (सरस्वती भाग 8 संख्या 6 पृष्ठ 244)
शब्द-विन्यास विभिन्नता
शब्द-विन्यास में भी विभिन्नता इस ग्रंथ में आप लोगों को मिलेगी; ऐसा अधिकतर पद्य की भाषा का विचार करके और कहीं कहीं छंद की अवस्था पर दृष्टि रख कर हुआ है। रोये बिना न छन भी मन मानता था', 'रोना महा अशुभ जान पयान बेला' यदि मैं इन चरणों में छन के स्थान पर क्षण, पयान के स्थान पर प्रयाण लिखता तो इनके लालित्य में कितना अन्तर पड़ जाता। इसी प्रकार यदि मैं 'सचेष्ट होते भर वे क्षणेक थे' इस चरण में क्षणेक के स्थान पर छनेक लिख देता तो इसके ओज और रस में कितना विभेद; और यही कारण है कि आप इस ग्रंथ में कहीं छन कहीं क्षण, कहीं भाग कहीं भाग्य, कहीं प्रयाण इत्यादि विभिन्न प्रयोग देखेंगे।
मैंने इस विषय का पूर्ण ध्यान रखा है कि ग्रंथ की भाषा एक प्रकार की हो; और यथाशक्य मैंने ऐसा किया भी है, तथापि रस और अवसर के अनुसरण से आप इस ग्रंथ की भाषा को स्थान स्थान पर परिवर्तित पावेंगे। मैंने ऊपर कहा है कि जिस पद्य में मुझको जिस प्रकार का शब्द रखना उचित जान पड़ा, मैंने उसमें वैसा ही शब्द रखा है; परंतु नहीं कह सकता कि मैं अपने उद्देश्य में कहाँ तक कृतकार्य हुआ हूँ, और सहृदय कवि एवं विद्वानों को मेरी यह परिपाटी कहाँ तक उचित जान पड़ेगी।
मेरा यह भी विचार हुआ था कि मैं ब्रजभाषा की प्रणाली के अनुसार ण, श इत्यादि को न, स इत्यादि से बदल कर इस ग्रंथ की भाषा को विशेष कोमल कर दूँ। रमणीय, श्रवण, शोभा, शक्ति इत्यादि को रमनीय स्रवन, सोभा, सक्ति कर के लिखू। परंतु ऐसा करने से प्रथम तो इस ग्रंथ की भाषा वर्तमान-काल की भाषा से अधिक भिन्न हो जाती, दूसरे इसमें जो संस्कृत का यत्किंचित् रंग है वह न रहता और भद्दापन एवं अमनोहारित्व आ जाता। इस समय जितना 'रमणीय' शब्द श्रुतिसुखद और प्यारा ज्ञात होता है उतना रमनीय नहीं; जो 'शोभा' लिखने में सौन्दर्य्य और समादर है वह 'सोभा' लिखने में नहीं। अतएव कोई कारण नहीं था कि मैं सामयिक प्रवृत्ति और प्रवाह पर दृष्टि न रख कर एक स्वतंत्र पथ ग्रहण करता। किसी कवि ने
कितना अच्छा कहा है:-
" दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा सितापि मधुरेव।
तस्य तदेवहि मधुरं यस्य मनोवाति यत्र संलग्नम् ॥"
इस ग्रंथ में आप कहीं कहीं बहु वचन में भी यह और वह का प्रयोग देखेंगे, इसी प्रकार कहीं कहीं यहाँ के स्थान पर याँ, वहाँ के स्थान पर वाँ, नहीं के स्थान पर न और वह के स्थान पर सो का प्रयोग भी आप को मिलेगा। उर्दू के कवि एक वचन और बहु वचन दोनों में यह और वह लिखते हैं; और यहाँ और वहाँ के स्थान पर प्राय: याँ और वाँ का प्रयोग करते हैं; परंतु मैंने ऐसा संकीर्ण स्थलों पर ही किया है। हिंदी भाषा के अधुनिक पद्य-लेखकों को भी ऐसा करते देखा जाता है। मेरा विचार है कि बहु वचन में ए और वे का प्रयोग ही उत्तम है और इसी प्रकार यहाँ और वहाँ लिखा जाना ही यथाशक्य अच्छा है; अन्यथा चरण संकीर्ण स्थलों पर अनुचित नहीं, परंतु वहीं तक वह ग्राह्य है जहाँ तक कि मर्यादित हो। नहीं और वह के स्थान पर न और सो के विषय में भी मेरा यही विचार है। उक्त शब्दों के व्यवहार के उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य और गद्य आगे लिखे जाते हैं:
"जिन लोगों ने इस काम में महारत पैदा की है, वह लफ़जों को देखकर साफ पहचान लेते हैं''
'ख्यालात का मरतबा जवान से अव्वल है, लेकिन जब तक वह दिल में हैं, माँ के पेट में अधूरे बच्चे हैं''
''या यह दोनों ज़बाने एक जवान से इस तरह निकली होंगी, जिस तरह एक बाप की दो बेटियाँ जुदा हो गईं"
"वरना खाना-बदोशी के आलम में खुशबाश ज़िन्दगी बसर करते हैं, यह जंगलों के चरिन्द और पहाड़ों के परिन्द ऐसी बोलियाँ बोलते हैं"-
सखुनदान फ़ारस , सफहा 2,6,25
"वह झाड़ियाँ चमन की वह मेरा आशियाना।
वह बाग़ की बहारें वह सबका मिलके गाना॥"
(सरस्वती पत्रिका)
"तो वाँ ज़र्रा ज़र्रा यह करता है एला।
हवा याँ की थी ज़िन्दगी बख्श दौरां॥
कि आती हो वाँ से नज़र सारी दुनिया।
ज़माना की गरदिश से है किसको चारा॥
कभी याँ सिकन्दर कभी याँ है दारा।"
-मुसद्दसहाली
"है धन्य वही परमात्मा जो याँ तक लाया हमें।"
-सरस्वती पत्रिका भाग 8 संख्या 1 पृष्ठ 25
"जाइ न बरनि मनोहर जोरी। दरस लालसा सकुच न थोरी॥"
-महात्मा तुलसीदास
"रूप सुधा इकली ही पियै पियहूँ को न आरसी देखन देत है"
-"भारतेन्दु हरिश्चन्द्र"
"न स्वर्ग भी सुखद जो परतन्त्रता है"
-पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी
"सो तो कियो वायु सेवन को मानहुँ अपर प्रकारा है"
'सबै सो अहो एक तेरे निहोरे"
-पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी
"और जो है सो है ही, किंतु पाठक ज़रा इस कथन को ध्यानपूर्वक देखें"
-अभ्युदय , भाग 8 संख्या 3 पृष्ठ 3 कालम 3
ब्रजभाषा-शब्द-प्रयोग
आज कल के कतिपय साहित्य-सेवियों का विचार है कि खड़ी बोली की कविता इतनी उन्नत है हो गई है और इस पद पर पहुँच गई है कि उसमें ब्रजभाषा के किसी शब्द का प्रयोग करना उसे अप्रतिष्ठित बनाना है; परंतु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। ब्रजभाषा कोई पृथक् भाषा नहीं है, इसके अतिरिक्त उर्दू-शब्दों से उसके शब्दों का हिंदी भाषा पर विशेष स्वत्व है। अतएव कोई कारण नहीं है कि उर्दू के शब्द तो निस्संकोच हिंदी में गृहीत होते रहें और ब्रजभाषा के उपयुक्त और मनोहर शब्दों के
लिए भी उसका द्वार बन्द कर दिया जावे। मेरा विचार है कि खड़ी बोलचाल का रंग रखते हुए जहाँ तक उपयुक्त एवं मनोहर शब्द ब्रजभाषा के मिलें, उनके लेने में संकोच न करना चाहिए। जब उर्दू भाषा सर्वथा ब्रजभाषा के शब्दों से अब तक रहित नहीं हुई तो हिंदी भाषा उससे अपना संबंध कैसे विच्छिन्न कर सकती है। इसके व्यतीत मैं यह भी कहूँगा कि उपयुक्त और आवश्यक शब्द किसी भाषा का ग्रहण करने के लिए सदा हिंदी भाषा का द्वार उन्मुक्त रहना चाहिए; अन्यथा वह परिपुष्ट और विस्तृत होने के स्थान पर निर्बल और संकुचित हो जावेगी। सहृदय कवि भिखारीदास कहते हैं:
तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।
इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार॥
इस सिद्धान्त द्वारा परिचालित हो कर मैंने ब्रजभाषा के विलग, बगर इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी कहीं कहीं किया है, आशा है मेरा यह अनुचित साहस न समझा जायगा।
ह्रस्व वर्गों का दीर्घ बनाना
संस्कृत का यह नियम है कि उसके पद्य में कहीं-कहीं ह्रस्व वर्ण का प्रयोग दीर्घ की भाँति किया जाता है। सहदयवर बाबू मैथिलीशरण गुप्त के निम्नलिखित पद्य के उन शब्दों को देखिये जिनके नीचे लकीर खिंची हुई है। प्रथम चरण के घ, द्वितीय चरण के श, तृतीय चरण के त्र और चतुर्थ चरण के व तथा ति ह्रस्व वर्गों का उच्चारण इन पद्यों के पढ़ने में दीर्घ की भाँति होगा।
निदाघ ज्वाला से विचलित हुआ चातक अभी।
भुलाने जाता था निज विमल वश-व्रत सभी॥
दिया पत्र द्वारा नव बल मुझे आज तुमने।
सुसाक्षी हैं मेरे विदित कुल-देव ग्रह पति॥
इस प्रकार के प्रयोगों का व्यवहार यद्यपि हिंदी भाषा में आज कल सफलता से हो रहा है; और लोगों का विचार है कि यदि संस्कृत के वृत्तों की खड़ी बोली के पद्य के लिए आवश्यकता है, तो इस प्रणाली के ग्रहण की भी आवश्यकता है; अन्यथा बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ेगा और एक सुविधा हाथ से जाती रहेगी। मैं इस विचार से सहमत हूँ: परंतु इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि जहाँ तक संभव हो, ऐसा प्रयोग कम किया जावे; क्योंकि इस प्रकर का प्रयोग हिंदी-पद्य में एक प्रकार की जटिलता ला देता है। आप लोग देखेंगे कि ऐसे प्रयोगों से बचने की इस ग्रंथ में मैंने कितनी चेष्टा की है।
दोषक्षालन चेष्टा
इस ग्रंथ के लिखने में शब्दों के व्यवहार का जो पथ ग्रहण किया गया है, मैंने यहाँ पर थोड़े में उसका दिग्दर्शन मात्र किया है। इस ग्रंथ के गुण दोष के विषय में न तो मुझको कुछ कहने का अधिकार है और न मैं इतनी क्षमता ही रखता हूँ कि इस
जटिल मार्ग में दो-चार डग भी उचित रीत्या चल सकूँ। शब्द-दोष, वाक्य-दोष, अर्थ-दोष और रस-दोष इतने गहन हैं और इतने सूक्ष्म इसके विचार एवं विभेद हैं कि प्रथम तो उनमें यथार्थ गति होना असंभव है; और यदि गति हो जावे, तो उस पर दृष्टि रख कर काव्य करना नितान्त दुस्तर है। यह धुरन्धर और प्रगल्भ विद्वानों की बात है, मुझ-से अबोधों की तो इस पथ पर कोई गणना ही नहीं "जेहि मारुत गिरि मेरु उडाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं"। श्रद्धेय स्वर्गीय पण्डित सुधाकर द्विवेदी, प्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्य-विवरण के पृष्ठ 37 में लिखते हैं-
"हिंदी और संस्कृत काव्यों में जितने भेद हैं, उन सब पर ध्यान देकर जो काव्य बनाया जावे तो शायद एकाध दोहा या श्लोक काव्य-लक्षण से निर्दोष ठहरे।"
जब यह अवस्था है, तो मुझ-से अल्पज्ञ का अपनी साधारण कविता को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा करना मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं हो सकता। अतएव मेरी इन कतिपय पंक्तियों को पढ़ कर यह न समझना चाहिए कि मैंने इनको लिख कर अपने ग्रंथ को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा की है। प्रथम तो अपना दोष अपने ज्ञानलव-दुर्विदग्ध की तो कुछ बात ही नहीं।
--विनीत
'हरिऔध'
अनुक्रम
प्रथम सर्ग
द्वितीय सर्ग
तृतीय सर्ग
चतुर्थ सर्ग
पञ्चम सर्ग
षष्ठ सर्ग
सप्तम सर्ग
अष्टम सर्ग
नवम सर्ग
दशम सर्ग
एकादश सर्ग
द्वादश सर्ग
त्रयोदश सर्ग
चतुर्दश सर्ग
पंचदश सर्ग
षोड़श सर्ग
सप्तदश सर्ग
प्रथम सर्ग
द्रुतविलम्बित छंद
दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभारी ॥
विपिन बीच विहंगम-वृन्द का।
कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ।
ध्वनिमयी-विविधा विहगावली।
उड़ रही नभ-मण्डल मध्य थी॥2 ।।
अधिक और हुई नभ-लालिमा।
दश-दिशा अनुरंजित हो गई।
सकल-पादप-पुञ्ज हरीतिमा।
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई ॥3॥
झलकने पुलिनों पर भी लगी।
गगन के तल की यह लालिमा।
सरि सरोवर के जल में पड़ी।
अरुणता अति ही रमणीय थी॥4॥
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी।
किरण पादप-शीश-विहारिणी।
तरणि-विम्ब तिरोहित हो चला।
गगन-मण्डल मध्य शनैः शनैः॥5॥
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कन्दरा।
कलित-कानन केलि निकुञ्ज को।
बज उठी मुरली इस काल ही।
तरणिजा-तट-राजित-कुञ्ज में ॥6॥
क्वणित मंजु-विषाण हुए कई।
रणित श्रृंग हुए बहुत साथ ही।
फिर समाहित-प्रांतर-भाग में।
सुन पड़ा स्वर धावित-धेनु को॥7॥
निमिष में वन-व्यापित-वीथिका।
विविध-धेनु-विभूषित हो गई।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी।
विलसता जिनके दल साथ था॥8॥
जब हुए समवेत शनैः शनैः।
सकल गोप सधेनु समण्डली।
तब चले ब्रज-भूषण को लिए।
अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को ॥9॥
गगन मण्डल में रज छा गई।
दस-दिशा बहु-शब्दमयी हुई।
विशद-गोकुल के प्रति-गेह में।
बह चला वर-स्रोत विनोद का10॥
सकल वासर आकुल से रहे।
अखिल-मानव गोकुल-ग्राम के।
अब दिनान्त विलोकत ही बढ़ी।
ब्रज-विभूषण-दर्शन-लालसा ॥11॥
सुन पड़ा स्वर ज्यों कल-वेणु का।
सकल-ग्राम समुत्सुक हो उठा।
हृदय-यंत्र निनादित हो गया।
तुरत ही अनियंत्रित भाव से ॥12॥
बहु युवा युवती गृह-बालिका।
विपुल-बालक वृद्ध वयस्क भी।
विवश से निकले निज गेह से।
स्वदृग का दुख-मोचन के लिए ।।।3।।
इधर गोकुल से जनता कढ़ी।
उमगती पगती अति मोद में।
उधर आ पहुँची बलबीर की।
विपुल-धेनु-विमंडित मण्डली 14॥
ककुभ-शोभित गोरज बीच से।
निकलते ब्रज-वल्लभ यों लसे।
कदन ज्यों करके दिशि कालिमा।
विलसता नभ में नलिनीश है।15।।
अतसि-पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद नील-सरोरुह रंजिनी।
नवल-सुंदर-श्याम-शरीर
सजल-नीरद सी कल-कान्ति थी।16॥
अति-समुत्तम अंग समूह था।
मुकुर-मंजुल औ मनभावना।
सतत थी जिसमें सुकुमारता।
सरसता प्रतिविम्बित हो रही17॥
बिलसता कटि में पट पीत था।
रुचिर-वस्त्र-विभूषित गात था।
लस रही उर में बनमाल थी।
कल-दुकूल-अलंकृत स्कंध था॥18॥
मकर-केतन के कल-केतु से।
लसित थे वर-कुण्डल कान में।
घिर रही जिनकी सब ओर थी।
विविध-भावमयी अलकावली 19॥
मुकुट मस्तक का शिखि-पक्ष का।
मधुरिमामय था बहु मञ्जु था।
असित रत्न समान सुरंजिता।
सतत थी जिसकी वर-चन्द्रिका ।।20 ।।
विशद उज्ज्वल-उन्नत भाल में।
विलसती कल केसर-खौर थी।
असित-पंकज के दल में यथा।
रज-सुरंजित पीत-सरोज की 121 ।।
मधुरता-मय था मृदु-बोलना।
अमृत-सिंचित सी मुसकान
समद थी जन-मानस मोहती।
कमल-लोचन की कमनीयता ॥22॥
सबल-जानु विलम्बित बाहु थी।
अति-सुपुष्ट-समुन्नत वक्ष था।
वय-किशोर-कला लसितांग था।
मुख प्रफुल्लित पद्म-समान था ।।23 ।।
सरस-रोग-समूह सहेलिका।
सहचरी मन मोहन-मंत्र की।
रसिकता-जननी कल-नादिनी।
मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी ॥24॥
छलकती मुख की छवि-पुंजता।
छिटिकती क्षिति छू तन की छटा।
बगरती बर दीप्ति दिगन्त में।
क्षितिज में क्षणदा-कर कान्ति सी॥25 ।।
मुदित गोकुल की जन-मण्डली।
जव ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।
निरखने मुख की छवि यों लगी।
तृषित-चातक ज्यों घन की घटा ॥26 ।।
पलक लोचन की पड़ती न थी।
हिल नहीं सकता तन-लोम था।
छवि-रता-बनिता सब यों बनीं।
उपल निर्मित पुत्तलिक यथा ॥27 ।।
उछलते शिशु थे अति हर्ष से।
युवक थे रस की निधि लूटते।
जरठ को फल लोचन का मिला।
निरख के सुषमा सुखमूल की ॥28॥
बहु-विनोदित थीं ब्रज-बालिका। गती
तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़ती।
बलि गईं बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥29॥
मुरलिका कर-पंकज में लसी।
जब अचानक थी बजती कभी।
तब सुधारस मंजु-प्रवाह में।
जन-समागम था अवगाहता ॥30॥
ढिग सुशोभित श्रीबलराम थे।
निटक गोप-कुमार-समूह था।
विविध गातवती गरिमामयी।
सुरभि थीं सब ओर विराजती ॥31॥
बज रहे बहु-शृंग-विषाण थे।
क्वणित हो उठता वर-वेणु था।
सरस-राग-समूह अलाप से।
रसवती-बन थी मुदिता-दिशा ॥32॥
विविध-भाव-विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहुत दर्शक-मण्डली।
अति मनोहर थी बनती कभी।
बज किसी कटि की कलकिंकिणी।।33||
इधर था इस भाँति समा बँधा।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही।
अब न था उसमें रवि राजता।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं ।।34 ।।
अरुणिमा-जगती-तल-रंजिनी।
वहन थी करती अब कालिमा।
मलिन थी नव-राग-मयी-दिशा।
अवनि थी तमसावृत हो रही ।।35 ॥
तिमिर की यह भूतल-व्यापिनी।
तरल-धार विकाश विरोधिनी।
जन-समूह-विलोचन के लिए।
बन गई प्रति-मूर्ति विराम की॥36 ॥
द्युतिमती उतनी अब थी नहीं।
नयन की अति दिव्य कनीनिका।
अब नहीं वह थी अवलोकती।
मधुमयी छवि श्रीघनश्याम की।।37॥
यह अभावुकता तम-पुञ्ज की।
सह सकी न नभस्तल तारका।
वह विकाश-विवर्द्धन के लिए।
निकलने नभ-मण्डल में लगी ॥38॥
तदपि दर्शक-लोचन-लालसा।
फलवती न हुई तिलमात्र भी।
यह विलोक विलोचन दीनता।
सकुचने सरसीरुह भी लगे ॥39॥
खग-समूह न था अब बोलता।
विटप थे बहु नीरव हो गये।
मधुर मंजुल मत्त अलाप के।
अब न यंत्र बने तरु-वृन्द थे॥40॥
विहग औ विटपी-कुल मौनता।
प्रकट थी करती इस मर्म को।
श्रवण को वह नीरव थे बने।
करुण अंतिम-वादन वेणु को 41 ।।
विहग-नीरवता-उपरांत ही।
रुक गया स्वर श्रृंग विषाण का
कल-अलाप समापित हो गया।
पर रही बजती वर-वंशिका ||42 ॥
विविध-मर्मभरी करुणामयी।
ध्वनि वियोग-विराग-विवोधिनी।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगन्त में।
फिर समीरण में वह भी मिली 143॥
ब्रज-धरा-जन जीवन-यंत्रिका।
विटप-वेलि-विनोदित-कारिणी।
मुरलिका जन-मानस-मोहिनी।
अहह नीरवता निहित हुई 144 ।।
प्रथम ही तम की करतूत से।
छवि न लोचन थे अवलोकते।
अब निनाद रुके कल-वेणु का।
श्रवण पान न था करता सुधा 145 ।।
इस लिए रसना-जन-वृन्द की।
सरस-भाव समुत्सुकता पगी।
ग्रथन गौरव से करने लगी।
ब्रज-विभूषण की गुण-मालिका 146 ।।
जब दशा यह थी जन-यूथ की।
जलज-लोचन थे तब जा रहे।
सहित गोगण गोप-समूह के।
अवनि-गौरव-गोकुल ग्राम में 147 ॥
कुछ घड़ी यह कांत क्रिया हुई।
फिर हुआ इसका अवसान भी।
प्रथम थी बहु धूम मची जहाँ।
अब वहाँ बढ़ता सुनसान था 148 ।।
कर विदूरित लोचन लालसा।
स्वर प्रसूत सुधा श्रुति को पिला।
गुण-मयी रसनेन्द्रिय को बना।
गृह गये अब दर्शक-वृन्द भी॥49 ।।
प्रथम थी स्वर की लहरी जहाँ।
पवन में अधिकाधिक गूंजती।
कल अलाप सुप्लावित था जहाँ।
अब वहाँ पर नीरवता हुई 150 ॥
विशद-चित्रपटी ब्रजभूमि की।
रहित आज हुई वर चित्र से।
छवि यहाँ पर अंकित जो हुई।
अहह लोप हुई सब-काल को ।।51 ।।
द्वितीय सर्ग
द्रुतविलम्बित छंद
गत हुई अब थी द्वि घटी निशा।
तिमिर-पूरित थी सब मेदिनी।
बहु विमुग्ध करी बन थी लसी।
गगन मण्डल तारक-मालिका॥1॥
तम ढके तरु थे दिखला रहे।
तमस-पादप से जन-वृन्द को।
सकल-गोकुल गेह-समूह भी ।
तिमिर-निर्मित सा इस काल था ॥2॥
इस तमो-मय गेह-समूह का।
अति-प्रकाशित सर्व-सुकक्ष था।
विविध-ज्योति-निधान-प्रदीप थे।
तिमिर-व्यापकता हरते जहाँ॥3॥
इस प्रभा-मय-मंजुल-कक्ष में।
सदन की करके सकला क्रिया।
कथन थीं करती कुल-कामिनी।
कलित कीर्ति ब्रजाधिप-तात की।4।।
सदन-सम्मुख के कल ज्योति से।
ज्वलित थे जितने वर-बैठके।
पुरुष-जाति वहाँ समवेत हो।
सुगुण-वर्णन में अनुरक्त थी॥5॥
रमणियाँ सब ले गृह-बालिका।
पुरुष लेकर बालक-मण्डली।
कथन थे करते कल-कंठ से।
ब्रज-विभूषण की विरदावली ॥6॥
सब पड़ोस कहीं समवेत था।
सदन के सब थे इकठे कहीं।
मिलित थे नरनारि कहीं हुए।
चयन को कुसुमावलि कीर्ति को 17 ।।
रसवती रसना बल से कहीं।
कथित थी कथनीय गुणावली।
मधुर राग सधे स्वर ताल में।
कलित कीर्ति अलापित थी कहीं॥8॥
बज रहे मृदु मंद मृदंग थे।
ध्वनित हो उठता करताल था।
सरस वादन से वर बीन के।
विपुल था मधु-वर्षण हो रहा ॥9॥
प्रति निकेतन से कल-नाद का।
निकलती लहरी इस काल थी।
मधुमयी गलियाँ सब थीं बनी।
ध्वनित सा कुछ गोकुल-ग्राम था॥10॥
सुन पड़ी ध्वनि एक इसी घड़ी।
अति-अनर्थकरी इस ग्राम में।
विपुल वादित वाद्य-विशेष से।
निकलती अब जो अविराम थी॥11॥
मनुज एक विघोषक वाद्य की।
प्रथम था करता बहु ताड़ना।
फिर मुकुन्द-प्रवास-प्रसंग यों।
कथन था करता स्वर-तार से12॥
अमित-विक्रम कंस नरेश ने।
धनुष-यज्ञ विलोकन के लिए।
कल समादर से ब्रज-भूप को।
कुँवर संग निमन्त्रित है किया ।।13 ।।
यह निमंत्रण लेकर आज ही।
सुत-स्वफल्क समागत हैं हुए।
कल प्रभात हुए मथुरापुरी।
गमन भी अवधारित हो चुका ।।14।।
इस सुविस्तृत-गोकुल ग्राम में।
निवसते जितने वर-गोप हैं।
सकल को उपढौकन आदि ले।
उचित है चलना मथुरापुरी॥15॥
इसलिए यह भूपनिदेश है।
सकल-गोप समाहित हो सुनो।
सब प्रबन्ध हुआ निशि में रहे।
कल प्रभात हुए न विलम्ब हो।।16 ।।
निमिष में यह भीषण घोषणा।
रजनि-अंक-कलंकित-कारिणी।
मृदु-समीरण के सहकार से।
अखिल गोकुल-ग्राममयी हुई॥17॥
कमल-लोचन-कृष्ण-वियोग की।
अशनि-पात-समा के लिए।
परम-आकुल-गोकुल के लिए।
अति-अनिष्टकरी-घटना हुई ।18॥
चकित भीत अचेतन सी बनी।
कँप उठी कुलमानव-मण्डली।
कुटिलता कर याद नृशंस की।
प्रबल और हुई उर वेदना ॥19॥
कुछ घड़ी पहले जिस भूमि में।
प्रवहमान प्रमोद-प्रवाह था।
अब उसी रस-प्लावित भूमि में।
बह चला खर स्रोत विषाद का॥20॥
कर रहे जितने कल गान थे।
तुरत वे अति-कुण्ठित हो उठे।
अब अलाप अलौकिक कंठ के।
ध्वनित थे करने न दिगन्त को॥21॥
उतर तार गये बहु बीन के।
मधुरता न रही मुरजादि में।
विवशता-वश वादक-वृन्द के।
गिर गये कर के करताल भी॥22॥
सकल-ग्रामवधू कल कंठता।
परम-दारुण-कातरता बनी।
हृदय की उनकी प्रिय-लालसा।
विविध-तर्क वितर्क-मयी हुई ॥23 ।।
दुख भरी उर-कुत्सित भावना।
मथन मानस को करने लगी।
करुण-प्लावित लोचन कोण में।
झलकने जल के कण भी लगे॥24॥
सब-उमंग-मयी पुर-बालिका।
मलिन और सशंकित हो गई।
अति-प्रफुल्लित बालक-वृन्द का।
वदन-मण्डल भी कुम्हला गया॥25॥
ब्रज-धराधिप तात प्रभात ही।
कल हमें तज के मथुरा चले।
असहनीय जहाँ सुनिये वहीं।
बस यही चरचा इस काल थी॥26॥
सब परस्पर थे कहते यही।
कमल-नेत्र निमंत्रित क्यों हुए।
कुछ स्वबंधु समेत ब्रजेश का।
गमन ही, सब भाँति यथेष्ट था ।।27 ।।
पर निमंत्रित जो प्रिय हैं हुए।
कपट भी इसमें कुछ है सही।
दुरभिसंधि नृशंस-नृपाल की।
अब न है ब्रज-मण्डल में छिपी 128 ।।
विवश है करती विधि वामता।
कुछ बुरे दिन हैं ब्रज-भूमि के।
हम सभी अतिही-हतभाग्य हैं।
उपजती नित जो नव-व्याधि है ॥29॥
किस परिश्रम और प्रयत्न से।
कर सुरोत्तम की परिसेवना।
इस जराजित-जीवन-काल में।
महर को सुत का मुख है दिखा ॥30॥
सुअन भी सुर विप्र प्रसाद से।
अति अपूर्व अलौकिक है मिला।
निज गुणावलि से इस काल जो।
ब्रज-धरा-जन जीवन-प्राण है॥31॥
पर बड़े दुख की यह बात है।
विपद जो अब भी टलती नहीं।
अहह है कहते बनती नहीं।
परम-दग्धकरी उर की व्यथा ॥32॥
जनम की तिथि से बलबीर की।
बहु-उपद्रव हैं ब्रज में हुए।
विकटता जिन की अब भी नहीं।
हृदय से अपसारित हो सकी॥33॥
परम-पातक की प्रतिमूर्ति सी।
अति अपावनतामय-पूतना।
पय-अपेय पिलाकर श्याम को।
कर चुकी ब्रज-भूमि विनाश थी।।34 ।।
पर किसी चिर-संचित-पुण्य से।
गरल अमृत अर्भक को हुआ।
विष-मयी वह हो कर आप ही।
कवल काल-भुजंगम का हुई ।।35 ।।
फिर अचानक धूलिमयी महा।
दिवस एक प्रचंड हवा चली।
श्रवण से जिसकी गुरु-गर्जना।
कैंप उठा सहसा उर दिग्वधू।36 ॥
उपल वृष्टि हुई तम छा गया।
पट गई महि कंकर-पात से।
गड़गड़ाहट वारिद-व्यूह की।
कुकुभ में परिपूरित हो गई।37॥
उखड पेड़ गये जड़ से कई।
गिर पड़ी अवनी पर डालियाँ।
शिखर भग्न हुए उजड़ीं छतें।
हिल गये सब पुष्ट निकेत भी॥38॥
बहु रजोमय आनन हो गया।
भर गये युग-लोचन धूलि से।
पवन-वाहित-पांशु-प्रहार से।
गत बुरी ब्रज-मानस की हुई 139॥
घिर गया इतना तम-तोम था।
दिवस था जिससे निशि हो गया।
पवन-गर्जन औ घन-नाद से।
कैंप उठी ब्रज-सर्व वसुन्धरा ॥140॥
प्रकृति थी जब यो कुपिता महा।
हरि अदृश्य अचानक हो गये।
सदन में जिससे ब्रज-भूप के।
अति-भयानक-क्रन्दन हो उठा ॥41॥
सकल-गोकुल था यक तो दुखी।
प्रबल-वेग प्रभंजन आदि से।
अब दशा सुन नन्द-निकेत की।
पवि-समाहत सा वह हो गया।42॥
पर व्यतीत हुए द्विघटी टली।
यह तृणावरतीय विडम्बना।
पवन-वेग रुका तम भी हटा।
जलद-जाल तिरोहित हो गया।43॥
प्रकृति शांत हुई वर व्योम में।
चमकने रवि की किरणें लगीं।
निकट ही निज सुंदर सद्म के।
किलकते हँसते हरि भी मिले।44॥
अति पुरातन-पुण्य ब्रजेश का।
उदय था इस काल स्वयं हुआ।
पतित हो खर वायु-प्रकोप में।
कुसुम-कोमल बालक जो बचा ॥45॥
शकट-पात व्रजाधिप पास ही।
पतन अर्जुन से तरु राज का।
पकड़ना कुलिशोपन चञ्चु से।
खल बकासुर का बलवीर को॥46 ॥
वधन-उद्यम दुर्जय-वत्स का।
कुटिलता अघ संज्ञक-सर्प की।
विकट घोटक की अपकारिता।
हरि निपातन यल अरिष्ट का ॥47॥
कपट-रूप-प्रलम्ब प्रवंचना।
खलपना-पशुपालक-व्योम का।
अहह ए सब घोर अनर्थ थे।
ब्रज-विभूषण हैं जिनसे बचे॥48 ।।
पर दुरन्त नराधिप कंस ने।
अब कुचक्र भयंकर है रचा।
युगल-बालक संग ब्रजेश जो।
कल निमंत्रित हैं मख में हुए 149 ॥
गमन जो न करें बनती नहीं।
गमन से सब भाँति विपत्ति है।
जटिलता इस कौशल जाल की।
अहह है अति कष्ट-प्रदायिनी 150॥
प्रणतपाल कृपानिधि श्रीपते।
फलद है प्रभु का पद-पद्म ही।
दुख-पयोनिधि मञ्जित का वही।
जगत में परमोत्तम पोत है।51 ॥
विषम संकट में ब्रज है पड़ा।
पर हमें अवलम्बन है वही।
निबिड़ पामरता, तम हो चला।
पर प्रभो बल है नख-ज्योति का॥52 ॥
विपद ज्यों बहुधा कितनी टली।
प्रभु कृपावल त्यों यह भी टले।
दुखित मानस का करुणानिधे।
अति विनीत निवेदन है यही॥53॥
ब्रज-विभाकर ही अवलम्ब हैं।
हम सशंकित प्राणि-समूह के।
यदि हुआ कुछ भी प्रतिकूल तो।
ब्रज-धरा तमसावृत हो चुकी ।।54॥
पुरुष यों करते अनुताप थे।
अधिक थीं व्यथिता ब्रज-नारियाँ।
बन अपार-विषाद-उपेत वे।
विलख थीं दुग-वारि विमोचती 155 ।।
दुख प्रकाशन का क्रम नारि का।
अधिक था नर के अनुसार ही।
पर विलाप कलाप बिसूरना।
बिलखना उन में अतिरिक्त था ।।56 ।।
ब्रज-धरा-जन की निशि साथ ही।
विकलता परिवर्द्धित हो चली।
तिमिर साथ विमोहक-शोक भी।
प्रबल था पलही पल हो रहा ।।57॥
विशद-गोकुल बीच विषाद की।
अति-असंयत जो लहरें उठीं।
बहु विवर्द्धित हो निशि-मध्य ही।
ब्रज-धरातलव्यापित वे हुईं ॥58॥
विलसती अब थी न प्रफुल्लता।
न वह हास विलास विनोद था।
हृदय कम्पित थी करती महा।
दुखमयी ब्रज-भूमि-विभीषिका ।।59॥
तिमिर था घिरता बहु नित्य ही।
पर घिरा तम जो निशि आज की।
उस विषाद-महातम से कभी।
रहित हो न सकी ब्रज की धरा ।।60॥
बहु-भयंकर थी यह यामिनी।
बिलपते ब्रज भूतल के लिए।
तिमिर में जिसके उसका शशी।
बहु कला युत होकर खो चला ॥61॥
घहरती घिरती दुख की घटा।
यह अचानक जो निशि में उठी।
वह ब्रजांगण में चिरकाल ही।
बरसती बन लोचनवारि थी।62।।
ब्रज-धरा-जन के उर मध्य जो।
विरह-जात लगी यह कालिमा।
तनिक धो न सका उसको कभी।
नयन का बहु-वारि-प्रवाह भी ॥63॥
सुखद थे बहु जो जन के लिए।
फिर नहीं ब्रज के दिन वे फिरे।
मलिनता न समुज्वलता हुई।
दुख-निशा न हुई सुख की निशा ।।64 ।।
तृतीय सर्ग
द्रुतविलम्बित छंद
समय था सुनसान निशीथ का।
अटल भूतल में तम-राज्य था।
प्रलय-काल समान प्रसुप्त हो।
प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत थी।।1॥
परम-धीर समीर-प्रवाह था।
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ।
गति हुई अथवा अति-धीर थी।
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के ॥2॥
सकल-पादप नीरव थे खड़े।
हिल नहीं सकता यक पत्र था।
च्युत हुए पर भी वह मौन ही।
पतित था अवनी पर हो रहा॥3॥
विविध-शब्द-मयी वन की धरा।
अति-प्रशांत हुई इस काल थी।
ककुभ औ नभ-मण्डल में नहीं।
रह गया रव का लवलेश था॥4॥
सकल-तारक भी चुपचाप ही।
बितरते अवनी पर ज्योति थे।
बिकटता जिस से तम-तोम की।
कियत थी अपसारित हो रही॥5॥
अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में।
अखिल-प्राणि-समूह अवाक था।
तरु-लतादिक बीच प्रसुप्ति की।
प्रबलता प्रतिविम्बित थी हुई ।।6 ।।
रुक गया सब कार्य-कलाप था।
वसुमती-तल भी अति-मूक था।
सचलता अपनी तज के मनों।
जगत था थिर हो कर सो रहा 17 ||
सतत शब्दित गेह समूह में।
विजनता परिवर्द्धित थी हुई।
कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं।
झनकता यक झींगुर भी न था॥8॥
वदन से तज के मिष धूम के।
शयन-सूचक श्वास-समूह को।
झलमलाहट-हीन-शिखा लिए।
परम-निद्रित सा गृह-दीप था॥9॥
भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता।
तम-निमज्जित आहट थी हुई।
निपट नीरवता सब ओर थी।
गुण-विहीन हुआ जनु व्योम था 10॥
इस तमोमय मौन निशीथ की।
सहज-नीरवता क्षिति-व्यापिनी।
कलुषिता ब्रज की महि के लिए।
तनिक थी न विरामप्रदायिनी॥11॥
दलन थी करती उस को कभी।
रुदन की ध्वनि दूर समागता।
वह कभी बहु थी प्रतिघातिता।
जन-विवोधक-कर्कश-शब्द से ॥12॥
कल प्रयाण निमित्त जहाँ तहाँ।
वहन जो करते बहु वस्तु थे।
श्रम सना उनका रव-प्रायशः।
कह रहा निशि-शान्ति विनाश था 13 ||
प्रगटती बहु-भीषण मूर्ति थी।
कर रही भय ताण्डव नृत्य था।
बिकट-दन्त भयंकर-प्रेत भी।
विचरते तरु-मूल-समीप थे॥14॥
वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी।
भय-प्रदर्शन थी करती महा।
निकलती जिससे अविराम थी।
अनल की अति-त्रासकरी-शिखा 15॥
तिमिर-लीन-कलेवर को लिए।
विकट-दानव पादप थे बने।
भ्रममयी जिनकी विकरालता।
चलित थी करती पवि-चित्त को।16।।
अति-सशंकित और सभीत हो।
मन कभी यह था अनुमानता
ब्रज समूल विनाशन को खड़े।
यह निशाचर हैं नृप-कंस के 17॥
अति-भयानक-भूमि मसान की।
वहन थी करती शव-राशि को।
बहु-विभीषणता जिनकी कभी।
दृग नहीं सकते अवलोक थे॥18॥
विकट-दन्त दिखाकर खोपड़ी।
कर रही अति-भैरव-हास थी।
विपुल-अस्थि-समूह विभीषिका।
भर रही भय थी बन भैरवी॥19॥
इस भयंकर-घोर-निशीथ में।
विकलता अति-कातरता-मयी।
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही।
निपट-नीरव नन्द-निकेत में ॥20॥
सित हुए अपने मुख-लोम को।
कर गहे दुखव्यंजक भाव से।
विषम-संकट बीच पड़े हुये।
बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे। 21 ।।
हृदय-निर्गत वाष्प-समूह से।
सजल थे युग-लोचन हो रहे।
वदन से उनके चुपचाप ही।
निकलती अति-तप्त उसास थी॥22॥
शयित हो अति-चंचल-नेत्र से।
छत कभी वह थे अवलोकते।
टहलते फिरते स-विषाद थे।
यह कभी निज निर्जन कक्ष में ॥23॥
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा।
निकट जा करके तब द्वार के।
वह रहे नभ नीरव देखते।
निशि-घटा अवधारण के लिए ॥24॥
सब प्रबन्ध प्रभात-प्रयाण के।
यदिच थे रव-वर्जित हो रहे।
तदपि रो पडती सहसा रहीं।
विविध-कार्य-रता गृहदासियाँ ॥25॥
जब कभी यह रोदन कान में।
ब्रज-धराधिप के पड़ता रहा।
तड़पते तब यों वह तल्प पै
निशित-सायक-विद्धजनों यथा ॥26॥
ब्रज-धरा-पति कक्ष समीप ही।
निपट-नीरव कक्ष विशेष में।
समुद थे ब्रज-वल्लभ सो रहे।
अति-प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था ।।27 ।।
निकट कोमल तल्प मुकुन्द के।
कलपती जननी उपविष्ट थी।
अति-असंयतं अश्रु-प्रवाह से।
वदन-मण्डल प्लावित था हुआ।।28 ।।
हृदय में उनके उठती रही।
भय-भरी अति-कुत्सित-भावना।
विपुल-व्याकुल वे इस काल थीं।
जटिलता-वश कौशल-जाल की 129 ।।
परम चिन्तित वे बनतीं कभी।
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से।
व्यथित था उनको करता कभी।
परम-त्रास महीपति-कंस का ॥30॥
पट हटा सुत के सुख कंज की।
विकचता जब थीं अवलोकती।
विवश सी जब थीं फिर देखती।
सरलता, मृदुता, सुकुमारता ॥31॥
तदुपरान्त नृपाधम-नीति की।
अति भयंकरता जब सोचतीं।
निपतिता तब हो कर भूमि में।
करुण क्रन्दन वे करती रहीं॥32॥
हरि न जाग उठें इस शोच से।
सिसिकतीं तक भी वह थीं नहीं।
इसलिए उन का दुख-वेग से।
हृदय था शतधा अब हो रहा ॥33॥
हरि का यह कष्ट विलोक के।
धुन रहा शिर गेह-प्रदीप था।
सदन में परिपूरित दीप्ति भी।
सतत थी महि-लुंठित हो रही ।।34 ।।
पर बिना इस दीपक-दीप्ति के।
इस घड़ी इस नीरव-कक्ष में।
महरि का न प्रबोधक और था।
इसलिए अति पीड़ित वे रहीं 135 ।।
वरन कम्पित-शीश प्रदीप भी।
कह रहा उनको बहु-व्यग्र था।
अति-समुज्वल-सुंदर-दीप्ति भी।
मलिन थी अतिही लगती उन्हें ।36 ।।
जब कभी घटता दुख-वेग था।
तब नवा कर वे निज-शीश को।
महि विलम्बित हो कर जोड़ के।
विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥
सकल-मंगल-मूल कृपानिधे।
कुशलतालय हे कुल-देवता।
विपद संकुल है कुल हो रहा।
विपुल वांछित है अनुकूलता ॥38॥
परम-कोमल-बालक श्याम ही।
कलपते कुल का यक चिन्ह है।
पर प्रभो! उस के प्रतिकूल भी।
अति-प्रचंड-समीरण है उठा 139 ॥
यदि हुई न कृपा पद-कंज की।
टल नहीं सकती यह आपदा।
मुझ सशंकित को सब काल ही।
पद-सरोरुह का अवलम्ब है॥40॥
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही।
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है।
यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही।
अति अपेक्षित है इस काल भी ॥41॥
समझ के पद-पंकज-सेविका!
कर सकी अपराध कभी नहीं।
पर शरीर मिले सब भाँति मैं
निरपराध कहा सकती नहीं।42 ॥
इस लिए मुझसे अनजान में।
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो।
वह सभी इस संकट-काल में।
कुलपते ! सब ही विधि क्षम्य है।43॥
प्रथम तो सब काल अबोध की।
सकल चूक उपेक्षित है हुई।
फिर सदाशय आशय सामने।
परम तुच्छ सभी अपराध हैं।44 ।।
सरलता-मय-बालक श्याम तो।
निरपराध, नितान्त-निरीह है।
इस लिए इस काल दयानिधे।
वह अतीव-अनुग्रह-पात्र है।।45 ।।
मालिनी छंद
प्रमुदित मथुरा के मानवों को बना के।
सकुशल रह के औ विघ्नबाधा बचा के।
निज प्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो।
जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी हमारे ॥46॥
प्रभु दिवस उसी मैं सात्त्विकी रीति द्वारा।
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से।
विधि-सहित करूँगी मंजु पादाब्ज-पूजा।
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से 147 ।।
द्रुतविलम्बित छंद
यह प्रलोभन है न कृपानिधे ।
यह अकोर प्रदान न है प्रभो।
वरन है यह कातर-चित्त की,
परम शान्तिमयी अवतारणा 48॥
कलुष-नाशिनि दुष्ट-निकंदिनी।
जगत की जननी भव-वल्लभे।
जननि के जिय की सकला व्यथा।
जननि ही जिय है कुछ जानता 149 ।।
अवनि में ललना जन जन्म को।
विफल है करती अनपत्यता।
सहज जीवन को उसके सदा।
वह सकंटक है करती नहीं 150 ॥
उपजती पर जो उर-व्याधि है।
सतत संतति संकट-शोच से।
वह सकंटक ही करती नहीं।
वरन जीवन है करती वृथा ।।51 ।।
बहुत चिन्तित थी पद-सेविका।
प्रथम भी यक संतति के लिए।
पर निरन्तर संतति-कष्ट से।
हृदय है अब जर्जर हो रहा ॥52 ॥
जननि जो उपजी उर में दया।
जरठता अवलोक-स्वदास की।
बन गई यदि मैं बड़भागिनी।
तव कृपाबल पा कर पुत्र को ॥3॥
किस लिए अब तो यह सेविका।
बहु निपीड़ित है नित हो रही।
किस लिए, तब बालक के लिए।
उमड़ है पड़ती दुख की घटा ।।54।।
'जन-विनाश' प्रयोजन के बिना।
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य है
दलन को उसके-भव-वल्लभे!
अब न क्या बल है तव बाहु में ॥55 ।।
स्वसुत रक्षण औ पर पुत्र के।
दलन की यह निर्मम प्रार्थना।
बहुत संभव है यदि यों कहें।
सुन नहीं सकती 'जगदम्बिका' ।।56॥
पर निवेदन है यह ज्ञानदे।
अबल का बल केवल न्याय है।
नियम-शालिनि क्यां अवमानना।
उचित है विधि-सम्मत-न्याय की ।।57 ॥
परम क्रूर-महीपति-कंस की।
कुटिलता अब है अति कष्टदा।
कपट-कौशल से अब नित्य ही।
बहुत-पीड़ित है ब्रज की प्रजा ॥58 ॥
सरलता-मय-बालक के लिए।
जननि! जो अब कौशल है हुआ।
सह नहीं सकता उसको कभी।
पवि विनिर्मित मानव-प्राण भी॥59 ॥
कुबलया सम मत्त-गजेन्द्र से।
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी।
वह महा सुकुमार कुमार से।
रण-निमित्त सुसज्जित है हुआ।60॥
बिकट-दर्शन कज्जल-मेरु सा।
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी।
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है।
यक पयो-मुख बालक के लिए ॥61॥
व्यथित हो कर क्यों बिल नहीं।
अहह धीरज क्योंकर मैं धरूँ।
मृदु-कुरंगम शावक से कभी।
पतन हो न सका हिम शैल का ॥62।।
विदित है बल, वज्र-शरीरता।
बिकटता शल तोशल कूट की।
परम है पटु मुष्टि-प्रहार में।
प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल भी॥63॥
पृथुल-भीम-शरीर भयावने।
अपर हैं जितने मल कंस के।
सब नियोजित हैं रण के लिए।
यक किशोरवयस्क कुमार से ॥64॥
विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से।
नृपति-कंस स्वयं निज शस्त्र ले।
विवुध-वृन्द विलोड़क शक्ति से।
शिशु विरुद्ध समुद्यत हैं हुये ॥65 ॥
जिस नराधिप की वशवर्तिनी।
सकल भाँति निरन्तर है प्रजा।
जननि यों उसका कटिबद्ध हो।
कुटिलता करना अविधेय है ॥66 ॥
जन प्रपीड़ित हो कर अन्य से।
शरण है गहता नरनाथ की।
यदि निपीड़न भूपति ही करे।
जगत में फिर रक्षक कौन है? ॥67॥
गगन में उड़ जा सकती नहीं।
गमन संभव है न पताल का।
अवनि-मध्य पलायित हो कहीं।
बच नहीं सकती नृप-कंस से 168॥
विवशता किस से अपनी कहूँ।
जननि! क्यों न बनूं बहु-कातरा।
प्रबल-हिंस्रक-जन्तु-समूह
विवश हो मृग-शावक है चला 169॥
सकल भौति हमें अब अम्बिके।
चरण-पंकज ही अवलम्ब है।
शरण जो न यहाँ जन को मिली।
जननि, तो जगतीतल शून्य है 100॥
विधि अहो भवदीय-विधान की।
मति-अगोचरता बहु-रूपता।
परम युक्ति-मयी कृति भूति है।
पर कहीं वह है अति-कष्टदा 170
जगत में यक पुर बिना कहीं।
बिललता सुर-वांछित राज्य है।
अधिक संतति है इतनी कहाँ।
वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ 12।।
कलप के कितने वसुयाम भी।
सुअन-आनन हैन विलोकते।
विपुलता निज संतति की कहीं।
विकल है करती मनु जात को 13॥
सुअन का वदनांबुज देख के।
पुलकते कितने जन हैं सदा।
बिलखते कितने सब काल हैं।
सुत मुखांबुज देख मलीनता 174॥
सुखित हैं कितनी जननी सदा।
निज निरापद संतति देख के।
दुखित हैं मुझ सी कितनी प्रभो।
नित विलोक स्वसंतति आपदा ।।75 ।।
प्रभु, कभी भवदीय विधान में।
तनिक अन्तर हो सकता नहीं।
यह निवेदन सादर नाथ से।
तदपि है करती तब सेविका।76॥
यदि कभी प्रभु-दृष्टि कृपामयी।
पतित हो सकती महि-मध्य हो।
इस घड़ी उसकी अधिकारिणी।
मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है 77॥
प्रकृति प्राणस्वरूप जगत्पिता।
अखिल-लोकपते प्रभुता निधे।
सब क्रिया कब सांग हुई वहाँ।
प्रभु जहाँ न हुई पद-अर्चना ॥78 ॥
यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से।
पृथक से रहते नित आप हैं।
पर कहाँ जन को अवलम्ब है।
प्रभु गहे पद-पंकज के बिना 179 ।।
विविध-निर्जर में बहु-रूप से।
यदिच है जगती प्रभु की कला।
यजन पूजन से प्रति-देव के।
यजित पूजित यद्यपि आप हैं 180 ॥
तदपि जो सुर-पादप के तले।
पहुँच पा सकता जन शान्ति है।
वह कभी दल फूल फलादि से।
मिल नहीं सकती जगतीपते ॥81॥
झलकती तव निर्मल ज्योति है।
तरणि में तृण में करुणामयी।
किरण एक इसी कल-ज्योति की।
तमनिवारण में क्षम है प्रभो ।।82 ।।
अवनि में जल में वर व्योम में।
उमड़ता प्रभु-प्रेम-समुद्र है।
किरण इसी वरवारिधि बूंद का।
शमन में मम ताप समर्थ है॥83 ।।
अधिक और निवेदन नाथ से।
कर नहीं सकती यह किंकरी।
गति न है करुणाकर से छिपी।
हृदय की मन की मम-प्राण की 184 ।।
विनय यों करतीं ब्रजपांगना।
नयन से बहती जलधार थी।
विकलतावश वस्त्र हटा हटा।
वदन थीं सुत का अवलोकती ॥85॥
शार्दूलविक्रीडित छंद
ज्यों ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती ओ देखती व्योम को।
त्यों ही त्यों उनका प्रगाढ़ दुख भी दुर्दान्त था हो रहा।
आँखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं।
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही ॥86॥
द्रुतविलम्बित छंद
विकलता उनकी अवलोक के।
रजनि भी करती अनुताप थी।
निपट नीरव ही मिष ओस के।
नयन से गिरता बहु-वारि था॥87॥
झलकती तव निर्मल ज्योति है।
तरणि में तृण में करुणामयी।
किरण एक इसी कल-ज्योति की।
तमनिवारण में क्षम है प्रभो ।।82 ।।
अवनि में जल में वर व्योम में।
उमड़ता प्रभु-प्रेम-समुद्र है।
किरण इसी वरवारिधि बूंद का।
शमन में मम ताप समर्थ है॥83 ।।
अधिक और निवेदन नाथ से।
कर नहीं सकती यह किंकरी।
गति न है करुणाकर से छिपी।
हृदय की मन की मम-प्राण की ॥84 ।।
विनय यों करतीं ब्रजपांगना।
नयन से बहती जलधार थी।
विकलतावश वस्त्र हटा हटा।
वदन थीं सुत का अवलोकती ॥85॥
शार्दूलविक्रीडित छंद
ज्यों ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती ओ देखती व्योम को।
त्यों ही त्यों उनका प्रगाढ़ दुख भी दुर्दान्त था हो रहा।
आँखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं।
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही ॥86॥
द्रुतविलम्बित छंद
विकलता उनकी अवलोक के।
रजनि भी करती अनुताप थी।
निपट नीरव ही मिष ओस के।
नयन से गिरता बहु-वारि था॥87॥
विपुल-नीर बहा कर नेत्र से।
मिष कलिन्द-कुमारि-प्रवाह के।
परम-कातर हो रह मौन ही।
रुदन थी करती ब्रज की धरा ॥88॥
युग बने सकती न व्यतीत हो।
अप्रिय था उसका क्षण बीतना।
बिकट थी जननी धृति के लिए।
दुखभरी यह घोर विभावरी ॥89॥
चतुर्थ सर्ग
द्रुतविलम्बित छंद
विशद-गोकुल-ग्राम समीप ही।
वहु-बसे यक सुंदर-ग्राम में।
स्वपरिवार समेत उपेन्द्र से।
निवसते वृषभानु-नरेश थे॥1॥
यह प्रतिष्ठित-गोप सुमेर थे।
अधिक-आदृत थे नृप-नन्द से।
ब्रज-धरा इनके धन-मान से।
अवनि में अति-गौरविता रही॥2 ।।
यक सुता उनकी अति-दिव्य थी।
रमणि-वृन्द-शिरोमणि राधिका।
सुयश-सौरभ से जिनके सदा।
ब्रज-धरा बहु-सौरभवान थी॥3॥
शार्दूलविक्रीडित छंद
रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय-कलिका राकेन्दु-विम्बानना।
तन्वंगी कल-हासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला पुत्तली।
शोभा-वाराधि की अमूल्य-मणि सी लावण्य लीला मयी।
श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मूर्ति थीं ॥4॥
फूले कंज-समान मंजु-दृगता थी मत्तता कारिणी।
सोने सी कमनीय-कान्ति तन की थी दृष्टि-उन्मेषिनी।
राधा की मुसकान की मधुरता थी मुग्धता-मूर्ति सी।
काली-कुंचित-लम्बमान-अलकें थीं मानसोन्मादिनी ।।5।।
नाना-भाव-विभाव-हाव-कुशला आमोद आपूरिता।
लीला-लोल-कटाक्ष-पात-निपुणा भ्रूभंगिमा-पंडिता।
वादित्रादि समोद-वादन-परा आभूषणाभूषिता।
राधा थीं सुमुखी विशाल-नयना आनन्द-आन्दोलिता ।।6।।
लाली थी करती सरोज-पग की भूपृष्ठ को भूषिता।
विम्बा विद्रुम को अकांत करती थी रक्तता ओष्ठ की।
हर्षोत्फुल्ल-मुखारविन्द-गरिमा सौंदर्यआधार थी।
राधा की कमनीय कांत छवि थी कामांगना मोहिनी।।7।।
सद्वस्त्रा-सदलंकृता गुणयुता-सर्वत्र सम्मानिता।
रोगी वृद्ध जनोपकारनिरता सच्छास्त्र चिन्तापरा।
सद्भावातिरता अनन्य-हृदया-सत्प्रेम-संपोषिका।
राधा थीं सुमना प्रसन्नवदना स्त्रीजाति-रत्नोपमा॥8॥
द्रुतविलम्बित छंद
यह विचित्र-सुता वृषभानु की।
ब्रज-विभूषण में अनुरक्त थी।
सहृदया यह सुंदर-बालिका।
परम-कृष्ण-समर्पित-चित्त थी॥9॥
ब्रज-धराधिप औ वृषभानु में।
अतुलनीय परस्पर-प्रीति थी।
इसलिए उनका परिवार भी।
बहु परस्पर प्रेम-निबद्ध था॥10॥
जब नितान्त-अबोध मुकुन्द थे।
विलसते जब केवल अंक में।
वह तभी वृषभानु निकेत में।
अति समादर साथ गृहीत थे॥11॥
छविवती-दुहिता वृषभानु की।
निपट थी जिस काल पयोमुखी।
वह तभी ब्रज-भूप कुटुम्ब की।
परम-कौतुक-पुत्तलिका रही।12॥
यह अलौकिक बालक-बालिका।
जब हुए कल-क्रीड़न-योग्य थे।
परम-तन्मय हो बहु प्रेम से।
तब परस्पर थे मिल खेलते।।13॥
कलित-क्रीड़न से इनके कभी।
ललित हो उठता गृह-नन्द का।
उमड़ सी पड़ती छवि थी कभी।
वर-निकेतन में वृषभानु के॥14॥
जब कभी काल-क्रीड़न-सूत्र से।
चरण-नुपूर औ कटि-किंकिणी।
सदन में बजती अति-मंजु थी।
किलकती तब थी कल-वादिता ॥15॥
युगल का वय साथ सनेह भी।
निपट-नीरवता सह था बढ़ा।
फिर यही वर-बाल सनेह ही।
प्रणय में परिवर्तित था हुआ ॥16 ||
बलवती कुछ थी इतनी हुई।
कुँवरि-प्रेम-लता उर-भूमि में।
शयन भोजन क्या, सब कालही।
वह बनो रहती छवि-मत्त थी ॥17||
वचन की रचना रस से भरी।
प्रिय मुखांबुज की रमणीयता।
उतरती न कभी चित से रही।
सरलता, अतिप्रीति सुशीलता 18 ॥
मधुपुरी बलवीर प्रयाण के।
हृदय-शेल-स्वरूप प्रसंग से।
न उबरी यह बेलि विनोद की।
विधि अहो भवदीय विडम्बना ।।19॥
शार्दूलविक्रीड़ित छंद
काले कुत्सित कीट का कुसुम में कोई नहीं काम था।
काँटे से कमनीय कंज कृति में क्या है न कोई कमी।
पोरों में अब ईख की विपुलता है ग्रंथियों की भली।
हा! दुर्दैव प्रगल्भते! अपटुता तू ने कहाँ की नहीं ॥20॥
द्रुतविलम्बित छंद
कमल का दल भी हिम-पात से।
दलित हो पड़ता सब काल है।
कल कलानिधि को खल राहु भी।
निगलता करता बहुत क्लान्त है ।।21॥
कुसुम सा सुप्रफुल्लित बालिका।
हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।
वह मलीन सकल्मष हो गया।
प्रिय मुकुन्द प्रवास-प्रसंग से ॥22॥
सुख जहाँ निज दिव्य स्वरूप से।
विलसता करता कल-नृत्य है।
अहह सो अति-सुंदर सद्म भी।
बच नहीं सकता दुखलेश से ॥23॥
सब सुखाकर श्रीवृषभानुजा।
सदन-सज्जित-शोभन-स्वर्ग सा।
तुरत ही दुख के लवलेश से।
मलिन शोक-निमज्जित हो गया।24।
जब हुई श्रुति-गोचर सूचना ।
ब्रज धराधिप तात प्रयाण की।
उस घड़ी ब्रज-वल्लभ प्रेमिका।
निकट थी प्रथिता ललिता सखी ।।25।।
विकसिता-कलिका हिमपात से।
तुरत ज्यों बनती अति म्लान है।
सुन प्रसंग मुकुन्द प्रवास का।
मलिन त्यों वृषभानुसुता हुईं ॥26 ।।
नयन से बरसा कर वारि को।
बन गईं पहले बहु बावली।
निज सखी ललिता मुख देख के।
दुखकथा फिर यों कहने लगीं ॥27॥
मालिनी छंद
कल कुवलय के से नेत्रवाले रसीले।
वररचित फबीले पीते कौशेय शोभी।
गुणगण मणिमाली मंजुभाषी सजीले।
वह परम छबीले लाडिले नन्दजी के॥28॥
यदि कल मथुरा को प्रात हो जा रहे हैं।
बिन मुख अवलोके प्राण कैसे रहेंगे।
युग सम घटिकायें बार की बीतती थीं।
सखि! दिवस हमारे बीत कैसे सकेंगे ॥29॥
जन मन कलपाना मैं बुरा जानती हूँ।
परदुख अवलोके मैं न होती सुखी हूँ।
कहकर कटु बातें जी न भूले जलाया।
फिर यह दुखदायी बात मैंने सुनी क्यों? ॥30॥
अयि सखि! अवलोके खिन्नता तू कहेगी।
प्रिय स्वजन किसी के न जाते कहीं हैं।
पर हृदय न जाने दग्ध क्यों हो रहा है।
सब जगत हमें है शून्य होता दिखाता ॥31॥
मन उचट रहा है चैन पाता नहीं है।
यह सकल दिशायें आज रो सी रही हैं
यह सदन हमारा, है हमें काट खाता।।
विजन-विपिन में है भागता सा दिखाता ॥32॥
रुदनरत न जानें कौन क्यों है बुलाता।
गति पलट रही है भाग्य की क्यों हमारे।
उह! कसक समाई जा रही है कहाँ की।
सखि! हृदय हमारा दग्ध क्यों हो रहा है ।।33॥
मधुपुर-पति ने है प्यार ही से बुलाया।
पर कुशल हमें तो है न होती दिखाती।
प्रिय-विरह-घटायें घेरती आ रही हैं।
घहर घहर देखो हैं कलेजा कँपाती ॥34॥
हृदय चरण मैं तो चढ़ा ही चुकी हूँ।
सविधि-वरण की थी कामना और मेरी।
पर सफल हमें सो है न होती दिखाती।
वह कब टलता है भाल में जो लिखा है ॥35॥
सविधि भगवती को आज भी पूजती हूँ।
बहु-व्रत रखती हूँ देवता हूँ मनाती।
मम-पति हरि होवें चाहती मैं यही हूँ।
पर विफल हमारे पुण्य भी हो चले हैं ।।36।।
करुण ध्वनि कहाँ की फैल सी क्यों गई है।
सब तरु मन मारे आज क्यों यों खड़े हैं।
अवनि अति-दुखी सी क्यों हमें है दिखाती।
नभ-पर दुख-छाया-पात क्यों हो रहा है ।।37।।
अहह सिसकती मैं क्यों किसे देखती हूँ।
मलिन-मुख किसी का क्यों मुझे है रुलाता।
जल जल किसका है छार-होता कलेजा।
निकल निकल आहे क्यों किसे बेधती हैं ।।38।।
सखि, भय यह कैसा गेह में छा गया है।
पल पल जिससे मैं आज यों चौंकती हूँ।
कँप कर गृह में की ज्योति छाई हुई भी।
छन छन अति मैली क्यों हुई जा रही है ॥39॥
मनहरण हमारे प्रात जाने न पावें।
सखि! जुगुत हमें तो सूझती है न ऐसी।
पर यदि यह काली यामिनी ही न बीते।
तब फिर ब्रज कैसे प्राणप्यारे तजेंगे।।40॥
सब-नभ-तल-तारे जो उगे दीखते हैं।
यह कुछ ठिठके से सोच में क्यों पड़े हैं।
ब्रज-दुख अवलोके क्या हुए हैं दुखारी।
कुछ व्यथित बने से या हमें देखते हैं ॥41॥
रह रह किरणें जो फूटती हैं दिखाती।
वह मिष इनके क्या बोध देते हमें हैं।
कर वह अथवा यों शान्ति का हैं बढ़ाते।
विपुल-व्यथित जीवों की व्यथा मोचने को ।।42।।
दुख-अनल-शिखायें व्योम में फूटती हैं।
यह किस दुखिया का हैं कलेजा जलाती।
अहह अहह देखो टूटता है न तारा।
पतन दिलजले के गात का हो रहा है ॥43।।
चमक चमक तारे धीर देते हमें हैं।
सखि! मुझ दुखिया की बात भी क्या सुनेंगे?
पर-हित-रत-हो ए ठौर को जो न छोड़ें।
निशि विगत न होगी बात मेरी बनेगी ।।44॥
उडुगण थिर से क्यों हो गये दीखते हैं।
यह विनय हमारी कान में क्या पड़ी है?
रह रह इनमें क्यों रंग आ जा रहा है।
कुछ सखि! इनको भी हो रही बेकली है ।।45॥
दिन फल जब खोटे हो चुके हैं हमारे।
तब फिर सखि! कैसे काम के वे बनेंगे।
पल पल अति फीके हो रहे हैं सितारे।
वह सफल न मेरी कामनायें करेंगे ॥46॥
यह नयन हमारे क्या हमें हैं सताते।
अहह निपट मैली ज्योति भी हो रही है।
मम दुख अवलोके या हुए मंद तारे।
कुछ समझ हमारी काम देती नहीं है॥47॥
सखि ! मुख अब तारे क्यों छिपाने लगे हैं।
वह दुख लखने की ताब क्या हैं न लाते।
परम-विफल होके आपदा टालने में।
वह मुख अपना हैं लाज से या छिपाते ॥48॥
क्षितिज निकट कैसी लालिमा दीखती है।
बह रुधिर रहा है कौन सी कामिनी का।
बिहंग विकल हो हो बोलने क्यों लगे हैं।
सखि! सकल दिशा में आग सी क्यों लगी है।49।।
सब समझ गई मैं काल की क्रूरता को।
पल पल वह मेरा है कलेजा कँपाता।
अब नभ उगलेगा आग का एक गोला।
सकल-ब्रज-धरा को फूंक देता जलाता ॥50 ॥
मन्दाक्रान्ता छंद
हा! हा! आँखों मम-दुख-दशा देख ली औ न सोची।
बातें मेरी कमलिनिपते ! काम की भी न तू ने ।
जो देवेगा अवनितल को नित्य का सा उजाला।
तेरा होना उदय ब्रज में तो अँधेरा करेगा ।।51॥
नाना बातें दुख शमन को प्यार से थी सुनाती।
धीरे धीरे नयन-जल थी पोंछती राधिका का।
हा! हा! प्यारी दुखित मत हो यों कभी थी सुनाती।
रोती रोती विकल ललिता आप होती कभी थी॥52॥
सूख जाता कमल-मुख था होठ नीला हुआ था।
दोनों आँखें विपुल जल में डूबती जा रही थीं।
शंकायें थीं विकल करती काँपता था कलेजा।
खिन्ना दीना परम-मलिना उन्मना राधिका थीं॥53॥
पञ्चम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।
शाखा डोली तरु निचय को कंज फूले सरों में।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती ॥1॥
फूली फैली लसित लतिका वायु में मन्द डोली।
प्यारी प्यारी ललित-लहरें भानुजा में विराजीं।
सोने की सी कलित किरणें मेदिनी ओर छूटीं।
कूलों कुंजों कुसुमित वनों में जगी ज्योति फैली ॥2॥
प्रातः शोभा ब्रज अवनि में आज प्यारी नहीं थी।
मीठा मीठा विहग रव भी कान को था न भाता।
फूले फूले कमल दव थे लोचनों में लगाते।
लाली सारे गगन-तल की काल-व्याली समा थी॥3॥
चिन्ता की सी कुटिल उठती अंक में जो तरंगें।
वे थीं मानों प्रकट करतीं भानुजा की व्यथायें।
धीरे धीरे मृदु पवन में चाव से थी न डोली।
शाखाओं के सहित लतिका शोक से कंपिता थी।4॥
फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूंदें दिखातीं।
रोते हैं या विटप सब यों आँसुओं को दिखा के।
रोई थी जो रजनि दुख से नंद की कामिनी के।
ये बूंदें हैं, निपतित हुईं या उसीके दृगों से॥5॥
पत्रों पुष्पों सहित तरु की डालियाँ औ लतायें।
भीगी सी थीं विपुल जल में वारि-बूंदों भरी थीं।
मानों फूटी सकल तन में शोक की अश्रुधारा।
सांगों से निकल उनको सिक्तता दे बही थी॥6॥
धीरे धीरे पवन ढिग जा फूलवाले द्रुमों के।
शाखाओं से कुसुम-चय को थी धरा पै गिराती।
मानों यों थी हरण करती फुल्लता पादपों की।
जो थी प्यारी न ब्रज-जन को आज न्यारी व्यथा से॥7॥
फूलों का यों अवनि-तल में देख के पात होना।
ऐसी भी थी हृदय-तल में कल्पना आज होती।
फूले फूले कुसुम अपने अंक में से गिरा के।
बारी बारी सकल तरु भी खिन्नता हैं दिखाते॥8॥
नीची ऊँची सरित सर की बीचियाँ ओस दें।
न्यारी आभा वहन करती भानु की अंक में थीं।
मानों यों वे हृदय-तल के ताप को थीं दिखाती।
या दावा थी व्यथित उर में दीप्तिमाना दुखों की ॥9॥
सारा नीला-सलिल सरि का शोक-छाया पगा था।
कंजों में से मधुप कद के घूमते थे भ्रमे से।
मानों खोटी-विरह-पटिका सामने देख के ही।
कोई भी थी अवनत-मुखी कान्तिहीना मलीना ॥10॥
द्रुतविलम्बित छंद
प्रगट चिन्ह हुए जब प्राप्त के।
सकल दिशा औ नभदेश में।
जब दिशा सितता-युत हो चली।
तममयी करके ब्रजभूमि का ॥1॥
मुख-मलीन किये दुख में पगे।
अमित-मानव गोकुल ग्राम के।
तब स-दार स-बालक-बालिका।
व्यथित से निकले निज सद्य से ॥2॥
बिलखती दृग वारि विमोचती।
यह विषाद-मयी जन-मण्डली।
परम आकुलतावश थी बढ़ी।
सदन ओर नराधिप नन्द के ॥3॥
उदय भी न हुए जब भानु थे।
निकट नन्दनिकेतन के तभी।
जन समागम ही सब ओर था।
नयन गोचर था नरमुण्ड ही ॥14॥
वसन्ततिलका छंद
थे दीखते परम वृद्ध नितान्त रोगी।
या थी नवागत वधू गृह में दिखाती ।
कोई न और इनको तज के कहीं था।
सूने तभी सदन गोकुल के हुए थे॥15॥
जो अन्य ग्राम ढिग गोकुल ग्राम के थे।
नाना मनुष्य उन ग्राम-निवासियों के।
डूबे अपार-दुख-सागर में स-बामा।
आ के खड़े निकट नन्द-निकेत के थे॥16॥
जो भूरि भूत जनता समवेत वाँ थी।
सो कंस भूप भय से बहु कातरा थी।
संचालिता विषमता करती उसे थी।
संताप की विविध-संशय की दुखों की॥17॥
नाना प्रसंग उठते जन-संघ में थे।
जो थे सशंक सबको बहुश: बनाते।
था सूखता उधर औ कँपता कलेजा।
चिन्ता अपार चित में चिनगी लगाती॥18॥
रोना महा-अशुभ जान प्रयाण-काल।
आँसू न ढाल सकती निज नेत्र से थी।
रोये बिना न छन भी मन मानता था।
डूबी द्विधा जलधि में जन मण्डली थी॥19॥
मन्दाक्रान्ता छंद
आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता सी।
थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपों में।
आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले।
धीरे धीरे सजनक कढ़े सद्म में से मुरारी ॥20॥
आते आँसू अति कठिनता से सँभाले दृगों के।
होती खिन्ना हृदय-तल के सैकड़ों संशयों से।
थोड़ा पीछे प्रिय तनय के भूरि शोकाभिभूता।
नाना वामा सहित निकलीं गेह में से यशोदा ॥21॥
द्वारे आया ब्रज नृपति को देख यात्रा निमित्त ।
भोला भोला निरख मुखड़ा फूल से लाडिलों का।
are खिन्ना दीना परम लख के नन्द की भामिनी को।
चिन्ता डूबी सकल जनता हो उठी कम्पमाना ॥22॥
कोई रोया सलिल न रुका लाख रोके दृगों का।
कोई आहे सदुख भरता हो गया बावला सा।
कोई बोला सकल-ब्रज के जीवनाधार प्यारे ।
यों लोगों को व्यथित करके आज जाते कहाँ हो ॥23॥
रोता धोता विकल बनता एक आभीर बूढ़ा।
दीनों के से वचन कहता पास अक्रूर के आ।
बोला-कोई जतन जन को आप ऐसा बतावें।
मेरे प्यार कुँवर मुझसे आज न्यारे न होवें ॥24॥
मैं बूढ़ा हूँ यदि कुछ कृपा आप चाहें दिखाना।
तो मेरी है विनय इतनी श्याम को छोड़ जावें।
हा! हा! सारी ब्रज अवनि का प्राण है लाल मेरा।
क्यों जीयेंगे हम सब उसे आप ले जायँगे जो॥25॥
रत्नों की है न तनिक कमी आप लें रत्न ढेरों।
सोना चाँदी सहित धन भी गाड़ियों आप ले लें।
गायें ले लें गज तुरग भी आप ले लें अनेकों।
लेवें मेरे न निजधन को हाथ मैं जोड़ता हूँ॥26॥
जो है प्यारी अवनि ब्रज की यामिनी के समाना।
तो तातों के सहित सब गोपाल हैं तारकों से।
मेरा प्यारा कुँवर उसका एक ही चन्द्रमा है।
छा जावेगा तिमिर वह जो दूर होगा दुगों से ॥27॥
सच्चा प्यारा सकल ब्रज का वंश का है उँजाला।
दीनों का है परमधन औ वृद्ध का नेत्रतारा।
बालाओं का प्रिय स्वजन औ बंधु है बालकों का।
ले जाते हैं सुरतरु कहाँ आप ऐसा हमारा ॥28।।
बूढ़े के ए वचन सुनके नेत्र में नीर आया।
आँसू रोके परम मृदुता साथ अक्रूर बोले।
क्यों होते हैं दुखित इतने मानिये बात मेरी।
आ जावेंगे बिवि दिवस में आप के लाल दोनों।29॥
आई प्यारे निकट श्रम से एक वृद्धा-प्रवीणा।
हाथों से छू कमल-मुख को प्यार से लीं बलायें।
पीछे बोली दुखित स्वर से तू कहीं जा न बेटा।
तेरी माता अहह कितनी बावली हो रही है ॥30॥
जो रूठेगा नृपति ब्रज का वास ही छोड़ दूंगी।
ऊँचे ऊँचे भवन तज के जंगलों में बलूंगी।
खाऊँगी फूल फल दल को व्यंजनों को तनँगी।
मैं आँखों से अलग न तुझे लाल मेरे करूँगी ॥31॥
जाओगे क्या कुँवर मथुरा कंस का क्या ठिकाना।
मेरा जी है बहुत डरता क्या न जाने करेगा।
मानूँगी मैं न सुरपति को राज ले क्या करूँगी।
तेरा प्यारा-वदन लख के स्वर्ग को मैं तनँगी ॥32॥
जो चाहेगा नृपति मुझ से दंड दूंगी करोड़ों।
लोटा थाली सहित तन के वस्त्र भी बेंच दूंगी।
जो माँगेगा हृदय वह तो काढ़ दूँगी उसे भी।
बेटा, तेरा गमन मथुरा मैं न आँखों लिखूगी ॥33॥
कोई भी है न सुन सकता जा किसे मैं सुनाऊँ।
मैं हूँ मेरा हृदयतल है हैं व्यथायें अनेकों।
बेटा, तेरा सरल मुखड़ा शान्ति देता मुझे है।
क्या जीऊँगी कुँवर, बतला जो चला जायगा तू ॥34॥
प्यारे तेरा गमन सुन के दूसरे रो रहे हैं।
मैं रोती हूँ सकल ब्रज है वारि लाता दृगों में।
सोचो बेटा, उस जननि की क्या दशा आज होगी।
तेरे जैसा सरल जिस का एक ही लाडिला है ॥35॥
प्राचीना की सदुख सुनके सर्व बातें मुरारी।
दोनों आँखें सजल करके प्यार के साथ बोले।
मैं आऊँगा कुछ दिन गये बाल होगा न बाँका।
क्यों माता तू विकल इतना आज यों हो रही है ॥36॥
दौड़ा ग्वाला ब्रज नृपति के सामने एक आया।
बोला गायें सकल बन को आप की हैं न जाती।
दाँतों से हैं न तृण गहती हैं न बच्चे पिलाती।
हा! हा! मेरी सुरभि सबको आज क्या हो गया है॥37॥
देखो देखो सकल हरि की ओर ही आ रही हैं।
रोके भी हैं न रुक सकती बावली हो गई हैं।
यों ही बातें सदुख कहके फूट के ग्वाल रोया।
बोला मेरे कुँवर सब को यों रुला के न जाओ ॥38॥
रोता ही था जब वह तभी नन्द की सर्व गायें।
नि दौड़ी आईं निकट हरि के पूँछ ऊँचा उठाये।
वे थीं खिन्ना विपुल विकला वारि था नेत्र लाता।
ऊँची आँखों कमल मुख थीं देखती शंकिता हो ॥39॥
काकातुआ महर-गृह के द्वार का भी दुखी था।
भूला जाता सकल-स्वर था उन्मना हो रहा था।
चिल्लाता था अति बिकल था औं यही बोलता था।
यों लोगों को व्यथित करके लाल जाते कहाँ हो ॥40॥
पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें।
थोड़ी जो थी अहह ! वह भी धीरता दूर भागी।
हा हा! शब्दों सहित इतना फूट के लोग रोये।
हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की ॥41॥
आवेगों के सहित बढ़ता देख संताप-सिंधु ।
धीरे धीरे ब्रज-नृपति से खिन्न अक्रूर बोले।
देखा जाता ब्रज दुख नहीं शोक है वृद्धि पाता।
आज्ञा देवें जननि पग छू यान पै श्याम बैठें ॥42॥
आज्ञा पाके निज जनक की, मान आक्रूर बातें
जेठे-भ्राता सहित जननी-पास गोपाल आये।
छू माता पग कमल को धीरता साथ बोले।
जो आज्ञा हो जननि अब तो यान पै बैठ जाऊँ ॥43॥
दोनों प्यारे कुँवरवर के यों बिदा माँगते ही।
रोके आँसू जननि दृग में एक ही साथ आयें।
धीरे बोलीं परम दुख से जीवनाधार जाओ।
दोनों भैया विधुमुख हमें लौट आके दिखाओ।।44॥
धीरे धीरे सु-पवन बहे स्निग्ध हों अंशुमाली।
प्यारी छाया विटप वितरें शान्ति फैले वनों में।
बाधायें हों शमन पथ की दूर हों आपदायें।
यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ।।45॥
ले के माता-चरणरज को श्याम औ राम दोनों।
आये विप्रों निकट उन के पाँव की वन्दना की।
भाई-बन्दों सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ों को।
पीछे बैठे विशद रथ में बोध दे के सबों को ॥46॥
दोनों प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा।
आवेगों से विपुल विवशा हो उठीं नन्दरानी।
आँसू आते युगल दृग से वारि-धारा बहा के।
बोली दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दुःखों से ॥47॥
मालिनी छंद
अहह दिवस ऐसा हाय ! क्यों आज आया।
निज प्रियसुत से जो मैं जुदा हो रही हूँ।
अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी।
यह अनुपम थाती मैं तुम्हें सौंपती हूँ ॥48॥
सब पथ कठिनाई नाथ हैं जानते हो।
अब तक न कहीं भी लाडिले हैं पधारे।
मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना।
कुछ पथ-दुख मेरे बालकों को न होवे ॥49॥
खर पवन सतावे लाडिलों को न मेरे।
दिनकर किरणों की ताप से भी बचाना।
यदि उचित अँचे तो छाँह में भी बिठाना।
मुख-सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे ॥50॥
विमल जल मँगाना देख प्यासा पिलाना।
कुछ क्षुधित हुए ही व्यंजनों को खिलाना।
दिन वदन सुतों का देखते ही बिताना।
विलसित अधरों को सूखने भी न देना ॥51॥
युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले।
अति अधिक न दौड़ें यान धीरे चलाना।
बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे।
परम मृदुल मेरे बालकों का कलेजा ॥52॥
प्रिय! सब नगरों में वे कुबामा मिलेंगी।
न सुजन तिनकी हैं वामता बूझ पाते।
सकल समय ऐसी साँपिनों से बचाना।
वह निकट हमारे लाडिलों के न आवें ॥53॥
जब नगर दिखाने के लिए नाथ जाना।
निज सरल कुमारों को खलों से बचाना।
सँग सँग रखना औ साथ ही गेह लाना।
छन सुअन दृगों से दूर होने न पावें ॥54॥
धनुष मख सभा में देख मेरे सुतों को।
तनिक भृकुटि टेढ़ी नाथ जो कंस की हो।
अवसर लख ऐसे यत्न तो सोच लेना।
न कुपित नृप होवें औ बचें लाल मेरे ॥55॥
यदि विधिवश सोचा भूप ने और ही हो।
यह विनय बड़ी ही दीनता से सुनाना।
हम बस न सकेंगे जो हुई दृष्टि मैली।
सुअन युगल ही हैं जीवनाधार मेरे ॥56॥
लख कर मुख सूखा सूखता है कलेजा।
उर विचलित होता है विलोके दुखों के।
शिर पर सुत के जो आपदा नाथ आई।
यह अवनि फटेगी औ समा जाऊँगी मैं ॥57॥
जगकर कितनी ही रात मैंने बिताई।
यदि तनिक कुमारों को हुई बेकली थी।
यह हृदय हमारा भग्न कैसे न होगा।
यदि कुछ दुख होगा बालकों को हमारे ॥58॥
कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।
थर थर कँपती थी औ लिए अंक में थी।
यदि सुखित न यों भी देखती लाल को थी
सब रजनि खड़े औ घूमते ही बिताती ॥59॥
निज सुख अपने मैं ध्यान में भी न लाई।
प्रिय सुत सुख ही से मैं सुखी हूँ कहाती।
मुख तक कुम्हलाया नाथ मैंने न देखा।
अहह दुखित कैसे लाडिले को लगी ॥60॥
यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।
हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।
पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।
यह विनय इसीसे नाथ मैंने सुनाई ॥61॥
अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या मैं।
अनुचित मुझसे है नाथ होता बड़ा ही।
निज युग कर जोड़े ईश से हूँ मनाती।
सकुशल गृह लौटें आप ले लाडिलों को ॥62॥
मन्दाक्रान्ता छंद
सारी बातें अति दुखभरी नन्द अर्द्धाङ्गिनी की।
लोगों को थीं व्यथित करती औ महा कष्ट देती।
ऐसा रोई सकल-जनता खो बची धीरता को।
भूमें व्यापी विपुल जिससे शोक उच्छ्वासमात्रा ॥63॥
आविर्भूता गगन-तल में हो रही है निराशा।
आशाओं में प्रकट दुख की मूर्तियाँ हो रही हैं।
ऐसा जी में ब्रज-दुख-दशा देख के था समाता।
भू-छिद्रों से विपुल करुणा-धार है फूटती सी ॥64॥
सारी बातें सदुख सुन के नन्द ने कामिनी को।
प्यारे प्यारे वचन कह के धीरता से प्रवोधा।
म आई थी जो सकल जनता धैर्य दे के उसे भी।
वे भी बैठे स्वरथ पर जा साथ अक्रूर को ले ॥65॥
घेरा आके सकल जन ने यान को देख जाता।
नाना बातें दुखमय कहीं पत्थरों को रुलाया।
हाहा खाया बहु विनय की और कहा खिन्न हो के।
जो जाते हो कुँवर मथुरा ले चलो तो सभी को॥66॥
बीसों बैठे पकड़ रथ का चक्र दोनों करों से।
रासें ऊँचे तुरग युग की थाम लीं सैकड़ों ने।
सोये भू में चपल रथ के सामने आ अनेकों।
जाना होता अति अप्रिय था बालकों का सबों को॥67॥
लोगों को यों परम-दुख से देख उन्मत्त होता।
नीचे आये उतर रथ के नन्द औ यों प्रबोधा।
क्यों होते हो विकल इतना यान क्यों रोकते हो।
मैं ले दोनों हृदय धन को दो दिनों में फिरूँगा।68 ॥
देखो लोगों, दिन चढ़ गया धूप भी हो रहा है।
जो रोकोगे अधिक अब तो लाल को कष्ट होगा।
यों ही बातें मृदुल कह के औ हटा के सबों को।
वे जा बैठे तुरत रथ में औ उसे शीघ्र हाँका॥69॥
दोनों तीखे तुरग उचके औ उड़े यान को ले।
आशाओं में गगन-तल में हो उठा शब्द हाहा।
रोये प्राणी सकल ब्रज के चेतनाशून्य से हो।
संज्ञा खो के निपतित हुईं मेदिनी में यशोदा ॥70॥
जो आती थी पथराज उड़ी सामने टाप द्वारा।
बोली जाके निकट उसके भ्रान्त सी एक बाला।
क्यों होती है भ्रमित इतनी धूलि क्यों क्षिप्त तू है।
क्या तू भी है विचलित हुई श्याम से भिन्न हो के ॥71॥
आ आ, आके लग ह्दय से लोचनों में समा जा।
मेरे अंगों पर पतित हो बात मेरी बना जा।
मैं पाती हूँ सुख रज तुझे आज छूके करों से।
तू आती है प्रिय निकट से क्लान्ति मेरी मिटा जा।॥72॥
रत्नों वाले मुकुट पर जा बैठती दिव्य होती।
धूलि छा जाती अलक पर तू तो छटा मंजु पाती।
धूलि तू है निपट मुझ सी भाग्यहीना मलीना।
आभा वाले कमल-पग से जो नहीं जा लगी तू ॥73॥
जो तू जाके विशद रथ में बैठ जाती कहीं भी।
किम्वा तू जो युगल तुरगों के तनों में समाती।
तो तू जाती प्रिय स्वजन के साथ ही शान्ति पाती।
यों होहो के भ्रमति मुझ सी भ्रान्त कैसे दिखाती ॥74॥
हा! मैं कैसे निज ह्दय की वेदना को बताऊँ।
मेरे जी को मनुज तन से ग्लानि सी हो रही है।
जो मैं होती तुरग अथवा यान ही या ध्वजा ही।
तो मैं जाती कुँवर वर के साथ क्यों कष्ट पाती ॥75॥
बोली बाला अपर अकुला हा ! सखी क्या कहूँ मैं।
आँखों से तो अब रथ ध्वजा भी नहीं है दिखाती।
है धूली ही गगन-तल में अल्प उड्डीयमाना।
हा! उन्मत्ते! नयन भर तू देख ले धूलि ही को॥76॥
जी होता है विकल मुँह को आ रहा है कलेजा।
ज्वाला सी है ज्वलित उर में ऊबती मैं महा हूँ।
मेरी आली अब रथ गया दूर ले साँवले को।
हा! आँखों से न अब मुझको धूलि भी है दिखाती ॥77॥
टापों का नाद जब तक था कान में स्थान पाता।
देखी जाती जब तक रही यान ऊँची पताका।
थोड़ी सी भी जब तक रही व्योम में धूलि छाती।
यों ही बातें विविध गहते लोग ऊबे खड़े थे।78 ।।
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त महा दुख में पगी।
बहु विलोचन वारि विमोचती।
महरि को लख गेह सिधारती।
गृह गई व्यथिता व्यथिता जनमंडली ॥79॥
मन्दाक्रान्ता छंद
धाता द्वारा सृजित जग में हो धरा मध्य आके।
पाके खोये विभव कितने प्राणियों ने अनेकों।
जैसा प्यारा विभव ब्रज ने हाथ से आज खोया।
पाक ऐसा विभव वसुधा में न खोया किसी ने॥80॥
षष्ठ सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
धीरे धीरे दिन गत हुआ पद्मिनीनाथ डूबे।
दोषा आई फिर गत हुई दूसरा वार आया।
यों ही बीती विपुल घड़ियाँ औ कई वार बीते।
कोई आया न मधुपुर से औ न गोपाल आये॥1॥
ज्यों ज्यों जाते दिवस चित का क्लेश था वृद्धि पाता।
उत्कण्ठा थी अधिक बढ़ती व्यग्रता थी सताती!
होती आके उदय उर में घोर उद्विग्नतायें।
देखे जाते सकल ब्रज के लोग उद्भ्रान्त से थे॥2॥
खाते पीते गमन करते बैठते और सोते।
आते जाते वन अवनि में गोधनों को चराते।
देते लेते सकल ब्रज की गोपिका गोपजों के।
जी में होता उदय था क्यों नहीं श्याम आये॥3॥
दो प्राणी भी ब्रज-अवनि के साथ जो बैठते थे।
तो आने की न मधुवन से बात ही थे चलाते।
पूछा जाता प्रतिथल मिथ: व्यग्रता से यही था।
दोनों प्यारे कुँवर अब भी लौट के क्यों न आये।।4।।
आवासों में सुपरिसर में द्वार में बैठकों में।
बाजारों में विपणि सब में मंदिरों में मठों में।
आने ही की न ब्रजधन के बात फैली हुई थी।
कुंजों में औ पथ अ-पथ में बाग में औ बनों में ॥5॥
आना प्यारे महरसुत का देखने के लिए ही।
कोसों जाती प्रतिदिन चली मंडली उत्सुकों की।
ऊँचे ऊँचे तरु पर चढ़े गोप ढोटे अनेकों।
घंटों बैठे तृषित दृग से पंथ को देखते थे॥6॥
आके बैठी निज सदन की मुक्त ऊँची छतों में।
मोखों में औ पथ पर बने दिव्य वातायनों में।
चिन्ता मग्ना विवश विकला उन्मना नारियों की।
दो ही आँखें सहस बन के देखती पंथ को थीं॥7॥
आके कागा यदि सदन में बैठता था कहीं भी।
तो तन्वंगी उस सदन की यों उसे थी सुनाती।
जो आते हो कुँवर उड़ के काक तो बैठ जा तू।
मैं खाने को प्रतिदिन तुझे दूध औ भात दूंगी॥8॥
आता कोई मनुज मथुरा ओर से जो दिखाता।
नाना बातें सदुख उससे पूछते तो सभी थे।
यों ही जाता पथिक मथुरा ओर भी जो जनाता।
तो लाखों ही सकल उससे भेजते थे सँदेसे ॥9॥
फूलों पत्तों सकल तरुओं औ लता बेलियों से।
आवासों से ब्रज अवनि से पंथ की रेणुओं से।
होती सी थी यह ध्वनि सदा कुञ्ज से काननों से।
मेरे प्यारे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये॥10॥
मालिनी छंद
यदि दिन कट जाता बीतती थी न दोषा।
यदि निशि टलती थी वार था कल्प होता।
पल पल अकुलाती ऊबती थीं यशोदा।
रट यह रहती थी क्यों नहीं श्याम आये॥11॥
प्रति दिन कितनों को पंथ में भेजती थीं।
निज प्रिय सुत आना देखने के लिए हा।
नियत यह जताने के लिए थे अनेकों।
सकुशल गृह दोनों लाडिले आ रहे हैं॥12॥
दिन दिन भर वे आ द्वार पै बैठती थीं।
प्रिय पथ लखते ही वार की थीं बिताती।
यदि पथिक दिखाता तो यही पूछती थीं।
मम सुत गृह आता क्या कहीं था दिखाया।।13।।
अति अनुपम मेवे औ रसीले फलों को।
बहु मधुर मिठाई दुग्ध को व्यञ्जनों को।
पथश्रम निज प्यारे पुत्र का मोचने को।
प्रतिदिन रखती थीं भाजनों में सजा के॥14||
जब कुँवर न आते वार भी बीत जाता।
तब बहुत दुख पा के बाँट देती उन्हें थीं।
दिनदिन उर में थी वृद्धि पाती निराशा।
तम निबिड़ दृगों के सामने हो रहा था॥15॥
जब पुरबनिता आ पूछती थी सँदेसा।
तब मुख उनका थीं देखती उन्मना हो।
यदि कुछ कहना भी वे कभी चाहती थीं।
न कथन कर पाती कंठ था रुद्ध होता॥16||
यदि कुछ समझातीं गेह की सेविकायें।
बन विकल उसे थीं ध्यान में भी न लातीं।
तन सुधि तक खोती जा रही थीं यशोदा।
अतिशय बिमना औ चिन्तिता हो रही थीं॥17॥
यदि दधि मथने को बैठती दासियाँ थीं।
मथन-रव उन्हें था चैन लेने न देता।
यह कह कह के ही रोक देती उन्हें वे।
तुम सब मिल के क्या कान को फोड़ दोगी॥18॥
दुख-वश सब धंधे बन्द से हो गये थे।
गृह जन मन मारे काल को थे बिताते।
हरि-जननि-व्यथा से मौन थीं शारिकायें।
सकल सदन में ही छा गई थी उदासी॥19॥
प्रति दिन कितने ही देवता थी मनाती।
बहु यजन कराती विप्र के बुन्द से थीं।
नित घर पर कोई ज्योतिषी थीं बुलाती।
निज प्रिय सुत आना पूछने को यशोदा॥20॥
सदन लिंग कहाँ जो डोलता पत्र भी था।
निज श्रवण उठाती थीं समुत्कण्ठिता हो।
कुछ रज उठती जो पंथ के मध्य यों ही।
बन अयुत-दृगी तो वे उसे देखती थीं ॥21॥
गृह दिशि यदि कोई शीघ्रता साथ आता।
तब उभय करों से थामतीं वे कलेजा।
जब वह दिखलाता दूसरी ओर जाता।
तब हृदय करों से ढाँपती थीं दुर्गों को ॥22॥
मधुवन पथ से वे तीव्रता साथ आता।
यदि नभ-तल में थीं देख पाती पखेरू ।
उस पर कुछ ऐसी दृष्टि तो डालती थीं।
लख कर जिसको था भग्न होता कलेजा ॥23 ॥
पथ पर न लगी थी दृष्टि ही उत्सुका हो।
न हृदय तल ही की लालसा वर्द्धिता थी।
प्रतिपल करता था लाडिलों की प्रतीक्षा।
यक यक तन रोआँ नँद की कामिनी का ॥24॥
प्रतिपल दृग देखा चाहते श्याम को थे।
छनछन सुधि आती श्यामली मूर्ति की थी।
प्रति निमिष यही थीं चाहती नन्दरानी।
निज वदन दिखावे मेघ सी कान्तिवाला ।।25॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
रो रो चिन्ता-सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
आँखों को थीं सजल रखतीं उन्मना थीं दिखाती।
शोभा वाले जलद-वपु की हो रही चातकी थीं।
उत्कण्ठा थी परम प्रबला वेदना वर्द्धिता थी॥26॥
बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली।
आके आँसू दृग-युगल में थे धरा को भिगोते।
आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गंध को ले।
प्रातःवाली सुपवन इसी काल वातायनों से॥27॥
आके पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया।
चाहा सारा-कलुष तन का राधिका के मिटाना।
जो बूंदें थीं सजल दृग के पक्ष्म में विद्यमाना।
धीरे धीरे क्षिति पर उन्हें सौम्यता से गिराया ॥28 ।।
श्री राधा को यह पवन की प्यार वाली क्रियायें।
थोड़ी सी भी न सुखद हुईं हो गईं वैरिणी सी
भीनी भीनी महँक मन की शान्ति को खो रही थी।
पीड़ा देती व्यथित चित को वायु की स्निग्धता थी॥29॥
संतापों को विपुल बढ़ता देख के दुखिता हो।
धीरे बोलीं सदुख उससे श्रीमती राधिका यों।
प्यारी प्रातः पवन इतना क्यों मुझे है सताती।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से॥30॥
कालिन्दी के कल पुलिन पै घूमती सिक्त होती।
प्यारे प्यारे कुसुम-चय को चूमती गंध लेती।
मिली तू आती है वहन करती वारि के सीकरों को।
हा! पापिष्ठे फिर किस लिए ताप देती मुझे है ॥31॥
क्यों होती है निठुर इतना क्यों बढ़ाती व्यथा है।
तू है मेरी चिर परिचिता तू हमारी प्रिया है।
मेरी बातें सुन मत सता छोड़ दे बामता को।
पीड़ा खो के प्रणतजन की है बड़ा पुण्य होता ।।32 ।।
मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्रवाले।
जाके आये न मधुवन से औ न भेजा सँदेसा।
मैं रो रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दुःख-कथा श्याम को तू सुना दे॥33॥
हो पाये जो न यह तुझसे तो क्रिया-चातुरी से।
जाके रोने विकल बनने आदि ही को दिखा दे।
चाहे ला दे प्रिय निकट से वस्तु कोई अनूठी।
हो हो! मैं हूँ मृतक बनती प्राण मेरा बचा दे॥34 ।।
तू जाती है सकल थल ही बेगवाली बड़ी है।
तू है सीधी तरल हृदया ताप उन्मूलती है।
मैं हूँ जी में बहुत रखती वायु तेरा भरोसा।
जैसे हो ऐ भगिनि बिगड़ी बात मेरी बना दे ॥35 ।।
कालिन्दी के तट पर घने रम्य उद्यानवाला।
ऊँचे ऊँचे धवल-गृह की पंक्तियों से प्रशोभी।
जो है न्यारा नगर मथुरा प्राणप्यारा वहीं है।
मेरा सूना सदन तज के तू वहाँ शीघ्र ही जा ॥36 ॥
ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कुंजें मिलेंगी।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेंगी तुझे वे।
तो भी मेरा दुख लख वहाँ जा न विश्राम लेना।37॥
थोड़ा आगे सरस रव का धाम सत्पुष्पवाला।
अच्छे अच्छे बहुत द्रुम लतावान सौन्दर्य्यशाली।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमाना न होना ॥38॥
जाते जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे।
तो जा के सन्निकट उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
धीरे धीरे परस करके गात उत्ताप खोना।
सद्गंधों से श्रमित जन की हर्षितों सा बनाना ॥39॥
संलग्ना हो सुखद जल के श्रान्तिहारी कणों से।
ले के नाना कुसुम कुल का गंध आमोदकारी।
निर्धूली हो गमन करना उद्धता भी न होना।
आते जाते पथिक जिससे पंथ में शान्ति पावें ॥40॥
लज्जा शीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये।
होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना।
होठों की औ कमल-मुख की म्लानतायें मिटाना॥41॥
जो पुष्पों के मधुर-रस को साथ सानन्द बैठे।
पाते होवें भ्रमर भ्रमरी सौम्यता तो दिखाना।
थोड़ा सा भी न कुसुम हिले औ न उद्विग्न वे हों।
क्रीड़ा होवे न कलुषमयी केलि में हो न बाधा॥42॥
कालिन्दी के पुलिन पर हो जो कहीं भी कढ़े तू।
छू के नीला सलिल उसका अंग उत्ताप खोना
जी चाहे तो कुछ समय वाँ खेलना पंकजों से।
छोटी छोटी सु-लहर उठा क्रीड़ितों को नचाता॥43॥
प्यारे प्यारे तरु किशलयों को कभी जो हिलाना।
तो हो जाना मृदुल इतनी टूटने वे न पावें।
शाखापत्रों सहित जब तू केलि में लग्न हो तो।
थोड़ा सा भी न दुख पहुँचे शावकों को खगों के ॥44॥
तेरी जैसी मृदु पवन से सर्वथा शान्ति-कामी।
कोई रोगी पथिक पथ में जो पड़ा हो कहीं तो।
मेरी सारी दुखमय दशा भूल उत्कण्ठ होके।
खोना सारा कलुष उसका शान्ति सर्वाङ्ग होना॥45॥
कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को॥46 ॥
उद्यानों में सु-उपवन में वापिका में सरों में।
फूलोंवाले नवल तरु में पत्र शोभा द्रुमों में।
आते जाते न रम रहन औ न आसक्त होना।
कुंजों में औ कमल-कुल में वीथिका में वनों में॥47॥
जाते जाते पहुँच मथुरा-धाम में उत्सुका हो।
न्यारी-शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना।
त होवेगी चकित लख के मेरु से मन्दिरों को।
आभावाले कलश जिनके दूसरे अर्क से हैं ॥48॥
जी चाहे तो शिखर सम जो सद्य के हैं मुँडेरे ।
वाँ जा ऊँची अनुपम--ध्वजा अङ्क में ले उड़ाना।
प्रासादों में अटन करना घूमना प्रांगणों में।
उद्युक्ता हो सकल सुर से गेह को देख जाना ॥49॥
कुंजों बागों विपिन यमुना कूल या आलयों में।
सद्गंधों से भरित मुख की वास संबंध से आ।
कोई भौंरा विकल करता हो किसी कामिनी को
तो सद्भावों सहित उसको ताड़ना दे भगाना ॥50॥
तू पावेगी कुसुम गहने कांतता साथ पैन्हे।
उद्यानों में वर नगर के सुन्दरी मालिनों को।
वे कार्यों में स्वप्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी।
जो श्रान्ता हों सरस गति से तो उन्हें मोह लेना ।।51॥
जो इच्छा हो सुरभि तन के पुष्प संभार से ले।
कि आते जाते स-रुचि उनके प्रीतमों को रिझाना।
गि ऐ मर्मज्ञे रहित उससे युक्तियाँ सोच होना।
जा जैसे जाना निकट प्रिय के व्योम-चुम्बी गृहों के॥52॥
देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना।
नाना वाद्यों मधुर-स्वर को मुग्धता को बढ़ाना।
किम्वा ले के रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को।
धीरे धीरे मधुररव से मुग्ध हो हो बजाना ॥53॥
नीचे फूले कुसुम तरु के जो खड़े भक्त होवें।
किम्वा कोई उपल-गठिता-मूर्ति हो देवता की।
तो डालों को परम मृदुता मंजुता से हिलाना।
औ यों वर्षा कर कुसुम की पूजना पूजितों को ॥54॥
तू पावेगी वर नगर में एक भूखण्ड न्यारा।
शोभा देते अमित जिसमें राज-प्रासाद होंगे।
उद्यानों में परम-सुषमा है जहाँ संचिता सी।
छीने लेते सरवर जहाँ वज्र की स्वच्छता हैं ॥55॥
तू देखेगी जलद-तन को जा वहीं तद्गता हो।
होंगे लोने नयन उनके ज्योति-उत्कीर्णकारी।
मुद्रा होगी वर-वदन की मूर्ति सी सौम्यता की।
सीधे साधे वचन उनके सिक्त होंगे सुधा से ॥56॥
नीले फूले कमल दल सी गात की श्यामता है।
पीला प्यारा वसन कटि में पैन्हते हैं फबीला।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बढ़ाती।
सद्वस्रों में नवल-तन की फूटती सी प्रभा है ॥57॥
साँचे ढाला सकल वपु है दिव्य सौंदर्य्यशाली।
सत्पुष्पों सी सुरभि उस की प्राण संपोषिका है।
दोनों कंधे वृषभ-वर से हैं बड़े ही सजीले।
लम्बी बाँहें कलभ-कर सी शक्ति की पेटिका हैं।।58॥
राजाओं सा शिर पर लसा दिव्य आपीड़ होगा।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलों की।
नाना रत्नाकलित भुज में मंजु केयूर होंगे।
मोतीमाला लसित उनका कम्बु सा कंठ होगा ॥59।।
प्यारे ऐसे अपर जन भी जो वहाँ दृष्टि आवें।
देवों के से प्रथित-गुण से तो उन्हें चीन्ह लेना।
थोड़ी ही है वय तदपि वे तेजशाली बड़े हैं।
तारों में है न छिप सकता कंत राका निशा का ॥60॥
बैठे होंगे जिस थल वहाँ भव्यता भूरि होगी।
सारे प्राणी वदन लखते प्यार के साथ होंगे।
पाते होंगे परम निधियाँ लूटते रत्न होंगे।
होती होंगी हृदयतल की क्यारियाँ पुष्पिता सी ॥61॥
बैठे होंगे निकट जितने शांत औ शिष्ट होंगे।
मर्यादा का प्रति पुरुष को ध्यान होगा बड़ा ही।
कोई होगा न कह सकता बात दुर्वृत्तता की।
पूरा पूरा प्रति हृदय में श्याम आतंक होगा ।।62॥
प्यारे प्यारे वचन उनसे बोलते श्याम होंगे।
फैली जाती हृदय-तल में हर्ष की बेलि होगी।
देते होंगे प्रथित गुण वे देख सदृष्टि द्वारा।
लोहा को छू कलित कर से स्वर्ण होंगे बनाते॥63 ॥
सीधे जाके प्रथम गृह के मंजु उद्यान में ही।
जो थोड़ी भी तन-तपन हो सिक्त होके मिटाना।
निर्धूली हो सरस रज से पुष्प के लिप्त होना।
पीछे जाना प्रियसदन में स्निगधता से बड़ी ही ।।64 ॥
जो प्यारे के निकट बजती बीन हो मंजुता से।
किम्वा कोई मुरज-मुरली आदि को हो बजाता।
या गाती हो मधुर स्वर से मण्डली गायकों की।
होने पावे न स्वर लहरी अल्प भी तो विपन्ना ॥65॥
जाते ही छू कमलदल से पाँव को पूत होना।
काली काली कलित अलकेंगण्ड शोभी हिलाना।
क्रीड़ायें भी ललित करना ले दुकूलादिकों को।
धीरे धीरे परस तन को प्यार की बेलि बोना।।66 ॥
तेरे में है न यह गुण जो तू व्यथायें सुनाये।
व्यापारों को प्रखर मति और युक्तियों से चलाना।
बैठे जो हों निज सदन में मेघ सी कान्तिवाले।
तो चित्रों को इस भवन के ध्यान से देख जाना ॥67॥
जो चित्रों में विरह-विधुरा का मिले चित्र कोई।
तो जा के निकट उसको भाव से यों हिलाना।
प्यारे हो के चकित जिससे चित्र की ओर देखें।
आशा है यों सुरति उनका हो सकेगी हमारी ॥68॥
जो कोई भी इस सदन में चित्र उद्यान का हो।
औ हों प्राणी विपुल उसमें घूमते बावले से।
तो जाके सन्निकट उसके औ हिला के उसे भी।
देवात्मा को सुरति ब्रज के व्याकुलों की कराना ॥69॥
कोई प्यारा-कुसुम कुम्हला गेह में जो पड़ा हो।
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसीको।
यों देना ऐ पवन बतला फूल सी एक बाला।
म्लाना ही हो कमल पग को चूमना चाहती है ।।70॥
जो प्यारे मंजु-उपवन या वाटिका में खड़े हों।
छिद्रों में जा क्वणित करना वेणु सा कीचकों को।
यों होवेगी सुरति उनको सर्व गोपांगना की।
जो हैं वंशी श्रवण रुचि से दीर्घ उत्कण्ठ होतीं ॥71॥
ला के फूले कमलदल को श्याम के सामने ही।
थोड़ा थोड़ा विपुल जल में व्यग्र हो हो डुबाना।
यों देना ऐ भगिनि जतला एक अंभोजनेत्रा।
ना आँखों को हो विरह-विधुरा वारि में बोरती है ।।72॥
धीरे लाना वहन कर के नीप का पुष्प कोई।
औ प्यारे के चपल दृग के सामने डाल देना।
ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशंकिता हो।
कैसी होती विरहवश मैं नित्य रोमांचिता हूँ ।।73 ॥
बैठे नीचे जिस विटप के श्याम होंवें उसी का।
कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना।
यों प्यारे को विदित करना चातुरी से दिखाना।
मेरे चिन्ता-विजित चित का क्लान्त हो काँप जाना ।।74।।
सूखी जाती मलिन लतिका जो धरा में पड़ी हो।
तो पाँवों के निकट उसको श्याम के ला गिराना।
यों सीधे से प्रकट करना प्रीति से वंचिता हो।
मेरा होना अति मलिन औ सूखते नित्य जाना ।।75॥
कोई पत्ता नवल तरु का पीत जो हो रहा हो।
तो प्यारे के दृग युगल के सामने ला उसे ही।
धीरे धीरे सँभल रखना औ उन्हें यों बताना।
पीला होना प्रबल दुख से प्रोषिता सा हमारा ॥76॥
यो प्यारे को विदित करके सर्व मेरी व्यथायें
धीरे धीरे वहन कर के पाँव की धूलि लाना।
थोड़ी सी भी चरणरज जो ला न देगी हमें तू।
हा! कैसे तो व्यथित चित को बोध मैं दे सकूँगी ॥77॥
जो ला देगी चरणरज तो तू बड़ा पुण्य लेगी।
पूता हूँगी भगिनि उसको अंग में मैं लगाके।
पोतूंगी जो हृदय तल में वेदना दूर होगी।
डालूँगी मैं शिर पर उसे आँख में ले मलूँगी ।।78।।
तू प्यारे का मृदुल स्वर ला मिष्ट जो है बड़ा ही।
जो यों भी है क्षरण करती स्वर्ग की सी सुधा को॥
थोड़ा भी ला श्रवणपुट में जो उसे डाल देगी।
मेरा सूखा हृदयतल तो पूर्ण उत्फुल्ल होगा ।।79।।
भीनी भीनी सुरभि सरसे पुष्प की पोषिका सी।
मूलीभूता अवनितल में कीर्ति कस्तूरिका की।
तू प्यारे के नवलतन की वासा ला दे निराली।
मेरे ऊबे व्यथित चित में शान्तिधारा बहा दे॥80॥
होते होवें पतित कण जो अंगरागादिकों के।
धीरे धीरे वहन कर के तू उन्हीं को उड़ा ला।
कोई माला कलकुसुम की कंठसंलग्न जो हो।
तो यत्नों से विकच उसका पुष्प ही एक ला दे॥81॥
पूरी होवें न यदि तुझसे अन्य बातें हमारी।
तो तू मेरी विनय इतनी मान ले औ चली जा।
छू के प्यारे कमलपग को प्यार के साथ आ जा।
जी जाऊँगी हृदयतल में मैं तुझीको लगाके ॥82॥
भ्राता हो के परम दुख औ भूरि उद्विग्नता से
ले के प्रात: मृदुपवन को या सखी आदिकों को।
यों ही राधा प्रगट करतीं नित्य ही वेदनायें।
चिन्तायें थीं चलित करती वर्द्धिता थीं व्यथायें॥83॥
सप्तम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
ऐसा आया यक दिवस जो था महा मर्मभेदी।
धाता ने हो दुखित भव के चित्रितों को विलोका।
धीरे धीरे तरणि निकला काँपता दग्ध होता।
काला काला ब्रज-अवनि में शोक का मेघ छाया॥1॥
देखा जाता पथ जिन दिनों नित्य ही श्याम का था।
ऐसा खोटा यक दिन उन्हीं वासरों मध्य आया।
आँखें नीची जिस दिन किये शोक में मग्न होते।
देखा आते सकल-ब्रज ने नन्द गोपादिकों को॥2॥
हिखो के होवे विकल जितना आत्म-सर्वस्व कोई।
होती हैं खो स्वमणि जितनी सर्प को वेदनायें।
दोनों प्यारे कुँवर तज के ग्राम में आज आते।
पीड़ा होती अधिक उससे गोकुलाधीश को थी॥3॥
लज्जा से वे प्रथित-पथ में पाँव भी थे न देते।
जी होता था व्यथित हरि का पूछते ही सँदेसा।
वृक्षों में हो विपथ चल वे आ रहे ग्राम में थे।
ज्यों ज्यों आते निकट महि के मध्य जाते गड़े थे॥4॥
पाँवों को वे सँभल बल के साथ ही थे उठाते।
तो भी वे थे न उठ सकते हो गये थे मनों के।
मानों यों वे गृह गमन से नन्द को रोकते थे।
संक्षुब्धा हो सबल बहती थी जहाँ शोक-धारा ॥5॥
यानों से हो पृथक तज के संग भी साथियों का।
थोड़े लोगों सहित गृह की ओर वे आ रहे थे।
विक्षिप्तों सा वदन उनका आज जो देख लेता।
हो जाता था वह व्यथित औ था महा कष्ट पाता ।।6।।
आँसू लाते कृशित दृग से फूटती थी निराशा।
छाई जाती वदन पर भी शोक की कालिमा थी।
सीधे जो थे न पग पड़ते भूमि में वे बताते।
चिन्ता द्वारा चलित उनके चित्त की वेदनायें ॥7॥
भादोंवाली भयद रजनी सूचि-भेद्या अमा की।
ज्यों होती है परम असिता छा गये मेघ-माला।
त्योंही सारे ब्रज-सदन का हो गया शोक गाढ़ा।
तातों वाले ब्रज नृपति को देख आता अकेले ॥8॥
एकाकी ही श्रवण करके कंत को गेह आता।
दौड़ी द्वारे जननि हरि की क्षिप्त की भाँति आईं।
गावोहीं आये ब्रज अधिप भी सामने शोक-मग्न।
दोनों ही के हृदयतल की वेदना थी समाना ॥9॥
आते ही वे निपतित हुईं छिन्न मूला लता सी।
पाँवों के सन्निकट पति के हो महा खिद्यमाना।
गि संज्ञा आई फिर जब उन्हें यत्न द्वारा जनों के।
रो रो हो हो विकल पति से यों व्यथा साथ बोलीं ।।10॥
मालिनी छंद
कप्रिय-पति वह मेरा प्राणप्यारा कहाँ है।
दुख-जलधि निमग्ना का सहारा कहाँ है।
अब तक जिसको मैं देख के जी सकी हूँ।
वह हृदय हमारा नेत्र-तारा कहाँ है ॥11॥
पल पल जिसके मैं पंथ को देखती थी।
निशि दिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती।
उर पर जिसके है सोहती मंजुमाला।
वह नवनलिनी से नेत्रवाला कहाँ है ॥12॥
मुझ विजित-जरा का एक आधार जो है।
वह परम अनूठा रत्न सर्वस्व मेरा।
धन मुझ निधनी का लोचनों का उँजाला।
सजल जलद की सी कान्तिवाला कहाँ है ।13।।
प्रति दिन जिसको मैं अंक में नाथ ले के।
विधि लिखित कुअंकों की क्रिया कीलती थी।
अति प्रिय जिसको हैं वस्त्र पीला निराला।
वह किशलय के से अंगवाला कहाँ है ॥14॥
वर-वदन विलोके फुल्ल अंभोज ऐसा।
करतल-गत होता व्योम का चंद्रमा था।
मृदु-रव जिसका है रक्त सूखी नसींका।
वह मधु-मय-कारी मानसों का कहाँ है ।।15॥
रस-मय वचनों से नाथ जो गेह मध्य।
प्रति दिवस बहाता स्वर्ग--मंदाकिनी था।
मम सुकृति धरा का स्रोत जो था सुधा का।
वह नव-घन न्यारी श्यामता का कहाँ है ।।16॥
स्वकुल जलज का है जो समुत्फुल्लकारी।
मम परम-निराशा-यामिनी का विनाशी।
ब्रज-जन विहगों के वृन्द का मोद-दाता।
वह दिनकर शोभी रामभ्राता कहाँ है ॥17॥
मुख पर जिसके है सौम्यता खेलती सी।
अनुपम जिसका हूँ शील सौजन्य पाती।
परदुख लख के है जो समुद्विग्न होता।
वह कृति सरसी स्वच्छ सोता कहाँ है॥18॥
निविड़तम निराशा का भरा गेह में था।
वह किस विधु मुख की कान्ति को देख भागा।
सुखकर जिससे है कामिनी जन्म मेरा।
वह रुचिकर चित्रों का चितेरा कहाँ है ।।19॥
सह कर कितने ही कष्ट औ संकटों को।
बहु यजन कराके पूज के निर्जरों को।
यक सुअन मिला है जो मुझे यत्न द्वारा।
प्रियतम! वह मेरा कृष्ण प्यारा कहाँ है ।।20।।
मुखरित करता जो सद्म को था शुकों सा।
कलरव करता था जो खगों सा वनों में।
सुध्वनित पिक सा जो वाटिका को बनाता।
वह बहु विध कंठों का विधाता कहाँ है॥21।।
सुन स्वर जिसका थे मत्त होते मृगादि।
तरुगण-हरियाली थी महा दिव्य होती।
पुलकित बन जाती थी लसी पुष्प-क्यारी।
उस कल मुरली का नादकारी कहाँ है ॥22॥
जिस प्रिय वर को खो ग्राम सूना हुआ है।
सदन सदन में हा! छा गई है उदासी।
तम वलित मही में है न होता उँजाला।
वह निपट निराली कान्ति कहाँ है ॥23।।
वन वन फिरती हैं खिन्न गायें अनेकों।
शुक भर भर आँखें गेह को देखता है।
सुधि कर जिसकी है शारिका नित्य रोती।
वह श्रुचि रुचि स्वाती मंजु मोती कहाँ ।।24॥
गृह गृह अकुलाती गोप की पत्नियाँ हैं।
पथ पथ फिरते हैं ग्वाल भी उन्मना हो।
जिस कुँवर बिना मैं हो रही हूँ अधीरा।
वह छवि खनि शोभी स्वच्छ हीरा कहाँ है ॥25॥
मम उर कँपता था कंस-आतंक ही से।
पल पल डरती थी क्या न जाने करेगा।
पर परम-पिता ने की बड़ी ही कृपा है।
वह निज कृत पापों से पिसा आप ही जो॥26॥
अतुलित बलवाले मल्ल कूटादि जो थे।
वह गज गिरि ऐसा लोक-आतंक-कारी।
अनु दिन उपजाते भीति थोड़ी नहीं थे।
पर यमपुर-वासी आज वे हो चुके हैं ॥27।।
भयप्रद जितनी थीं आपदायें अनेकों।
यक यक कर के वे हो गईं दूर यों ही।
प्रियतम! अनसोची ध्यान में भी न आई।
यह अभिनव कैसी आपदा आ पड़ी है।।28॥
मृदु किशलय ऐसा पंकजों के दलों सा।
वह नवल सलोने गात का तात मेरा।
इन सब पवि ऐसे देह के दानवों का
कब कर सकता था नाथ कल्पान्त में भी॥29॥
पर हृदय हमारा ही हमें है बताता।
सब शुभ फल पाती हूँ किसी पुण्य ही का।
वह परम अनूठा पुण्य ही पापनाशी।
इस कुसमय में है क्यों नहीं काम आता ॥30॥
प्रिय-सुअन हमारा क्यों नहीं गेह आया।
वर नगर छटायें देख के क्या लुभाया? |
वह कुटिल जनों के जाल में जा पड़ा है।
प्रियतम! उसको या राज्य का भोग भाया ॥31॥
मधुर वचन से औ भक्ति भावादिकों से।
अनुनय विनयों से प्यार की उक्तियों से।
सब मधुपुर-वासी बुद्धिशाली जनों ने।
अतिशय अपनाया क्या ब्रजाभूषणों को? ॥32॥
बहु विभव वहाँ का देख के श्याम भूला।
वह बिलम गया या वृन्द में बालकों के।
फँस कर जिस में हा! लाल छूटा न मेरा।
सुफलक-सुत ने क्या जाल कोई बिछाया ॥33॥
परम शिथिल हो के पंथ की क्लान्तियों से।
वह ठहर गया है क्या किसी वाटिका में।
प्रियतम! तुम से या दूसरों से जुदा हो।
वह भटक रहा है क्या कहीं मार्ग ही में ॥34॥
विपुल कलित कुंजें भानुजा कूलवाली।
अतुलित जिनमें थी प्रीति मेरे प्रियों की।
पुलकित चित से वे क्या उन्हीं में गये हैं।
कतिपय दिवसों की श्रान्ति उन्मोचने को॥35॥
विविध सुरभिवाली मण्डली बालकों की।
मम युगल सुतों ने क्या कहीं देख पाई।
निज सुहृद जनों में वत्स में धेनुओं में।
बहु बिलम गये वे क्या इसी से न आये? ॥36॥
निकट अति अनूठे नीप फूले फले के।
जण कलकल बहती जो धार है भानुजा की।
अति-प्रिय सुत को है दृश्य न्यारा वहाँ का।
वह समुद उसे ही देखने क्या गया है? ॥37॥
सित सरसिज ऐसे गात के श्याम भ्राता।
यदुकुल जन हैं औ वंश के हैं उँजाले।
यदि वह कुलवालों के कुटुम्बी बने तो।
सुत सदन अकेले ही चला क्यों न आया!॥38॥
यदि वह अति स्नेही शील सौजन्य शाली।
तज कर निज भ्राता को नहीं गेह आया।
ब्रजअवनि बता दो नाथ तो क्यों बसेगी।
यदि बदन विलोकोंगी न मैं क्यों बनूंगी॥39॥
प्रियतम! अब मेरा कंठ में प्राण आया।
सच सच बतला दो प्राण प्यारा कहाँ है?।
यदि मिल न सकेगा जीवनाधार मेरा।
तब फिर निज पापी प्राण मैं क्यों रखूँगी॥40॥
विपुल जन अनेकों रत्न हो साथ लाये।
प्रियतम! बतला दो लाल मेरा कहाँ है ।
अगणित अनचाहे रत्न ले क्या करूँगी।
मम परम अनूठा लाल ही नाथ ला दो।।41।।
उस वर-धन को मैं माँगती चाहती हूँ।
उपचित जिससे है वंश की बेलि होती।
सकल जगत प्राणी मात्र का बीज जो है।
भव-विभव जिसे खो है वृथा ज्ञात होता ।।42।।
इन अरुण प्रभा के रंग के पाहनों की।
प्रियतम! घर मेरे कौन सी न्यूनता है।
प्रति पल उर में है लालसा वर्द्धमान।
उस परम निराले लाल के लाभ ही की ।।43॥
युग दृग जिससे हैं स्वर्ग सी ज्योति पाते।
उर तिमिर भगाता जो प्रभापुंज से है।
कल द्युति जिसकी है चित्त उत्ताप खोती।
था वह अनुपम हीरा नाथ मैं चाहती हूँ ॥44॥
कटि-पट लख पीले रत्न दूंगी लुटा मैं।
तन पर सब नीले रत्न को वार दूंगी।
सुत-मुख-छवि न्यारी आज जो देख पाऊँ।
बहु अपर अनूठे रत्न भी बाँट दूंगी ॥45॥
धन विभव सहस्रों रत्न संतान देखे।
रज कण सम हैं औ तुच्छ हैं वे तृणों से।
पति इन सब को त्यों पुत्र को त्याग लाये।
मणि-गण तज लावे गेह ज्यों काँच कोई ।।46॥
परम-सुयश वाले कोशलाधीश ही हैं।
प्रिय-सुत बन जाते ही नहीं जी सके जो।
वह हृदय हमारा बज्र से ही बना है।
वह तुरत नहीं जो सैकड़ों खंड होता ॥47॥
निज प्रिय मणि को जो सर्प खोता कभी है।
तड़प तड़प के तो प्राण है त्याग देता।
मम सदृश मही में कौन पापीयसी है।
हृदय-मणि गँवा के नाथ जो जीविता हूँ ।।48।।
लघुतर-सफरी भी भाग्य वाली बड़ी है।
अलग सलिल से हो प्राण जो त्यागती है।
अह अवनि में मैं हूँ महा भाग्यहीना।
अब तक बिछुड़े जो लाल के जी सकी हूँ ।।49॥
परम पतित मेरे पातकी-प्राण ए हैं।
यदि तुरत नहीं हैं गात को त्याग देते।
अहह दिन न जाने कौन सा देखने को।
दुखमय तन में ए निर्ममों से रुके हैं ।।50॥
विधिवश इन में हा! शक्ति बाकी नहीं है।
तन तज सकने की हो गये क्षीण ऐसे।
वह इस अवनी में भाग्यवाली बड़ी है।
अवसर पर सोवे मृत्यु के अंक में जो ॥51॥
बहु कलप चुकी हूँ दग्ध भी हो चुकी हूँ।
जग कर कितनी ही रात में रो चुकी हूँ।
अब न हृदय में है रक्त का लेश बाकी।
तन बल सुख आशा मैं सभी खो चुकी हूँ ॥52॥
विधु मुख अवलोके मुग्ध होगा न कोई।
न सुखित ब्रजवासी कान्ति को देख होंगे।
यह अवगत होता है सुनी बात द्वारा।
अब बह न सकेगी शान्ति-पीयूष धारा ॥53॥
सब दिन अति-सूना ग्राम सारा लगेगा।
निशि दिवस बड़ी ही खिन्नता से कटेंगे।
समधिक ब्रज में जो छा गई है उदासी।
अब वह न टलेगी औ सदा ही खलेगी॥54॥
बहुत सह चुकी हूँ और कैसे सहूँगी।
पवि सदृश कलेजा मैं कहाँ पा सकूँगी।
इस कृशित हमारे गात को प्राण त्यागो।
बन विवश नहीं तो नित्य रो रो मरूँगी ।।55।।
मन्दाक्रान्ता छंद
हा! वृद्धा के अतुल धन हो! वृद्धता के सहारे।
हा! प्राणों के परम-प्रिय हा! एक मेरे दुलारे।
हा! शोभा के सदन सम हा! रूप लावण्यवाले।
हा! बेटा हा! हृदय-धन हा! नेत्र-तारे हमारे ॥56॥
कैसे होके अलग तुझसे आज भी मैं बची हूँ।
जो मैं ही हूँ समझ न सकी तो मुझे क्यों बताऊँ।
हाँ जीऊँगी न अब, पर है वेदना एक होती।
तेरा प्यारा वदन मरती बार मैंने न देखा ॥57॥
यों ही बातें स-दुख कहते अश्रुधारा बहाते।
धीरे धीरे यशुमति लगीं चेतना-शून्य होने।
जो प्राणी थे निकट उनके या वहाँ, भीत होके।
नाना यत्नों सहित उनको वे लगे बोध देने ॥58॥
आवेगों से बहु विकल तो नन्द थे पूर्व ही से।
कान्ता को यों व्यथित लख के शोक में और डूबे।
बोले ऐसे वचन जिनसे चित्त में शान्ति आवे।
आशा होवे उदय उर में नाश पावे निराशा ॥59॥
धीरे धीरे श्रवण करके नन्द की बात प्यारी।
जाते जो थे वपुष तज के प्राण वे लौट आये।
आँखें खोली हरि-जननि ने कष्ट से, और बोलीं।
क्या आवेगा कुँवर ब्रज में नाथ दो ही दिनों में ॥60॥
सारी बातें व्यथित उर की भूल के नन्द बोले।
हाँ आवेगा प्रिय-सुत प्रिये गेह दो ही दिनों में।
ऐसी बातें कथन कितनी और भी नन्द ने की।
जैसे तैसे हरि-जननि को धीरता से प्रबोधा ॥61॥
जैसे स्वाती सलिल-कण पा वृष्टि का काल बीते।
थोड़ी सी है परम तृषिता चातकी शान्ति पाती।
वैसे आना श्रवण करके पुत्र का दो दिनों में।
संज्ञा खोती यशुमति हुईं स्वल्प आश्वासिता सी।।62 ।।
पीछे बातें कलप कहती काँपती कष्ट पाती।
आईं लेके स्वप्रिय पति को सद्म में नंद-वामा।
आशा की है अमित महिमा धन्य है दिव्य आशा।
जो छू के है मृतक बनते प्राणियों को जिलाती ॥63॥
अष्टम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
यात्रा पूरी स-दुख करके गोप जो गेह आये।
सारी-बातें प्रकट ब्रज में कष्ट से की उन्होंने।
जो आने की विवि दिवस में बात थी खोजियों ने,
धीरे धीरे सकल उसका भेद भी जान पाया ॥1॥
आती बेला वदन सबने नन्द का था विलोका।
आँखों में भी सतत उसकी म्लानता घूमती थी।
सारी-बातें श्रवणगत थीं हो चुकी आगतों से।
कैसे कोई न फिर असली बात को जान जाता ॥2॥
दोनों प्यारे न अब ब्रज में आ सकेंगे कभी भी।
आँखें होंगी न अब सफला देखके कान्ति प्यारी।
कानों में भी न अब मुरली की सु ताने पड़ेंगी।
प्रायः चर्चा प्रति सदन में आज होती यही थी॥3॥
गो गोपी के सकल ब्रजं के श्याम थे प्राणप्यारे।
प्यारी आशा सकल पुर की लग्न भी थी उन्हीं में।
चावों से था वदन उनका देखता ग्राम सारा।
क्यों हो जाता न उर-शतधा आज खोके उन्हीं को।।4।।
बैठे नाना जगह कहते लोग थे वृत्त नाना।
आवेगों का सकल पुर में स्रोत था वृद्धि पाता।
देखो कैसे करुण-स्वर से एक आभीर बैठा।
लोगों को है सकल अपनी वेदनायें सुनाता ॥5॥
द्रुतविलम्बित छंद
जब हुआ ब्रजजीवन-जन्म था।
ब्रज प्रफुल्लित था कितना हुआ।
उमगती कितनी कृति मूर्ति थीं।
पुलकते कितने नृप नंद थे।॥6॥
विपुल सुंदर-बन्दनवार से।
सकल द्वार बने अभिराम थे।
विहँसते करिब ब्रज-सद्म-समूह।
वदन में दसनावलि थी लसी॥7॥
नव रसाल-सुपल्लव के बने।
अजिर में वर-तोरण थे बँधे ।
विपुल-जीह विभूषित था हुआ।
वह मनो रस-लेहन के लिए ॥8॥
गृह गली मग मंदिर चौरहों।
तरुवरों पर थी लसती ध्वजा।
समुद सूचित थी करती मनो।
वह कथा ब्रज की सुरलोक को ॥9॥
विपणि हो वर-वस्तु विभूषिता।
मणि मयी अलका सम थी लसी।
पर-वितान विमंडित ग्राम की।
सु-छवि थी अमरावति-रंजिनी ॥10॥
सजल कुंभ सुशोभित द्वार थे।
सुमन-संकुल थीं सब वीथियाँ।
अति-सु-चर्चित थे सब चौरहे।
रस प्रवाहित सा सब ठौर था॥11॥
सकल गोधन सज्जित था हुआ।
वसन भूषण औ शिखिपुच्छ से।
विविध-भाँति अलंकृत थी हुई।
विपुल-ग्वाल मनोरम मण्डली ॥12॥
मधुर मंजुल मंगल गान की।
मच गई ब्रज में बहु धूम थी।
सरस औ अति ही मधुसिक्त थी।
पुलकिता नवला कलकंठता ॥13॥
सदन उत्सव की कमनीयता।
विपुलता बहु याचक-वृन्द की।
प्रचुरता धन रत्न प्रदान की।
अति मनोरम औ रमणीय थी।14॥
विविध भूषण वस्त्र विभूषिता।
बहु विनोदित ग्राम-वधूटियाँ।
विहँसती, नृप गेह-पधारती।
सुखद थीं कितना जनवृन्द को॥15॥
ध्वनित भूषण की मधु मानता।
अति अलौकिकता कलतान की।
मधुर वादन वाद्य समूह का।
हृदय के कितना अनुकूल था॥16॥
मन्दाक्रान्ता छंद
या मैंने था दिवस अति-ही-दिव्य ऐसा विलोका।
या आँखों से मलिन इतना देखता वार मैं हूँ।
जो ऐसा ही दिवस मुझको अन्त में था दिखाना।
तो क्यों तू ने निठुर विधना! वार वैसा दिखाया॥17॥
हा! क्यों देखा मुदित उतना नन्द-नन्दांगना को
जो दोनों को दुखित इतना आज मैं देखता हूँ।
वैसा फूला सुखित ब्रज क्यों म्लान है नित्य होता।
हा! क्यों ऐसी दुखमय दशा देखने को बचा मैं ।।18॥
या देखा था अनुपम सजे द्वार औ प्रांगणों को।
आवासों को विपणि सबको मार्ग को मंदिरों को।
या रोते से विषम जड़ता मग्न से आज ए हैं
देखा जाता अटल जिनमें राज्य मालिन्य का है ।।19॥
मैंने हो हो सुखित जिनको सज्जिता था बिलोका।
क्यों वे गायें अहह! दुख के सिंधु में मज्जिता हैं।
जो ग्वाले थे मुदित अति ही मग्न आमोद में हो।
हा! आहों से मथित अब मैं क्यों उन्हें देखता हूँ॥20॥
भोलीभाली बहु विध सजी वस्त्र आभूषणों से।
गोनवाली मधुर स्वर से सुन्दरी बालिकायें।
जो प्राणी के परम मुद की मूर्तियाँ थीं उन्हें क्यों।
खिन्ना-दीना मलिन-वसना देखने को बचा मैं ।।21॥
हा! वाद्यों की मधुरध्वनि भी धूल में जा मिली क्या।
हा! कीला है किस कुटिल ने कामिनी-कण्ठ प्यारा।
सारी शोभा सकल ब्रज की लूटता कौन क्यों है? ।
हा! हा! मेरे हृदय पर यों साँप क्यों लोटता है ।।22॥
आगे आओ सहृदय जनों, वृद्ध का संग छोड़ो।
देखो बैठी सदन कहती क्या कई नारियाँ हैं।
रोते रोते अधिकतर की लाल आँखें हुई हैं।
जो ऊबी है कथन पहले हूँ उसी का सुनाता ॥23॥
द्रुतविलम्बित छंद
जब रहे ब्रजचन्द छ मास के।
दसन दो मुख में जब थे लसे।
तब पड़े कुसुमोपम तल्प पै।
वह उछाल रहे पद कंज थे॥24॥
महरि पास खड़ी इस तल्प के।
छवि अनुत्तम थीं अवलोकती।
अति मनोहर कोमल कंठ से।
कलित गान कभी करती रहीं॥25॥
जब कभी जननी मुख चूमतीं।
कल कथा कहती चुमकारतीं।
उमँगना हँसना उस काल का।
अति अलौकिक था ब्रजचन्द का ॥26॥
कुछ खुले मुख की सुषमा-मयी।
यह हँसी जननी-मन-रंजिनी।
लसित यों मुखमण्डल पै रही।
विकच पंकज ऊपर ज्यों कला॥27॥
दसन दो हँसते मुख मंजु में।
दरसते अति ही कमनीय थे।
नवल कोमल पंकज कोष में।
विलसते बिवि मौक्तिक हों यथा ॥28॥
जननि के अति वत्सलता पगे।
ललकते विवि लोचन के लिए।
दसन थे रस के युग बीज से।
सरस धार सुधा सम थी हँसी ॥29॥
जब सुव्यंजक भाव विचित्र के।
निकलते मुख-अस्फुट शब्द
तब कढ़े अधरांबुधि से कई।
जननि को मिलते वर रत्न थे॥30॥
अधर सांध्य सु-व्योम समान थे।
दसन थे युगतारक से लगे।
मृदु हँसी वर ज्योति समान थी।
जननि मानस की अभिनन्दिनी ॥31॥
विमल चन्द विनिन्दक माधुरी।
विकच वारिज की कमनीयता।
वदन में जननी बलवीर के।
निरखती बहु विश्व विभूति थीं ॥32॥
मन्दाक्रान्ता छंद
मैंने आँखों यह सब महा मोद नन्दांगना का।
देखा है औ सहस मुख से भाग को है सराहा।
छा जाती थी वदन पर जो हर्ष की कांत लाली।
सो आँखों को अकथ रस से सिंचिता थी बनाती ॥33॥
हा! मैं ऐसी प्रमुद-प्रतिमा मोद-आन्दोलिता को।
जो पाती हूँ मलिन वदना शोक में मज्जिता सी।
तो है मेरा हृदय मलता वारि है नेत्र लाता।
दावा सी है दहक उठती गात-रोमावली ॥34॥
जो प्यारे का वदन लख के स्वर्ग-सम्पत्ति पाती।
लूटे लेती सकल निधियाँ श्यामली-मूर्ति देखे।
हा! सो सारे अवनितल में देखती हैं अँधेरा।
थोड़ी आशा झलक जिसमें है नहीं दृष्टि आती ॥35॥
हा! भद्रे ! हा! सरलहृदये! हा! सुशीला यशोदे।
हा! सद्वृत्ते! सुरद्विजरते ! हा! सदाचार-रूपे।
हा! शान्ते! हा परम-सुव्रते! है महा कष्ट देता।
तेरा होना नियति कर से विश्व में वंचिता यों ।।36।।
बोली बाला अपर विधि की चाल ही है निराली।
ऐसी ही है मम हृदय में वेदना आज होती।
मैं भी बीती भगिनि, अपनी आह ! देती सुना दूँ।
संतप्ता ने फिर बिलख से बात आरंभ यों की॥37॥
द्रुतविलम्बित छंद
ज्ञननि-मानस पुण्य-पयोधि में।
लहर एक उठी सुख-मूल थी।
वह सु-वासर था ब्रज के लिए।
जब चले घुटनों ब्रज-चन्द थे॥38॥
उमगते जननी मुख देखते।
किलकते हँसते जब लाडिले।
अजिर में घुटनों चलते रहे।
बितरते तब भूरि विनोद थे।।39॥
विमल व्योम-विराजित चंद्रमा।
सदन शोभित दीपक की शिखा।
जननि अंक विभूषण के लिए।
परम कौतुक की प्रिय वस्तु थी ॥40॥
नयन रंजन. अंजन मंजु सी।
छविमयी रज श्यामल गात की।
जिननि थीं कर से जब पोंछतीं।
उलहती तब वेलि विनोद की॥41॥
जब कभी कुछ ले कर पाणि में।
वदन में ब्रजनन्दन डालते।
चकित-लोचन से अथवा कभी।
निरखते जब वस्तु विशेष को ॥42॥
प्रकृति के नख थे तब खोलते।
विविध ज्ञान मनोहर ग्रन्थि को।
दमकती तब थी द्विगुणी शिखा।
महरि मानस मंजु प्रदीप की ॥43॥
कुछ दिनों उपरान्त ब्रजेश के।
चरण भूपर भी पड़ने लगे।
नवल नूपुर औ कटिकिंकिणी।
ध्वनित हो उठने गृह में लगी ॥44॥
ठुमुकते गिरते पड़ते हुए।
जननि के कर की उँगली गहे।
सदन में चलते जब श्याम थे।
उमड़ता तब हर्ष-पयोधि था।॥45॥
ठुमुकते गिरते पड़ते हुए।
जननि के कर उँगली गहे।
सदन में चलते जब श्याम थे।
उमड़ता तब हर्ष-पयोधि था ॥46॥
कणित हो करके कटिकिंकिणी।
विदित थी करती इस बात को।
चकितकारक पण्डित मण्डली।
परम अद्भुत बालक है यही ॥46।।
कलित नूपुर की कल-वादिता।
जगत को यह थी जतला रही।
कब भला न अजीब सजीवता।
जस के पद पंकज पा सके ।।47॥
मन्दाक्रान्ता छंद
ऐसा प्यारा विधु छवि जयी आलयों का उजाला।
शोभावाला अतुल-सुख का धाम माधुर्य्यशाली।
जो पाया था सुअन सुभगा नन्द-अर्धांगिनी ने।
तो यत्नों के बल न उनका कौन था पुण्य जागा ॥48॥
देखा होगा जिस सु-तिय ने नन्द के गेह जाके।
प्यारी लीला जलद-तन की मोद नन्दारंगना का।
कैसे पाते विशद फल हैं पुण्यकारी मही में।
जाना होगा इस विषय को तद्गता हो उसीने ॥49॥
प्रायः जाके कुँवर-छवि में मत्त हो देखती थी।
मोदोन्मत्ता महिषि-सुख को देख थी स्वर्ग छूती।
दौड़े माँ के निकट जब थे श्याम उत्फुल्ल जाते।
तो वे भी थीं ललक उनको अंक ले मुग्ध होती ॥50॥
मैं देवी की इस अनुपमा मुग्धता में रसों की।
नाना धारें समुद लाख थी सिक्त होती सुधा
आँखों में है भगिनि, अब भी दृश्य न्यारा समाया।
हा! भूली हूँ न अब तक मैं आत्म-उत्फुल्लता को॥51॥
जाना जाता सखि यह नहीं कौन सा पाप जागा।
सोने ऐसा सुख-सदन जो आज है ध्वंस होता।
अंगों में जो परम सुभगा थी न फूली समाती।
हा! पाती हूँ विरह-दत में दग्ध होती उसी को ॥52॥
हा! क्या सारे दिवस सुख के हो गये स्वर्गवासी।
या डूबे जा सलिल-निधि के गर्भ में वे दुखी हो।
आके छाई महिषि-मुख में म्लानता है कहाँ की।
हा! देखूगी न अब उसको क्या खिले पद्म सा मैं ॥53॥
सारी बातें दुखित बनिता की भरी दुःख गाथा।
धीरे धीरे श्रवण करके एक बाला प्रवीणा।
हो हो खिन्ना विपुल पहले धीरता-त्याग रोई।
पीछे आहे, भर विकल हो यों व्यथा-साथ बोली॥54॥
द्रुतविलम्बित छंद
निकल के निज सुंदर सद्म से।
जब लगे ब्रज में हरि घूमने।
जब लगी करने अनुरंजिता।
स्वपथ को पद पंकज लालिमा ॥55।।
तब हुई मुदिता शिशु-मण्डली।
पुर-वधू सुखिता बहु हर्षिता।
विविध कौतुक और विनोद की।
विपुलता ब्रज-मंडल में हुई ॥56॥
पहुँचते जब थे गृह में किसी।
ब्रज-लला हँसते मृदु बोलते।
ग्रहण थीं करती अति-चाव से।
तब उन्हें सब सद्म-विवासिनी 157॥
मधुर भाषण से गृह-बालिका।
अति समादर थी करती सदा।
सरस माखन औ दधि दान से।
मुदित थी करती गृह-स्वामिनी ॥58॥
कमल लोचन भी कल उक्ति से।
सकल को करते अति मुग्ध थे।
कलित क्रीड़न नूपुर नाद से।
भवन भी बनता अति भव्य था॥59॥
स-बलराम स-बालक मण्डली।
विहरते बहु मंदिर में रहे।
विचरते हरि थे अकेले कभी।
रुचिर वस्त्र विभूषण से सजे ॥60।।
मन्दाक्रान्ता छंद
ऐसे सारी ब्रज-अवनि के एक ही लाडिले को।
छीना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला।
हा! क्यों घोला गरल उसने स्निग्धकारी रसों में।
कैसे छींटा सरस कुसमुमोद्यान में कंटकों को ॥61॥
लीलाकारी, ललित-गालियों, लोभनीयालयों में।
क्रीड़ाकारी कलित कितने केलिवाले थलों में ।
कैसे भूला ब्रज अवनि को कूल को भानुजा के।
क्या थोड़ा भी हृदय मलता लाडिले का न होगा।।62॥
क्या देखूगी न अब कढ़ता इंदु को आलयों में।
क्या फूलेगा न अब गृह में पद्म सौंदर्य्यशाली।
मेरे खोटे दिवस अब क्या मुग्धकारी न होंगे।
क्या प्यारे का अब न मुखड़ा मंदिरों में दिखेगा ॥63॥
हाथों में ले मधुर दधि को दीर्घ उत्कण्ठता से।
घंटों बैठी कुँवर-पथ जो आज भी देखती है।
हा! क्या ऐसी सरल-हृदय सद्म की स्वामिनी की।
वांछा होगी न अब सफला श्याम को देख आँखों ॥64॥
भोली भाली सुख सदन की सुन्दरी बालिकायें।
जो प्यारे के कल कथन की आज भी उत्सुका हैं।
क्रीड़ाकांक्षी सकल शिशु जो आज भी हैं स-आशा।
हा! धाता, क्या न अब उनकी कामना सिद्ध होगी॥65॥
प्रातः बेला यक दिन गई नन्द के सद्म मैं थी।
बैठी लीला महरि अपने लाल की देखती थीं।
न्यारी क्रीड़ा समुद करके श्याम थे मोद देते।
होठों में भी विलसित सिता सी हँसी सोहती थी।66॥
ज्योंही आँखें मुझ पर पड़ी प्यार के साथ बोलीं।
देखो कैसा सँभल चलता लाडिला है तुम्हारा।
क्रीड़ा में है निपुण कितना है कलावान कैसा।
पाके ऐसा वर सुअन मैं भाग्यमाना हुई हूँ ॥67।।
होवेगा सो सुदिन जब मैं आँख से देख लूँगी।
पूरी होती सकल अपने चित्त की कामनायें।
ब्याहूँगी मैं जब सुअन को औ मिलेगी वधूटी।
तो जानूँगी अमरपुर की सिद्धि है सद्म आई ॥68॥
ऐसी बातें उमग कहती प्यार से थीं यशोदा।
होता जाता हृदय उनका उत्स आनंद का था।
हा! ऐसे ही हृदय-तल में शोक है आज छाया।
रोऊँ मैं या यह सब कहूँ या मरूँ क्या करूँ मैं ॥69॥
यों ही बातें विविध कह के कष्ट के साथ रो के।
आवेगों से व्यथित बन के दुःख से दग्ध हो के।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के दर्शनाशा सहारे।
प्यारे से हो पृथक अपने वार को थे बिताते ॥70॥
नवम सर्ग
शार्दूलविक्रीड़ित छंद
एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह में।
उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी।
ऊधो-संज्ञक-ज्ञान-वृद्ध उनके जो एक सन्मित्र थे।
वे आये इस काल ही सदन में आनन्द में मग्न से॥1॥
आते ही मुख-म्लान देख हरि का वे दीर्घ-उत्कण्ठ हो।
बोले क्यों इतने मलीन प्रभु हैं? है वेदना कौन सी।
फूले-पुष्प--विमोहिनी-विचकता क्या हो गई आपकी।
क्यों है नीरसता प्रसार करती उत्फुल्ल-अंभोज में ॥2॥
बोले वारिद-गात पास बिठला सम्मान से बंधु को।
प्यारे सर्व-विधान ही नियति का व्यामोह से है भरा।
मेरे जीवन का प्रवाह पहले अत्यन्त-उन्मुक्त था।
पाता हूँ अब मैं नितान्त उसको आवद्ध कर्तव्य में ॥3॥
शोभा-संभ्रभ-शालिनी-ब्रज-धरा प्रेमास्पदा-गोपिका।
माता-प्रीतिमयी प्रतीति-प्रतिमा, वात्सल्य-धाता-पिता।
प्यारे गोप-कुमार, प्रेम-मणि के पाथोधि से गोप वे।
भूले हैं न, सदैव याद उनकी देती व्यथा है हमें ॥4॥
जी में बात अनेक बार यह थी मेरे उठी मैं चलूँ।
प्यारी-भावमयी सु-भूमि ब्रज में दो ही दिनों के लिए।
बीते मास कई परंतु अब भी इच्छा न पूरी हुई।
नाना कार्य-कलाप की जटिलता होती गई वाधिका॥5॥
पेचीले नव राजनीति पचड़े जो वृद्धि हैं पा रहे।
की यात्रा में ब्रज-भूमि की अहह वे हैं विघ्नकारी बड़े।
आते वासर हैं नवीन जितने लाते नये प्रश्न हैं।
होता है उनका दुरूहपन भी व्याघातकारी महा।।6।।
प्राणी है यह सोचता समझता मैं पूर्ण स्वाधीन हूँ।
इच्छा के अनुकूल कार्य्य सब मैं हूँ साध लेता सदा।
ज्ञाता हैं कहते मनुष्य वश में है काल कादि के।
होती है घटना-प्रवाह-पतित-स्वाधीनता यंत्रिता॥7॥
देखो यद्यपि है अपार, ब्रज के प्रस्थान की कामना।
होता मैं तब भी निरस्त नित हूँ व्यापी द्विधा में पड़ा।
ऊधो दग्ध वियोग से ब्रज-धरा है हो रही नित्यशः।
जाओ सिक्त करो उसे सदय हो आमूल ज्ञानाम्बु से॥8॥
मेरे हो तुम बंधु विज्ञ-वर हो आनन्द की मूर्ति हो।
क्यों मैं जा ब्रज में सका न अब भी हो जानते भी इसे।
कैसी हैं अनुरागिनी हृदय से माता, पिता गोपिका।
प्यारे है यह भी छिपी न तुमसे जाओ अतः प्रात ही॥9॥
जैसे हो लघु वेदना हृदय की औ दूर होवे व्यथा।
पावें शान्ति समस्त लोग न जलें मेरे वियोगाग्नि में।
ऐसे ही वर-ज्ञान तात ब्रज को देना बताना क्रिया।
माता का स-विशेष तोष करना और वृद्ध-गोपेश का ।।10॥
जो राधा वृष-भानु-भूप-तनया स्वर्गीय दिव्यांगना।
शोभा है ब्रज प्रांत की अवनि की स्त्री-जाति की वंश की।
होगी हा! वह मग्नभूत अति ही मेरे वियोगाब्धि में।
जो हो संभव तात पोत बन के तो त्राण देना उसे ॥11॥
यों ही आत्म प्रसंग श्याम-वपु ने प्यारे सखा से कहा।
मर्यादा व्यवहार आदि ब्रज का पूरा बताया उन्हें।
ऊधो ने सब को स-आदर सुना स्वीकार जाना किया।
पीछे हो कर के बिदा सुहृद से आये निजागार वे॥12॥
प्रातःकाल अपूर्व-यान मँगवा औ साथ ले सूत को।
ऊधो गोकुल को चले सदय हो स्नेहाम्बु से भीगते।
वे आये जिस काल कांत-ब्रज में देखा महा-मुग्ध हो।
श्री वृन्दावन की मनोज्ञ-मधुरा श्यामायमाना-मही॥13॥
चूड़ायें जिसकी प्रशांत-नभ में थीं देखती दूर से।
ऊधो को सु-पयोद के पटल सी सद्भूम की राशि सी।
सो गोवर्धन श्रेष्ठ-शैल अधुना था सामने दृष्टि के।
सत्पुष्पों सुफलों प्रशंसित द्रुमों से दिव्य सर्वाङ्ग हो॥14॥
ऊँचा शीश सहर्ष शैल कर के था देखता व्योम को।
या होता अति ही स-गर्व वह था सर्वोच्चता दर्प से।
या वार्ता यह था प्रसिद्ध करता सामोद संसार में।
मैं हूँ सुंदर मान दण्ड ब्रज की शोभा-मयी-भूमि का ॥15॥
पुष्पों से परिशोभमान बहुशः जो वृक्ष अंकस्थ थे।
वे उद्घोषित थे सदर्प करते उत्फल्लता मेरु की।
या ऊँचा कर के स-पुष्प कर को फूले द्रुमों व्याज से।
श्री-पद्मा-पति के सरोज-पग को शैलेश था पूजता ॥16॥
नाना-निर्झर हो प्रसूत गिरि के संसिक्त उत्संग से।
हो हो शब्दित थे सवेग गिरते अत्यन्त-सौंदर्य से।
जो छीटें उड़ती अनन्त पथ में थीं दृष्टि को मोहती।
शोभा थी अति ही अपूर्व उनके उत्थान की, 'पात' की॥17॥
प्यारा था शुचि था प्रवाह उनका सद्वारि-सम्पन्न हो।
जो प्रायः बहता विचित्र-गति के गम्य-स्थलों-मध्य था।
सीधे ही वह था कहीं विहरता होता कहीं वक्र था।
नाना-प्रस्तर खंड साथ टकरा, था घूम जाता कहीं ॥18॥
होता निर्झर का प्रवाह जब था सावर्त्त उद्भिन्न हो।
तो होती उसमें अपूर्व-ध्वनि थी उन्मादिनी कर्ण की।
मानों यों वह था सहर्ष कहता सत्कीर्ति शैलेश की।
या गाता गुण था अचिन्त्य-गति का सानन्द सत्कण्ठ से॥19॥
गों में गिरि कन्दरा निचय में, जो वारि था दीखता।
सो निर्जीव, मलीन, तेजहत था, उच्छ्वास से शून्य था।
पानी निर्झर का समुज्वल तथा उल्लास की मूर्ति था।
देता था गति-शील-वस्तु गरिमा यों प्राणियों को बता॥20॥
देता था उसका प्रवाह उर में ऐसी उठा कल्पना।
धारा है यह मेरु से निकलती स्वर्गीय आनन्द की।
या है भूधर सानुराग द्रवता अंकस्थितों के लिए।
आँसू है वह ढलता विरह से किम्वा ब्रजाधीश के ॥21॥
ऊधो को पथ में पयोद-स्वप्न सी गंभीरता पूरिता।
हो जाती ध्वनि एक कर्ण-गत थी प्रायः सुदूरागता।
होती थी श्रुति-गोचरा अब वही प्राबल्य पा पास ही।
व्यक्ता हो गिरि के किसी विवर से सद्वायु-संसर्गतः॥22॥
सद्भावाश्रयता अचिन्त्य-दृढ़ता निर्भीकता उच्चता।
नाना-कौशल -मूलता अटलता न्यारी-क्षमाशीलता।
होता था यह ज्ञात देख उसकी शास्ता-समा-भंगिमा।
मानों शासन है गिरीन्द्र करता निम्नस्थ-भूभाग का ॥23॥
देतीं मुग्ध बना किसे न जिनको ऊँची शिखायें हिले।
शाखायें जिनकी विहंग-कुल से थीं शोभिता शब्दिता।
चारों ओर विशाल-शैल-वर के थे राजते कोटिशः।
ऊँचे श्यामल पत्र-मान-विटपी पुष्पोशोभी महा ॥24॥
जम्बू अम्ब कदम्ब निम्ब फलसा जम्बीर औ आँवला।
लीची दाडिम नारिकेल इमिली और शिंशपा इंगुदी।
नारंगी अमरूद बिल्व वदरी सागौन शालादि भी।
श्रेणी-बद्ध तमाल ताल कदली औ शाल्मली थे खड़े ।॥25॥
ऊँचे दाडिम से रसाल-तरु थे औ आम्र से शिंशपा।
यों निम्नोच्च असंख्य-पादप कसे वृन्दाटवी मध्य थे।
मानों वे अवलोकते पथ रहे वृन्दावनाधीश का।
ऊँचा शीश उठा अपार-जनता के तुल्य उत्कण्ठ हो॥26॥
वंशस्थ छंद
गिरीन्द्र में व्याप विलोकनीय थी।
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी।
अपूर्व शोभा अवलोकन थी।
असेत जम्बालिनी-कूल जम्बु की ॥27॥
सुपक्वता पेशलता अपूर्वता।
फलादि की मुग्धकरी विभूति थी।
रसाप्लुता सी बनी मंजु भूमि को।
रसालता थी करती रसाल की ॥28॥
सु- वर्त्तुलाकार विलोकनीय था।
विनम्र-शाखा नयनाभिराम थी।
अपूर्व थी श्यामल-पुत्र-राशि में।
कदम्ब के पुष्प की छटा ॥29॥
स्वकीय-पंचांग प्रभाव से सदा।
सदैव नीरोग वनान्त को बना।
किसी गुणी-वैद्य समान था खड़ा।
स्वनिम्बता-गर्वित-वृक्ष-निम्ब का ॥30॥
लिए हथेली सम गात-पत्र में।
बड़े अनूठे-फल श्यामरंग के।
सदा खड़ा स्वागत के निमित्त था।
प्रफुल्लितों सा फलवान फालसा ॥31॥
सुरम्य-शाखाकल-पल्लवादि में।
न डोलते थे फल मंजु-भाव से।
प्रकाश वे थे करते शनै: शनै।
सदम्बु-निम्बु-तरु की सदम्बुता ॥32॥
दिखा फलों की बहुतधा अपक्वता।
स्वपत्तियों की स्थिरता-विहीनता।
बता रहा था चलचित्त वृत्ति के।
उतावलों की करतूत आँवला ॥33॥
रसाल-गूदा छिलका कदंश में।
कु-बीज गूदा मधुमान-अंक में।
दिखा फलों में,वर-पोच-वंश का।
रहस्य लीची-तरु था बता रहा ॥34॥
विलोल-जिह्ना-युत रक्त-पुष्प से।
सुदन्त शोभी फल भग्न-अंक से।
बढ़ा रही थी वन की विचित्रता।
समाद्रिता दाडिम की द्रुमावली ॥35॥
हिला-स्व-शाखा नव-पुष्प को खिला।
नाचा सु-पत्रावलि औ फलादि ला।
नितान्त था मानस पान्थ मोहता।
सुकेलि-कारी तरु-नारिकेल का॥36॥
नितान्त लध्वी घनता विवर्द्धिनी।
असंख्य-पत्रावलि अंकधारिणी।
प्रगाढ़-छाया-मय पुष्पशोभिनी।
अम्लान काया-इमिली सुमौलि थी ॥37॥
सु-चातुरी से किस के न चित्त को।
निमग्न सा था करता विनोद में।
स्वकीय न्यारी-रचना विमुग्ध हो।
स्व-शीश-संचालन-मग्न शिंशपा ॥38॥
सु-पत्र संचालित थे न हो रहे।
नहीं-स-शाखा हिलते फलादि थे।
जता रही थी निज स्नेह-शीलता।
स्व-इङ्गितों से रुचिरांग इंगुदी ।।39॥
सुवर्ण-ढाले-तमगे कई लगा।
हरे सजीले निज-वस्त्र को सजे।
बड़े-अनूठेपन साथ था खड़ा।
महा-रँगीला तरु-नागरंग का ॥40॥
अनेक-आकार-प्रकार-रंग के।
सुधा-समोये फल-पुंज से सजा।
विराजता अन्य रसाल तुल्य था।
समोदकारी अमरूद रोदसी ॥41॥
स्व-अंक में पत्र प्रसून मध्य में।
लिए फलों व्याज सु-मूर्ति शंभु की।
सदैव पूजा-रत सानुराग था।
विलोलता-वर्जित-वृक्ष-बिल्व का ॥42॥
कु-अंगजों को बहु-कष्टदायिता।
बता रही थी जन-नेत्र-वान को।
स्व-कंटकों से स्वयमेव सर्वदा।
विदारिता हो वदरी-द्रुमावली ॥43॥
समस्त-शाखा फल फूल मूल की।
सु-पल्लवों की मृदुता मनोज्ञता।
प्रफुल्ल होता चित था नितान्त ही।
विलोक सागौन सुगीत सांगता ॥44॥
नितान्त ही थी नभ-चुम्बनोत्सुका।
द्रुमोच्चता की महनीय-मूर्ति थी।
खगादि की थी अनुराग-वर्द्धिनी।
विशालता-शाल-विशाल-काय की ॥45॥
स्वगात की श्यामलता विभूति से।
हरीतिमा से घन-पत्र-पुंज की।
अछिद्र छायादिक से तमोमयी।
वनस्थली को करता तमाल था॥46॥
विचित्रता दर्शक-वृन्द-दृष्टि में।
सदा समुत्पादन में समर्थ था।
स-दर्प नीचा तरु-पुंज को दिखा।
स्व-शीश उत्तोलन ताल वृन्द का॥47॥
सु-पक्व पीले फल-पुंज व्याज से।
अनेक बालेंदु स्वअङ्क में उगा।
उड़ा दलों व्याज हरी हरी ध्वजा।
नितांत केला कल-केलि-लग्न था ॥48॥
स्वकीय आरक्त प्रसून-पुंज से।
विहंग भृङ्गादिक को भ्रमा भ्रमा।
अशंकितों सा वन-मध्य था खड़ा।
प्रवंचना-शील विशाल-शाल्मली ॥49॥
बढ़ा स्व-शाखा मिष हस्त प्यार का।
दिखा घने-पल्लव की हरीतिमा।
परोपकारी-जन-तुल्य सर्वदा।
सशोक का शोक अ-शोक मोचता ॥50॥
विमुग्धकारी-सित-पीत वर्ण के।
सुगंध-शाली बहुशः सु-पुष्प से।
असंख्य-पत्रावलि की हरीतिमा।
सुरंजिता थी प्रिय-पारिजात की ॥51॥
समीर-संचालित-पत्र-पुंज में।
स्वगात की मत्तकारी-विभूति से।
विमुग्ध हो विह्वलताभिभूत था।
मधूक शाखी-मधुपान-मत्त सा ।।52॥
प्रकाण्डता थी विभु कीर्त्ति-वर्द्धिनी।
अनंत-शाखा-बहु-व्यापमान थी।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की।
विलोलता-पीपल-पल्लवोद्भवा ॥53॥
असंख्य-न्यारे-फल-पुंज से सजा।
प्रभूत-पत्रावलि में निमग्न सा।
प्रगाढ़ छायाप्रद औ जटा-प्रसू।
विटानुकारी-वट था विराजता ॥54॥
महा-फलों से सजके वनस्थली।
जता रही थी यह बुद्धि-मंत को।
महान-सौभाग्य प्रदान के लिए।
प्रयोगिता है पनसोपयोगिता ।।55 ॥
सदैव देके विष बीज-व्याज से।
स्वकीय-मीठे-फल के समूह को।
दिखा रहा था तरु वृन्द में खड़ा।
स्व-आततायीपन पेड़ आत का ॥56॥
मन्दाक्रान्ता छंद
प्यारे-प्यारे-कुसुम-कुल से शोभमाना अनूठी।
काली नीली हरित रुचि की पत्तियों से सजीली।
फैली सारी वन अवनि में वायु से डोलती थीं। गाजी
नाना-नीला निलय सरसा लोभनीया-लतायें ॥57॥
वंशस्थ छंद
स्व-सेत-आभा-मय दिव्य-पुष्प से।
वसुन्धरा में अति-मुक्त संज्ञका।
विराजती थी वन में विनोदिता।
महान-मेधाविनी-माधवती-लता ॥58॥
ललामता कोमलकान्ति-मानता।
रसालता से निज पत्र-पुंज की।
स्वलोचनों को करती प्रलुब्ध थी।
कासकर प्रलोभनीया-लतिका लवंग की ॥59॥
स-मान थी भूतल में विलुण्ठिता।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु-अंक से।
तमाल के से असितावदात की।
प्रियोपमा श्यामलता प्रियंगु की।60॥
कहीं शयाना महि में स-चाव थी।
विलम्बिता थी तरु-वृन्द में कहीं।
सु-वर्ण-मापी-फल लाभ कामुका।
तपोरता कानन रत्तिका लता।।61।।
सु-लालिमा में फलकी लगी दिखा।
विलोकनीया-कमनीय-श्यामता।
कहीं भली है बनती कु-वस्तु भी।
बता रही थी यह मंजु-गुंजिका ॥62॥
द्रुतविलम्बित छंद
नव निकेतन कांत-हरीतिमा।
जनयिता मुरली-मधु-सिक्त का।
सरसता लसता वन मध्य था।
भरित भावुकता तरु वेणुका ॥63॥
बहु-प्रलुब्ध बना पशु-वृन्द को।
विपिन के तृण-खादक-जन्तु को।
तृण-समा कर नीलम नीलिमा।
मसृण थी तृण-राजि विराजती ।।64॥
तरु अनेक-उपस्कर सज्जिता।
अति-मनोरम-काय अकंटका।
विपिन को करती छविधाम थीं।
कुसुमिता-फलिता-बहु-झाड़ियाँ ॥65॥
शिखरणी छंद
अनूठी आभा से सरस-सुषमा से सुरस से।
बना जो देती थी बहु गुणमयी भू विपिन को।
निराले फूलों की विविध दलवाली अनुपमा।
जड़ी बूटी हो हो बहु फलवती थीं विलसती।66॥
द्रुतविलम्बित छंद
सरसतालय सुंदरता
मुकुर-मंजुल से तरु-पुंज के।
विपिन में सर थे बहु सोहते।
सलिल से लसते मन मोहते ॥67॥
लसित थीं रस-सिंचित वीचियाँ।
सर समूह मनोरम अंक में।
प्रकृति के कर थे लिखते मनों।
कल-कथा जल केलि कलाप की॥68॥
द्युतिमती दिननायक दीप्ति से।
स द्युति वारि सरोवर का बना।
अति-अनुत्तम कांति निकेत था।
कुलिश सा कल-उज्ज्वल-काँच सा॥69॥
परम-स्निग्ध मनोरम-पत्र में।
सु-विकसे जलजात-समूह से।
सर अतीव अलंकृत थे हुए।
लसित थीं दल पै कमलासना॥70॥
विकच-वारिज-पुंज विलोक के।
उपजती उर में यह कल्पना।
सरस भूत प्रफुल्लित नेत्र से।
वन-छटा सर हैं अवलोकते।।71।।
वंशस्थ छंद
सुकूल-वाली कलि-कालिमापहा।
विचित्र-लीला-मय वीचि-संकुला।
विराजमाना बन एक ओर थी।
कलामयी केलिवती-कलिंदजा ॥72॥
अश्वेत साभा सरिता-प्रवाह में।
सु-श्वेतता हो मिलित प्रदीप्ति की।
दिखा रही थी मणि नील-कांति में।
मिली हुई हीरक-ज्योति-पुंज सी ॥73।।
विलोकनीया नभ नीलिमा समा।
नवाम्बुदों की कल-कालिमोपमा।
नवीन तीसी कुसुमोपमेय थी।
कलिंदजा की कमनीय श्यामता ।।74॥
न वास किम्वा विष से फणीश के।
प्रभाव से भूधर के न भूमि के।
नितांत ही केशव-ध्यान-मग्न हो।
पतंगजा थी असितांगिनी बनी ॥75॥
स-बुबुदा फेन-युता सु-शब्दिता।
अनन्त-आवर्त्त-मयी प्रफुल्लिता।
अपूर्वता अंकित सी प्रवाहिता।
तरंगमालाकुलिता कलिंदजा ।।76॥
प्रसूनवाले, फल-भार से नये।
अनेक थे पादप कूल पै लसे।
स्वछायया जो करते प्रगाढ़ थे।
दिनेशजा-अंक-प्रसूत-श्यामता ॥77॥
कभी खिले-फूल गिरा प्रवाह में।
कलिन्दजा को करता स-पुष्प था।
गिरे फलों से फल-शोभिनी उसे।
कभी बनाता तरु का समूह था ॥78॥
विलोक ऐसी तरुवृंद की क्रिया।
विचार होता यह था स्वभावतः।
कृतज्ञता से नत हो स-प्रेम वे।
पतंगजा-पूजन में प्रवृत्त हैं ॥79॥
प्रवाह होता जब वीचि-हीन था।
रहा दिखाता वन-अन्य अंक में।
परंतु होते सरिता तरंगिता।
स-वृक्ष होता वन था सहस्रधा ।।80॥
न कालिमा है मिटती कपाल की।
न बाप को है पड़ती कुमारिका।
प्रतीति होती यह थी विलोक के।
तमोमयी सी तनया-तमारि को ॥81॥
मालिनी छंद
कलित-किरण-माला, बिम्ब-सौंदर्य-शाली।
सु-गगन-तल-शोभी सूर्य का, या शशी को।
जब रवितनया ले केलि में लग्न होती।
छविमय करती थी दर्शकों के दृगों को ॥82॥
वंशस्थ छंद
हरीतिमा का सु-विशाल-सिंधु सा।
मनोज्ञता की रमणीय-भूमि सा।
विचित्रता का शुभ-सिद्ध-पीठ सा।
प्रशांत वृन्दावन दर्शनीय था॥83॥
कलोलकारी खग-वृन्द-कूजिता।
सदैव सानन्द मिलिन्द गुंजिता।
रहीं सुकुंजें वन में विराजिता।
प्रफुल्लिता पल्लविता लतामयी ॥84॥
प्रशस्त-शाखा न समान हस्त के।
प्रसारिता थी उपपत्ति के बिना।
प्रलुब्ध थी पादप को बना रही।
लता समालिंगन लाभ लालसा ॥85॥
कई निराले तरु चारु-अंक में।
लुभावने लोहित पत्र थे लसे ।
सदैव जो थे करते विवर्द्धिता।
स्व-लालिमा से वन की ललामता ॥86॥
प्रसून-शोभी तरु-पुंज-अंक में।
लसी ललामा लतिका प्रफुल्लिता।
जहाँ तहाँ थी वन में विराजिता।
स्मिता-समालिंगित कामिनी समा॥87॥
सुदूलिता थी अति कांत भाव से।
कहीं स-एलालतिका-लवंग को।
कहीं लसी थी महि मंजु अंक में।
सु-लालिता सी नव माधवी-लता॥88॥
समीर संचालित मंद-मंद हो।
कहीं दलों से करता सु-केलि था।
प्रसून-वर्षा रत था, कहीं हिला।
स-पुष्प-शाखा सु-लता-प्रफुल्लिता ॥89॥
कहीं उठाता बहु-मंजु वीचियाँ ।
कहीं खिलाता कलिका प्रसून की।
बड़े अनूठेपन साथ पास जा।
कहीं हिलाता कमनीय-कंज था ॥90॥
अश्वेत ऊदे अरुणाभ बैंगनी।
हरे अबीरी सित पीत संदली।
विचित्र-वेशी बहु अन्य वर्ण के।
विहंग से थी लसिता वनस्थली ॥91॥
विभिन्न-आभा तरु रंग रूप के।
विहंगमों का दल व्योम-पंथ हो।
स-मोद आता जब था दिगंत से।
विशेष होता वन का विनोद था ॥92॥
स-मोद जाते जब एक पेड़ से।
द्वितीय को तो करते विमुग्ध थे।
कलोल में हो रत मंजु-बोलते।
विहंग नाना रमणीय रंग के।।93॥
छटामयी कान्तिमती मनोहरा।
सु-चन्द्रिका से निज-नील पुच्छ के।
सदा बनाता वन को मनोज्ञ था।
कलापियों का कुल केकिनी लिए ॥94॥
कहीं शकों का दल बैठ पेड़ की।
फली-सु-शाखा पर केलि-मत्त हो।
अनके-मीठे-फल खा कदंश को।
गिरा रहा भू पर था प्रफुल्ल हो ॥95॥
कहीं कपोती स्व-कपोत को लिए।
विनोदिता हो करती विहार थी।
कहीं सुनाती निज-कंत साथ थी।
स्व-काकली को कल कंठ-कोकिला ॥96॥
कहीं महा-प्रेमिक था पपीहरा।
कथा-मयी थी नव शारिका कहीं।
कहीं कला-लोलुप थी चकोरिका।
अलामता-आलय-लाल थे कहीं॥97॥
महा-कदाकार बड़े-भयावने।
सुहावने सुंदरता-निकेत से।
वनस्थली में पशु-वृन्द थे घने।
अनेक लीला-मय औ लुभावने ॥98।।
नितान्त-सारल्य-मयी सुमूत्ति में।
मिली हुई कोमलता सु-लोमता।
किसे नहीं थी करती विमोहिता।
सदंगता-सुंदरता-कुरंग की॥99॥
असेत-आँखें खनि-भूरि भाव की।
सुगीत न्यारी-गति की मनोज्ञता।
मनोहरा थी मृग-गात-माधुरी।
सुधारियों अंकित नाति-पीतता ॥100॥
असेत-रक्तानन-वान ऊधमी।
प्रलम्ब-लांगूल विभिन्न-लोम के।
कहीं महा-चंचल क्रूर कौशली।
असंख्य-शाखा-मृग का समूह था ॥101॥
कहीं गठीले-अरने अनेक थे।
स-शंक भूरे-शशकादि थे कहीं।
बड़े घने निर्जन-वन्य-भूमि में।
विचित्र-चीते चल-चक्षु थे कहीं ॥102॥
सुहावने पीवर-ग्रीव साहसी।
प्रमत्त-गामी पृथुलांग-गौरवी।
वनस्थली मध्य विशाल-बैल थे।
बड़े-बली उन्नत-वक्ष विक्रमी ॥103॥
दयावती पुण्य भरी पयोमयी।
सु-आनना सौम्य-दृगी समोदरा।
वनान्त में थीं सुरभी सुशोभिता।
सधी सवत्सा-सरलातिज्सुन्दरी॥104॥
अतीव-प्यारे मृदुता-सुमूर्ति से।
नितान्त-भोले चपलांग ऊधमी।
वनान्त में थे बहु वत्स कूदते।
लुभावने कोमल-काय कौतुकी ॥105॥
बसन्ततिलका छंद
जो राज पंथ वन-भूतल में बना था।
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे।
ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी ॥106॥
परंतु वे पपदप में प्रसून में।
फलों दलों वेलि-लता समूह में।
सरोवरों में सरि में सु-मेरु में।
खगों मृगों में वन में निकुञ्ज में ॥107॥
बसी हुई एक निगूढ़-खिन्नता।
विलोकते थे निज-सूक्ष्म-दृष्टि से।
शनैः शनैः जो बहु गुप्त रीति से।
रही बढ़ाती उर की विरक्ति को ॥108॥
प्रशस्त शाखा तरु-वृन्द की उन्हें ।
प्रतीत होती उस हस्त तुल्य थी।
स-कामना जो नभ ओर हो उठा।
विपन्न-पाता-परमेश के लिए ॥109॥
कलिन्दजा के सु-प्रवाह की छटा।
विहंग-क्रीड़ा कल नाद-माधुरी।
उन्हें बनाती न अतीव मुग्ध थी।
ललामता-कुंज-लता-वितान की॥100॥
सरोवरों को सुषमा स-कंजता।
सु-मेरु औ निर्झर आदि रम्यता।
न थी यथातथ्य उन्हें विमोहती।
अनन्त-सौंदर्य-मयी वनस्थली ॥111॥
मन्दाक्रान्ता छंद
कोई कोई विटप फल थे बारहो मास लाते।
आँखों द्वारा असमय फले देख ऐसे द्रुमों को।
ऊधो होते भ्रम पतित थे किंतु तत्काल ही वे।
शंकाओं को स्व-मति बल औ ज्ञान से थे हटाते ॥112॥
वंशस्थ छंद
उसी दिशा से जिस ओर दृष्टि थी।
विलोक आता रथ में स-सारथी।
किसी किरीटी पट-पीत-गौरवी।
सु-कुण्डली श्यामल-काय पान्थ को ॥113॥
अतीव-उत्कण्ठित ग्वालबाल हो।
स-वेग जाते रथ के समीप थे।
परंतु होते अति ही मलीन थे।
न देखते थे जब वे मुकुन्द को॥114॥
अनेक गायें तृण त्याग दौड़ती।
सवत्स जती वर-यान पास थीं।
परंतु पाती जब थीं न श्याम को।
विषादिता हो पड़ती नितान्त थीं॥115॥
अनेक-गायों बहु-गोप-बाल की।
विलोक ऐसी करुणामयी-दशा।
बड़े-सुधी-ऊधव चित्त मध्य भी।
स-खेद थी अंकुरिता अधीरता ॥116॥
समीप ज्यों ज्यों हरि-बंधु यान के।
सगोष्ठ था गोकुल ग्राम आ रहा।
उन्हें दिखाता निज-गूढ़ रूप था।
विषाद त्यों त्यों बहु-मूर्ति-मन्त हो॥117॥
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते ।
स-धेनु आते गृह ग्वाल-बाल थे।
दिगन्त में गोरज थी विराजिता।
विषाण नाना बजते स-वेणु थे॥118॥
खड़े हुए थे पथ गोप देखते।
स्वकीय-नाना-पशु-वृन्द का कहीं।
कहीं उन्हें थे गृह-मध्य बाँधते ।
बुला बुला प्यार उपेत कंठ से ॥119॥
घड़े लिए कामिनियाँ, कुमारियाँ ।
अनेक-कूपों पर थीं सुशोभिता।
पधारती जो जल ले स्व-गेह थीं।
बजा बजा के निज नूपुरादि को ॥120॥
कहीं जलाते जन गेह-दीप थे।
कहीं खिलाते पशु को स-प्यार थे।
पिला पिला चंचल-वत्स को कहीं।
पयस्विनी से पथ थे निकालते ॥121॥
मुकुन्द की मंजुल कीर्ति गान की।
मची हुई गोकुल मध्य धूम थी।
स-प्रेम गाती जिसको सदैव थी।
अनेक-कर्माकुल प्राणि-मण्डली 122॥
हुआ इसी काल प्रवेश ग्राम में।
शनैः शनैः ऊधव-दिव्य यान का।
विलोक आता जिसको, समुत्सुका।
वियोग-दग्धा-जन-मण्डली हुई ।।123॥
जहाँ लगा जो जिस कार्य में रहा।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा।
विलोकने को घन-श्याम-माधुरी ॥124॥
विलोकते जो पशु-वृन्द पन्थ थे।
तजा उन्होंने पथ का विलोकना।
अनेक दौड़े तज धेनु बाँधना।
अवाधिता पावस आपगोपमा॥125॥
रहे खिलाते पशु धेनु-दूहते।
प्रदीप जो थे गृह-मध्य बालते।
अधीर हो वे निज-कार्य्य त्याग के।
स-वेग दौड़े वदनेन्दु देखने॥126॥
निकालती जो जल कूप से रही।
स रज्जु सो भी तज कूप में घड़ा।
अतीव हो आतुर दौड़ती गई।
ब्रजांगना-वल्लभ को विलोकने ॥127॥
तजा किसीने जल से भरा घड़ा।
उसे किसीने शिर से गिरा दिया।
अनेक दौड़ी सुधि गात की गँवा।
सरोज सा सुंदर श्याम देखने ॥128।।
वयस्क बूढ़े पुर-बाल बालिका।
सभी समुत्कण्ठित औ अधीर हो।
स-वेग आये ढिग मंजु यान के।
स्व-लोचनों की निधि-चारु लूटने ॥129॥
उमंग-डूबी अनुराग से भरी।
विलोक आती जनता समुत्सुका।
पुनः उसे देख हुई प्रवंचिता।
महा-मलीना विमनाति-कष्टिता ।।130।।
अधीर होने हरि-बंधु भी लगे।
तथापि वे छोड़ सके न धीर को।
स्व-यान को त्याग लगे प्रबोधने।
समागतों को अति-शांत भाव से ॥131॥
बसंततिलका छंद
यों ही प्रबोध करते पुरवासियों का।
प्यारी-कथा परम-शांत-करी सुनाते।
आये ब्रजाधिप-निकेतन पास ऊधो।
पूरा प्रसार करती करुणा जहाँ थी 132॥
मालिनी छंद
करुण-नयन वाले खिन्न उद्विग्न ऊबे।
नृपति सहित प्यारे बंधु औ सेवकों के।
सुअन-सुहृद-ऊधो पास आये यहाँ ही।
फिर सदन सिधारे वे उन्हें साथ लेके ॥133॥
सुफलक-सुत ऐसा ग्राम में देख आया।
यक जन मथुरा ही से बड़ा-बुद्धिशाली।
समधिक चित-चिंता गोपजों में समाई।
सब-पुर-उर शंका से लगा व्यग्र होने ॥134॥
पल पल अकुला के दीर्घ-संदिग्ध होके।
विचलित-चित से थे सोचते ग्रामवासी।
वह परम अनूठे-रत्न आ ले गया था।
अब यह ब्रज आया कौन सा रत्न लेने ॥135॥
दशम सर्ग
द्रुतविलम्बित छंद
त्रि-घटिका रजनी गत थी हुई।
सकल गोकुल नीरव-प्राय था।
ककुभ व्योम समेत शनैः शनैः।
तमवती बनती ब्रज-भूमि थी॥1॥
ब्रज-धराधिप मौन-निकेत भी।
बन रहा अधिकाधिक-शांत था।
तिमिर भी उसके प्रति-भाग में।
स्व-विभुता करता विधि-बद्ध था ॥2॥
हरि-सखा अवलोकन-सूत्र से।
ब्रज-रसापति-द्वार-समागता।
अब नहीं दिखला पड़ती रही।
गृह-गता-जनता अति शंकिता ॥3॥
सकल-श्रांति गँवा कर पंथ की।
कर समापन भोजन की क्रिया।
हरि सखा अधुना उपनीत थे।
द्युति-भरे-सुथरे-यक-सद्म।।4।।
कृश-कलेवर चिन्तित व्यस्त धी।
मलिन आनन खिन्नमना दुखी।
निकट ही उनके ब्रज-भूप थे।
विकलताकुलता-अभिभूत से॥5॥
मन्दाक्रान्ता छंद
आवेगों से विपुल विकला शीर्ण काया कृशांगी।
चिन्ता-दग्धा व्यथित-हृदया शुष्क-ओष्ठा अधीरा ।
आसीना थीं निकट पति के अम्बु-नेत्रा यशोदा।
खिन्ना दीना विनत-वदना मोह-मग्ना मलीना ।।6।।
द्रुतविलम्बित छंद
अति-जरा विजिता बहु-चिन्तिता।
विकलता-ग्रसिता सुख-वंचिता।
सदन में कुछ थीं परिचारिका।
अधिकृता-कृशता-अवसन्नता ।।7।।
मुकुर उज्ज्वल-मंजु निकेत में।
मलिनता-अति थी प्रतिविम्बिता।
परम-नीरसता-सह-आवृता।
सरसता-शुचिता-युत-वस्तु थी॥8॥
परम आदर - पूर्वक प्रेम से।
विपुल-बात वियोग-व्यथा-हरी।
हरि-सखा कहते इस काल थे।
बहु दुखी अ-सुखी ब्रज-भूप से॥9॥
विनय से नय से भय से भरा।
कथन ऊधव का मधु में पगा।
श्रवण थीं करती वन उत्सुका।
कलपती-कँपती ब्रजपांगना 10॥
निपट-नीरव-गेह न था हुआ।
वरन हो वह भी बहु-मौन ही।
श्रवण था करता बलवीर की।
सुखकरी कथनीय गुणावली ॥11॥
मालिनी छंद
निज मथित-कलेजे को व्यथा साथ थामे।
कुछ समय यशोदा ने सुनी सर्व-बातें।
फिर बहु विमना हो व्यस्त हो कंपिता हो।
निज-सुअन-सखा से यों व्यथा-साथ बोली ।।12 ||
मन्दाक्रान्ता छंद
प्यासा-प्राणी श्रवण करके वारि के नाम ही को।
क्या होता है पुलकित कभी जो उसे पी न पावे।
हो पाता है कब तरणि का नाम है त्राण-कारी।
नौका ही है शरण जल में मग्न होते जनों की ॥13॥
रोते रोते कुँवर-पथ को देखते देखते ही।
मेरी आँखें अहह अति ही ज्योति-हीना हुई हैं।
कैसे ऊधो भव-तम-हरी ज्योति वे पा सकेंगी।
जो देखेंगी न मृदु-मुखड़ा इन्दु-उन्माद-कारी॥14॥
सम्वादों से श्रवण-पुट भी पूर्ण से हो गये हैं।
थोड़ा छूटा न अब उनमें स्थान सन्देश का है
सायं प्रायः प्रति-पल यही एक-वांछा उन्हें है।
प्यारी-बातें मधुर-मुख की मुग्ध हो क्यों सुनें वे॥5॥
ऐसे भी थे दिवस जब थी चित्त में वृद्धि पाती।
सम्वादों को श्रवण करके कष्ट उन्मूलनेच्छा।
ऊधो बीते दिवस अब वे, कामना है बिलीना।
भोले भाले विकच मुख की दर्शनोत्कण्ठता में ॥16॥
प्यासे की है न जल-कण से दूर होती पिपासा।
बातों से है न अभिलषिता शान्ति पाता वियोग।
कष्टों में अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाता।
जो होती है तदुपरि व्यथा सो महा दुर्भगा है ॥17॥
मालिनी छंद
सुत सुखमय स्नेहों का समाधार सा है।
सदय हृदय है औ सिंधु सौजन्य का है।
सरल प्रकृति का है शिष्ट है शांत धी है।
वह बहु विनयी, है 'मूर्ति' आत्मीयता की ।।18।।
तुम सम मृदुभाषी धीर सबंधु ज्ञानी।
उस गुण-मय का है दिव्य सम्वाद लाया।
पर मुझ दुख-दग्धा भाग्यहीनांगना की।
यह दुख-मय-दोषा वैसि ही है स-दोषा ॥19॥
हृदय-तल दया के उत्स-सा श्याम का है।
वह पर-दुख को था देख उन्मत्त होता।
प्रिय-जननि उसीकी आज है शोक-मग्ना।
वह मुख दिखला भी क्यों न जाता उसे है ॥20॥
मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है।
नव-किशलय-सा है स्नेह के वत्स-सा है।
सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही।
अहह हृदय माँ-सा स्निग्ध तो भी नहीं है ।।21।।
कर निकर सुधा से सिक्त राका शशी के।
प्रतपित कितने ही लोक को हैं बनाते।
विधि-वश दुख-दाई काल के कौशलों से।
कलुषित बनती है स्वच्छ-पीयूष-धारा ॥22॥
मन्दाक्रान्ता छंद
मेरे प्यारे स-कुशल सुखी और सानन्द तो हैं।
कोई चिन्ता मलिन उनको तो नहीं है बनाती।
ऊधो छाती बदन पर है म्लानता भी नहीं तो? ।
जी जाती है हृदयतल में तो नहीं वेदनायें? ॥23।।
मीठे-मेवे मृदुल नवनी औरी पक्वान्न नाना।
उत्कण्ठा के सहित सुत को कौन होगी खिलाती।
प्रातः पीता सु-पथ कजरी गाय का चाव से था।
हा! पाता है न अब उसको प्राण-प्यारा हमारा ॥24॥
संकोची है अति सरल है धीर है लाल मेरा।
होती लज्जा अमित उसको माँगने में सदा थी।
जैसे ले के स-रुचि सुत को अंक में मैं खिलाती।
हा! वैसी ही अब नित खिला कौन माता सकेगी ॥25॥
मैं थी सारा-दिवस मुख को देखते ही बिताती।
हो जाती थी व्यथित उसको म्लान जो देखती थी।
हा! ऐसे ही अब वदन को देखती कौन होगी।
ऊधो माता-सदृश ममता अन्य की है न होती ॥26॥
खाने पीने शयन करने आदि की एक-बेला।
जो जाती थी कुछ टल कभी तो बड़ा खेद होता।
ऊधो ऐसी दुखित उसके हेतु क्यों अन्य होगी।
माता की सी अवनितल में है अ-माता न होती॥27॥
जो पाती हूँ कुँवर-मुख के जोग मैं भोग-प्यारा।
तो होती हैं हृदय-तल में वेदनायें-बड़ी ही।
जो कोई भी सु-फल सुत के योग्य मैं देखती हूँ।
हो जाती हूँ परम-व्यथिता, हूँ महादग्ध होती ॥28॥
जो लाती थीं विविध-रँग के मुग्धकारी खिलौने।
वे आती हैं सदन अब भी कामना में पगी सी।
हा! जाती हैं पलट जब वे हो निराशा-निमग्ना।
तो उन्मत्ता-सदृश पथ की ओर मैं देखती हूँ ॥29॥
आते लीला निपुण-नट हैं आज भी बाँध आशा।
कोई यों भी न अब उनके खेल को देखता है।
प्यारे होते मुदित जितने कौतुकों से सदा ही।
वे आँखों में विषम-दव हैं दर्शकों के लगाते ॥30॥
प्यारा खाता रुचिर नवनी को बड़े चाव से था।
खाते खाते पुलक पड़ता नाचता कूदता था।
ए बातें हैं सरस नवनी देखते याद आती।
हो जाता है मधुरतर औ स्निग्ध भी दग्धकारी॥31॥
हा! जो वंशी सरस रव से विश्व को मोहती थी।
सो आले में मलिन वन औ मूक हो के पड़ी है।
जो छिद्रों से अमृत बरसा मूर्ति थी मुग्धता की।
सो उन्मत्ता परम-विकला उन्मना है बनाती ।।32॥
प्यारे ऊधो सुरत करता लाल मेरी कभी है?।
क्या होता है न अब उसको ध्यान बूढ़े-पिता का।
रो. रो हो हो विकल अपने वार जो हैं बिताते।
हा! वे सीधे सरल-शिशु हैं क्या नहीं याद आते ॥33॥
कैसे भूली सरस-खनि सी प्रीति की गोपिकायें।
कैसे भूले सुहृदपन के सेतु से गोपग्वाले।
शान्ता धीरा मधुरहृदया प्रेम-रूपा रसज्ञा ।
कैसे भूली प्रणय-प्रतिमा-राधिका मोहमग्ना ॥34॥
कैसे वृन्दा-विपिन बिसरा क्यों लता-वेलि भूली।
कैसे जी से उतर ब्रज की कुञ्ज-पुंजे गई हैं।
कैसे फूले विपुल-फल से नम्र भूजात भूले।
कैसे भूला विकच-तरु सो अर्कजा-कूल वाला॥35॥
सोती सोती चिहुँक कर जो श्याम को है बुलाती।
ऊधो मेरी यह सदन की शारिका कांत-कण्ठा।
पाला पोसा प्रति-दिन जिसे श्याम ने प्यार से है।
हा! कैसे सो हृदय-तल से दूर यों हो गई है॥36॥
जा कुञ्जों में प्रति-दिन जिन्हें चाव से था चराया।
जो प्यारी थीं ब्रज-अवनि के लाडिले को सदा ही।
खिन्ना, दीना, विकल वन में आज जो घूमती हैं।
ऊधो कैसे हृदय-धन को हाय! वे धेनु भूलीं ॥37॥
ऐसा प्रायः अब तक मुझे नित्य ही है जनाता।
गो गोपों के सहित वन से सद्म है श्याम आता।
यों ही आ के हृदय-तल को बेधता मोह लेता।
मीठा-वंशी-सरस-रव है कान से गूंज जाता ॥38॥
रोते-रोते तनिक लग जो आँख जाती कभी है।
हा! त्योंही मैं दृग-युगल को चौंक के खोलती हूँ।
प्रायः ऐसा प्रति-रजनि में ध्यान होता मुझे है।
जैसे आ के सुअन मुझको प्यार से है जगाता ॥39॥
ऐसा ऊधो प्रति-दिन कई बार है ज्ञात होता।
कोई यों है कथन करता लाल आया तुम्हारा।
भ्रान्ता सी मैं अब तक गई द्वार पै बार लाखों।
हा! आँखों से न वह बिछुड़ी-श्यामली-मूर्ति देखी ॥40॥
फूले-अंभोज सम दृग से मोहते मानसों को।
प्यारे-प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते।
ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय! होती मुझे है।
जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरों से॥41॥
आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल मेरा।
लीलायें था विविध करता धूम भी था मचाता।
ऊधो बातें न यक पल भी हाय ! वे भूलती हैं।
हा! छा जाता दृग-युगल में आज भी सो समाँ है॥42॥
me मैं हाथों से कुटिल-अलकें लाल की थी बनाती।
पुष्पों को थी श्रुति-युगल के कुण्डलों में सजाती।
मुक्ताओं को शिर मुकुट में मुग्ध हो थी लगाती।
पीछे शोभा निरख मुख की थी न फूले समाती ॥43॥
मैं प्रायः ले कुर्कलिका चाव से थी बनाती।
शोभा-वाले विविध गजरे क्रीट औ कुण्डलों को।
पीछे हो हो सुखित उनको श्याम को थी पिन्हाती।
औ उत्फुल्ला ग्रथित-कलिका तुल्य थी पूर्ण होती ॥44॥
पैन्हे-प्यारे-वसन कितने दिव्य-आभूषणों को।
प्यारी-वाणी विहँस कहते पूर्ण-उत्फुल्ल होते।
शोभा-शाली-सुअन जब था खेलता मन्दिरों में।
तो पा जाती अमरपुर की सर्व सम्पत्ति मैं थी।45।।
होता राका-शशि उदय था फूलता पद्म भी था।
प्यारी-धारा उमग बहती चारु-पीयूष की थी।
मेरा प्यारा तनय जब था, गेह में नित्य ही तो।
वंशी-द्वारा मधुर-तर था स्वर्ग-संगीत होता ।।46॥
ऊधो मेरे दिवस अब वे हाय! क्या हो गये हैं।
हा! यो मेरे सुख-सदना को कौन क्यों है गिराता।
वैसे प्यारे-दिवस अब मैं क्या नहीं पा सकूँगी।
हा! क्या मेरी न अब दुख की यामिनी दूर होगी ।।47॥
ऊधो मेरा हृदय-तल था एक उद्यान-न्यारा।
शोभा देती अमित उसमें कल्पना-क्यारियाँ थीं।
न्यारे-प्यारे-कुसुम कितने भाव के थे अनेकों।
उत्साहों के विपुल-विटपी थे महा मुग्धकारी ॥48॥
सच्चिन्ता की सरस-लहरी-संकुला-वापिका थी।
नाना चाहें कलित-कलियाँ थीं लतायें उमंगें।
धीरे धीरे मधुर हिलती वासना-वेलियाँ थीं।
सद्वांछा के विहग उसके मंजु-भाषी बड़े थे॥49॥
भोला-भाला मुख सुत-वधू-भाविनी का सलोना।
प्रायः होता प्रकट उसमें फुल्ल-अम्भोज-सा था।
बेटे द्वारा सहज-सुख के लाभ की लालसायें।
हो जाती थीं विकच बहुधा माधवी-पुष्पिता सी ॥50॥
प्यारी-आशा-पवन जब थी डोलती स्निग्ध हो के।
तो होती थीं अनुपम-छटा बाग के पादपों की।
हो जाती थीं सकल लतिका-वेलियाँ शोभनीया।
सद्भावों के सुमन बनते थे बड़े सौरभीले ॥51॥
राका-स्वामी सरस-सुख की दिव्य-न्यारी-कलायें।
कधीरे धीरे पतित जब थीं स्निग्धता साथ होतीं।
तो आभा में अतुल-छवि में औ मनोहारिता में।
हो जाता सो अधिकतर था नन्दनोद्यान से भी ॥52॥
ऐसा प्यारा-रुचिर रस से सिक्त उद्यान मेरा।
मैं होती हूँ व्यथित कहते आज है ध्वंस होता।
सूखे जाते सकल-तरु हैं नष्ट होती लता है।
निष्पुष्पा हो विपुल-मलिना वेलियाँ हो रही हैं ।।53।।
प्यारे-पौधे कुसुम-कुल के पुष्प ही हैं न लाते।
भूले जाते विहग अपनी बोलियाँ हैं अनूठी।
हा! जावेगा उजड़ अति ही मंजु-उद्यान मेरा।
जो सींचेगा न घन-तन आ स्नेह-सद्वारि-द्वारा ॥54।।
ऊधो आदौ तिमिर-मय था भाग्य-आकाश मेरा।
धीरे-धीरे फिर वह हुआ स्वच्छ सत्कान्ति-शाली।
ज्योतिर्माला-बलित उसमें चन्द्रमा एक न्यारा।
राका श्री ले समुदित हुआ चित्त-उत्फुल्ल-कारी ॥55॥
आभा-वाले उस गगन में भाग्य दुर्वृत्तता की।
काली काली अब फिर घटा है महा-घोर छाई।
हा! आँखों से सु-विधु जिससे हो गया दूर मेरा।
ऊधो कैसे यह दुख-मयी मेघ माला टलेगी॥56।।
फूले-नीले-वनज-दल सा गात का रंग-प्यारा।
मीठी-मीठी मलिन मन की मोदिनी मंजु-बातें।
सोंधे-डूबी-अलक यदि है श्याम की याद आती।
ऊधो मेरे हृदय पर तो साँप है लोट जाता ।।57॥
पीड़ा-कारी-करुण-स्वर से हो महा-उन्मना सी।
हा रो रो के स-दुख जब यों शारिका पूछती है।
वंशीवाला हृदय-धन सो श्याम मेरा कहाँ है।
तो है मेरे हृदय-तल में शूल सा विद्ध होता ॥58॥
त्यौहारों को अपर कितने पर्व औ उत्सवों को।
मेरा प्यारा-तनय अति ही भव्य देता बना था।
आते हैं वे ब्रज-अवनि में आज भी किंतु ऊधो।
दे जाते हैं परम दुख औ वेदना हैं बढ़ाते ॥59॥
कैसा-प्यारा जनम दिन था धूम कैसी मची थी।
संस्कारों के समय सुत के रंग कैसा जमा था।
मेरे जी में उदय जब वे दृश्य हैं आज होते।
हो जाती तो प्रबल-दुख से मूर्ति मैं हूँ शिला की ।।60॥
कालिंदी के पुलिन पर की मंजु-वृंदाटवी की।
फूले नीले--तरु निकर की कुंज की आलयों को।
प्यारी-लीला-सकल जब हैं लाल याद आती।
तो कैसा है हृदय मलता मैं उसे क्यों बताऊँ ॥61॥
मारा मल्लों-सहित गज को कंस से पातकी को।
मेटी सारी नगर-वर की दानवी-आपदायें।
छाया सच्चा-सुयश जग में पुण्य की बेलि बोई।
जो प्यारे ने स-पति दुखिया-देवकी को छुड़ाया॥62॥
जो होती है सुरत उनके कम्प-कारी दुखों की।
तो आँसू है विपुल बहता आज भी लोचनों से।
ऐसी दग्धा परम-दुखिता जो हुई मोदिता है।
ऊधो तो हूँ पर सुखिता हर्षिता आज मैं भी॥63॥
तो भी पीड़ा-परम इतनी बात से हो रही है।
काढ़े लेती मम-हृदय क्यों स्नेह-शीला सखी है।
यि हो जाती हूँ मृतक सुनती हाय! जो यों कभी हूँ।
होता जाता मम तनय भी अन्य का लाडिला है ।।64॥
मैं रोती हूँ हृदय अपना कूटती हूँ सदा ही।
हा! ऐसी ही व्यथित अब क्यों देवकी को करूंगी।
प्यारे जीवें पुलकित रहें औ बनें भी उन्हींके।
धाई नाते वदन दिखला एकदा और देवें।।65॥
नाना यत्नों अपर कितनी युक्तियों से जरा में।
मैंने ऊधो ! सुकृति बल से एक ही पुत्र पाया।
सो जा बैठा अरि-नगर में हो गया अन्य का है।
मेरी कैसी, अहह कितनी, मर्म-वेधी व्यथा है ॥66॥
पत्रों पुष्पों रहित विटपी विश्व में हो न कोई।
कैसी ही हो सरस सरिता वारि-शून्या न होवे।
ऊधो सीपी-सदृश न कभी भाग फूटे किसी का।
मोती ऐसा रतन अपना आह! कोई न खोवे ।।67॥
अंभोजों से रहित न कभी अंक हो वापिका का।
कैसी ही हो कलित-लतिका पुष्प-हीना न होवे।
जो प्यारा है परम-धन है जीवनाधार जो है।
ऊधो ऐसे रुचिर-विटपी शून्य वाटी न होवे ॥68॥
छीना जावे लकुट न कभी वृद्धता में किसी का।
ऊधो कोई न कल-छल से लाल ले ले किसी का।
पूँजी कोई जनम भर की गाँठ से खो न देवे।
सोने का भी सदन न बिना दीप के हो किसी का।।69॥
उद्विग्ना औ विपुल-विकला क्यों न सो धेनु होगी।
प्यारा लैरू अलग जिसकी आँख से हो गया है।
ऊधो कैसे व्यथित-अहि सो जी सकेगा बता दो।
जीवोन्मेषी रतन जिसके शीश का खो गया है ।।70।।
कोई देखे न सब-जग के बीच छाया अँधेरा।
ऊधो कोई न निज-दृग की ज्योति-न्यारी गँवावे।
रो रो हो हो विकल न सभी वार बीतें किसी के।
पीड़ायें हों सकल न कभी मर्म-वेधी व्यथा हो ॥71॥
ऊधो होता समय पर जो चारु चिन्ता-मणी है।
खो देता है तिमिर उर को जो स्वकीया प्रभा से।
जो जी में है सुरसरित सी स्निग्ध-धारा बहाता।
बेटा ही है अवनि-तल में रत्न ऐसा निराला ।।72॥
ऐसा प्यारा रतन जिसका हो गया है पराया।
सो होवेगी व्यथित कितना सोच जी में तुम्हीं लो।
जो आती हो मुझ पर दया अल्प भी तो हमारे।
सूखे जाते हृदय-तल में शान्ति-धारा बहा दो ॥73॥
छाता जाता ब्रज-अवनि में नित्य ही है अँधेरा।
जी में आशा न अब यह है कि मैं सुखी हो सकूँगी।
हाँ, इच्छा है तदपि इतनी एकदा और आके।
न्यारा-प्यारा-वदन अपना लाल मेरा दिखा दे ।।74।।
मैंने बातें यदिच कितनी भूल से की बुरी हैं।
ऊधो बाँधा सुअन कर है आँख भी है दिखाई।
मारा भी है कुसुम-कलिका से कभी लाडिले को।
तो भी मैं हूँ निकट सुत के सर्वथा मार्जनीया ॥75॥
जो चूके हैं विविध मुझसे हो चुकीं वे सदा ही।
पीड़ा दे दे मथित चित को प्रायशः हैं सताती।
प्यारे से यों विनय करना वे उन्हें भूल जावें।
मेरे जी को व्यथित न करें क्षोभ आ के मिटावें ।।76।।
खेलें आ के दृग युगल के सामने मंजु-बोलें।
प्यारी लीला पुनरपि करें गान मीठा सुनावें।
मेरे जी में अब रह गई एक ही कामना है।
आ के प्यारे कुँवर उजड़ा गेह मेरा बसावें ॥77।।
जो आँखें हैं उमग खुलती ढूँढ़ती श्याम को हैं।
लौ कानों को मुरलिधर की तान ही की लगी है।
आती सी है यह ध्वनि सदा गात-रोमावली से।
मेरा प्यारा सुअन ब्रज में एकदा और आवे॥78।।
मेरी आशा नवल-लतिका थी बड़ी ही मनोज्ञा ।
नीले-पत्ते सकल उसके नीलमों के बने थे।
हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमेदकों के।
पन्नों द्वारा रचित उसकी सुन्दरी डंठियाँ थीं ॥79॥
ऐसी आशा-ललित-लतिका हो गई शुष्क-प्राया।
सारी शोभा सु-छवि-जनिता नित्य है नष्ट होती।
जो आवेगा न अब ब्रज में श्याम-सत्कान्ति-शाली।
होगी हो के विरस वह तो सर्वथा छिन्न-मूला॥80॥
लोहू मेरे दृग-युगल से अश्रु की ठौर आता।
रोयें रोयें सकल-तन के दग्ध हो छार होते।
आशा होती न यदि मुझको श्याम के लौटने की।
मेरा सूखा-हृदयतल तो सैकड़ों खंड होता ॥81॥
चिंता-रूपी मलिन निशि की कौमुदी है अनूठी।
मेरी जैसी मृतक बनती हेतु संजीवनी है।
नाना-पीड़ा-मथित-मन के अर्थ है शांति-धारा
आशा मेरे हृदय-मरु की मंजु-मंदाकिनी है ॥82॥
ऐसी आशा सफल जिससे हो सके शांति पाऊँ।
ऊधो मेरी सब-दुख-हरी-युक्ति-नारी वही है।
प्राणाधारा अवनि-तल में है यही एक आशा
मैं देखूगी पुनरपि वही श्यामली मूर्ति आँखों ॥83॥
पीड़ा होती अधिकतर है बोध देते जभी हो।
संदेशों से व्यथित चित है और भी दग्ध होता।
जैसे प्यारा-वदन सुत का देख पाऊँ पुनः मैं।
ऊधो हो के सदय मुझको यत्न वे ही बता दो।।84।।
प्यारे-ऊधो कब तक तुम्हें वेदनायें सुनाऊँ।
मैं होती हूँ विरत यह हूँ किंतु तो भी बताती।
जो टूटेगी कुँवर-वर के लौटने की सु-आशा।
तो जावेगा उजड़ ब्रज औ मैं न जीती बनूँगी ॥85॥
सारी बातें श्रवण करके स्वीय-अर्धांगिनी की।
जिनी धीरे बोले ब्रज-अवनि के नाथ उद्विग्न हो के।
जैसी मेरे हृदय-तल में वेदना हो रही है।
ऊधो कैसे कथन उसको मैं करूँ क्यों बताऊँ ॥86॥
छाया भू में निविड़-तम था रात्रि थी अर्द्ध बीती।
ऐसे बेले भ्रम-वश गया भानुजा के किनारे।
जैसे पैठा तरल-जल में स्नान की कामना से।
वैसे ही मैं तरणि-तनया-धार के मध्य डूबा ॥87॥
साथी रोये विपुल-जनता ग्राम से दौड़ आई।
तो भी कोई सदय बन के अर्कजा में न कूदा।
जो क्रीड़ा में परम-उमड़ी आपगा पैर जाते।
वे भी सारा-हृदय-बल खो त्याग वीरत्व बैठे॥88॥
जो स्नेही थे परम-प्रिय थे प्राण जो वार देते।
वे भी हो के त्रसित विविधा-तर्कना मध्य डूबे।
राजा हो के न असमय में पा सका मैं सु-साथी।
कैसे ऊधो कु-दिन अवनी-मध्य होते बुरे हैं ॥89॥
मेरे प्यारे कुँवर-वर ने ज्यों सुनी कष्ट-गाथा।
दौड़े आये तरणि-तनया-मध्य तत्काल कूदे।
यत्नों-द्वारा पुलिन पर ला प्राण मेरा बचाया।
कर्तव्यों से चकित करके कूल के मानवों को ॥90॥
पूजा का था दिवस जनता थी महोत्साह-मग्ना।
ऐसी बेला मम-निकट आ एक मोटे फणी ने।
मेरा दायाँ-चरण पकड़ा मैं कँपा लोग दौड़े।
तो भी कोई न मम-हित की युक्ति सूझी किसी को ॥91॥
दौड़े आये कुँवर सहसा औ कई-उल्मकों से।
नाना ठौरों वपुष-अहि का कौशलों से जलाया।
ज्योंही छोड़ा चरण उसने त्यों उसे मार डाला।
पीछे नाना-जतन करके प्राण मेरा बचाया॥92॥
जैसे जैसे कुँवर-वर ने हैं किये कार्य-न्यारे।
वैसे ऊधो न कर सकते हैं महा-विक्रमी भी।
जैसी मैंने गहन उनमें बुद्धि-मत्ता विलोकी।
वैसी वृद्धों प्रथित-विवुधों मंत्रदों में न देखी ॥93॥
मैं ही होता चकित न रहा देख कार्यावली को।
जो प्यारे के चरित लखता, मुग्ध होता वही था।
मैं जैसा ही अति-सुखित था लाल पा दिव्य ऐसा।
वैसा ही हूँ दुखित अब मैं काल-कौतूहलों से॥94॥
क्यों प्यारे ने सदय बन के डूबने से बचाया।
जो यों गाढ़े-विरह-दुख के सिन्धु में था डुबोना।
तो यत्नों से उरग-मुख के मध्य से क्यों निकाला।
चिन्ताओं से ग्रसित यदि मैं आज यों हो रहा हूँ ।।95।।
वंशस्थ छंद
निशांत देखे नभ स्वेत हो गया।
तथापि पूरी न व्यथा-कथा हुई।
परंतु फैली अवलोक लालिमा।
स-नन्द ऊधो उठ सद्म से गये ।।96॥
द्रुतविलम्बित छंद
विवुध ऊधव के गृह-त्याग से।
परि-समाप्त हुई दुख की कथा।
पर सदा वह अंकित सी रही।
हृदय-मंदिर में हरि-मित्र के॥97॥
एकादश सर्ग
मालिनी छंद
यक दिन छवि-शाली अर्कजा-कूल-वाली।
नव-तरु-चय-शोभी-कुंज के मध्य बैठे।
कतिपय ब्रज-भू के भावुकों को विलोक।
बहु-पुलकित ऊधो भी वहीं जा बिराजे ॥1॥
प्रथम सकल-गोपों ने उन्हें भक्ति-द्वारा।
स-विधि शिर नवाया प्रेम के साथ पूजा।
भर भर निज-आँखों में कई बार आँसू।
फिर कह मृदु-बातें श्याम-सन्देश पूछा ।।2॥
परम-सरसता से स्नेह से स्निग्धता से।
तब जन-सुख दानी का सु-सम्वाद प्यारा।
प्रवचन-पटु ऊधो ने सबों को सुनाया।
कह कह हित-बातें शान्ति दे दे प्रबोधा ।।3।।
सुन कर निज-प्यारे का समाचार सारा।
अतिशय-सुख पाया गोप की मंडली ने।
पर प्रिय-सुधि आये प्रेम-प्राबल्य द्वारा।
कुछ समय रही सो मौन हो उन्मना सी।।4।।
फिर बहु मृदुता से स्नेह से धीरता से।
उन स-हृदय गोपों में बड़ा-वृद्ध जो था।
वह ब्रज-धन प्यारे-बंधु को मुग्ध-सा हो।
निज सु-ललित बातों को सुनाने लगा यों ॥5॥
वंशस्थ छंद
प्रसून यों ही न मिलिन्द वृन्द को।
विमोहता औ करता प्रलुब्ध है।
वरंच प्यारा उसका सु-गंध ही।
उसे बनाता बहु-प्रीति-पात्र है॥6॥
विचित्र ऐसे गुण हैं ब्रजेन्दु के।
स्वभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
निवद्ध सी है जिनमें नितान्त ही।
ब्रजानुरागीजन की विमुग्धता ॥7॥
स्वरूप होता जिसका न भव्य है।
न वाक्य होते जिसके मनोज्ञ हैं।
मिली उसे भी भव-प्रीति सर्वदा।
प्रभूत प्यारे गुण के प्रभाव से॥8॥
अपूर्व जैसा घन-श्याम-रूप है।
तथैव वाणी उनकी रसाल है।
निकेत वे हैं गुण के, विनीत हैं।
विशेष होगी उनमें न प्रीति क्यों ॥9॥
सरोज है दिव्य-सुगंध से भरा।
नृलोक में सौरभवान स्वर्ण है।
सु-पुष्प से सज्जित पारिजात है।
मयंक है श्याम बिना कलंक का ॥10॥
कलिन्दजा की कमनीय-धार जो।
प्रवाहिता है भवदीय-सामने।
उसे बनाता पहले विषाक्त था।
विनाश-कारी विष-कालिनाग का ॥11॥
जहाँ सुकल्लोलित उक्त धार है।
वहीं बड़ा-विस्तृत एक कुण्ड है।
सदा उसी में रहता भुजंग था।
भुजंगिनी संग लिए सहस्रशः॥12॥
मुहुर्मुहुः सर्प-समूह-श्वास से।
कलिन्दजा का कँपता प्रवाह था।
असंख्य फूत्कार प्रभाव से सदा।
विषाक्त होता सरिता सदम्बु था ॥13॥
दिखा रहा सम्मुख जो कदम्ब है।
कहीं इसे छोड़ न एक वृक्ष था।
द्वि-कोस पर्यंत द्वि-कूल भानुजा।
हरा भरा था न प्रशंसनीय था॥14॥
कभी यहाँ का भ्रम या प्रमाद से।
कदम्बु पीता यदि था विहंग भी।
नितान्त तो व्याकुल औ विपन्न हो।
तुरन्त ही था प्रिय-प्राण त्यागता ॥15॥
बुरा यहाँ का जल पी, सहस्रशः।
मनुष्य होते प्रति-वर्ष नष्ट थे।
कु-मृत्यु पाते इस ठौर नित्य ही।
अनेकशः गो, मृग, कीट कोटिशः ॥16॥
रही न जानें किस काल से लगी।
ब्रजापगा में यह व्याधि-दुर्भगा।
किया उसे दूर मुकुन्द देव ने।
विमुक्ति सर्वस्व-कृपा-कटाक्ष से ॥17॥
बढ़े दिवानायक की दुरन्तता।
अनेक-गवाले सुरभी समूह ले।
महा पिपासातुर एक बार हो।
दिनेशजा वर्जित कूल पै गये ॥18॥
परंतु पी के जल ज्यों स-धेनु के।
कलिन्दजा के उपकूल से बढ़े।
अचेत त्योंही सुरभी समेत हो।
जहाँ तहाँ भूतल-अंक में गिरे ॥19॥
बढ़े इसी ओर स्वयं इसी घड़ी।
ब्रजांगना-वल्लभ दैव-योग से।
बचा जिन्होंने अति-यत्न से लिया।
विनष्ट होते बहु-प्राणि-पुंज को।।20॥
दिनेशजा दूषित-वारि-पान से।
विडम्बना थी यह हो गई यतः।
अतः इसी काल यथार्थ-रूप से।
ब्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का ॥21॥
स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा।
विगर्हणा देख मनुष्य-मात्र की।
विचार के प्राणि-समूह-कष्ट को।
हुए समुत्तेजित वीर-केशरी ॥22॥
हितैषणा से निज-जन्म-भूमि की।
अपार-आवेश हुआ ब्रजेश को।
बनीं महा बंक गँठी हुई भवें।
नितान्त-विस्फारित नेत्र हो गये॥23॥
इसी घड़ी निश्चित श्याम-ने किया।
सशंकता त्याग अशंक-चित्त से।
अवश्य निर्वासन ही विधेय है।
भुजंग का भानु-कुमारिकांक से ॥24॥
अतः करूँगा यह कार्य मैं स्वयं।
स्व-हस्त मैं दुर्लभ प्राण को लिए।
स्व-जाति औ जन्म-धरा निमित्त मैं।
न भीत हूँगा विकराल-व्याल से।।25।।
सदा करूँगा अपमृत्यु सामना।
स-भीत हूँगा न सुरेन्द्र-वज्र से।
कभी करूँगा अवहेलना न मैं।
प्रधान-धर्माङ्ग-परोपकार की ॥26॥
प्रवाह होते तक शेष श्वास के।
स-रक्त होते तक एक भी शिरा।
स-शक्त होते तक एक लोम के।
किया करूँगा हित सर्वभूत का॥27॥
निदान न्यारे-पण सूत्र में बंधे।
व्रजेन्दु आये दिन दूसरे यहीं।
दिनेश-आभा इस काल भूमि को।
बना रही थी महती-प्रभावती ॥28॥
मनोज्ञ था काल द्वितीय याम था।
प्रसन्न था व्योम दिशा प्रफुल्ल थी।
उमंगिता थी सित-ज्योति-संकुला।
तरंग-माला-मय-भानु-नन्दिनी ॥29॥
विलोक सानन्द सु-व्योम मेदिनी।
खिले हुए-पंकज पुष्पिता लता।
अतीव-उल्लासित हो स्व-वेणु ले।
कदम्ब के ऊपर श्याम जा चढ़े ॥30॥
कँपा सु-शाखा बहु पुष्प को गिरा।
पुनः पड़े कूद प्रसिद्ध कुण्ड
हुआ समुद्भिन्न प्रवाह वारि का।
प्रकम्प-कारी रव व्योम में उठा॥31॥
अपार-कोलाहल ग्राम में मचा।
विषाद फैला ब्रज सद्म-सद्म में
ब्रजेश हो व्यस्त-समस्त दौड़ते।
खड़े हुए आ कर उक्त कुण्ड पै।।32॥
असंख्य-प्राणी ब्रज-भूप साथ ही।
स-वेग आये दृग-वारि मोचते।
ब्रजांगना साथ लिए सहस्रशः।
बिसूरती आ पहुँची ब्रजेश्वरी ॥33॥
द्वि-दंड में ही जनता-समूह से।
तमारिजा की तट पूर्ण हो गया।
प्रकम्पिता हो बन मेदिनी उठी।
विषादितों के बहु-आर्त्त-नाद से ॥34॥
कभी कभी क्रन्दन-घोर-नाद को।
विभेद होती श्रुति-गोचरा रही।
महा-सुरीली-ध्वनि श्याम-वेणु की।
प्रदायिनी शान्ति विषाद-मर्दिनी ॥35॥
व्यतीत यों ही घड़ियाँ कई हुईं।
पुनः स-हिल्लोल हुई पतंगजा।
प्रवाह उभेदित अंत में हुआ।
दिखा महा अद्भुत-दृश्य सामने ।।36॥
कई फनों का अति ही भयावना।
महा-कदाकार अश्वते शैल सा।
बड़ा-बली एक फणीश अंक से।
कलिन्दजा के कढ़ता दिखा पड़ा ॥37॥
विभीषणाकार-प्रचण्ड-पन्नगी।
कई बड़े-पन्नग, नाग साथ ही।
विदार के वक्ष विषाक्त-कुण्ड का।
प्रमत्त से थे कढ़ते शनैः शनैः॥38॥
फणीश शीशोपरि राजती रही।
सु-मूर्ति शोभा-मय श्री मुकुन्द की।
विकीर्णकारी कल-ज्योति-चक्षु थे।
अतीव-उत्फुल्ल मुखारविन्द था 39॥
विचित्र थी शीश किरीट की प्रभा।
कसी हुई थी कटि में सु-काछनी।
दुकूल से शोभित कांत कन्ध था।
विलम्बिता थी वन-माल कण्ठ में।।40॥
अहीश को नाथ विचित्र-रीति से।
स्व-हस्त में थे वर-रज्जु को लिए।
बजा रहे थे मुरली मुहुर्मुहुः।
प्रबोधिनी-मुग्धकरी-विमोहिनी ॥41॥
समस्त-प्यारा-पट सिक्त था हुआ।
न भींगने से वन-माल थी बची।
गिरा रही थीं अलकें नितान्त ही।
विचित्रता से वर-बूंद वारि की॥42॥
लिए हुए सर्प-समूह श्याम ज्यों।
कलिन्दजा कम्पित अंक से कढ़े।
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे।
सभी महा शंकित-भीत हो उठे॥43॥
हुए कई मूर्छित घोर-त्रास से।
कई भगे भूतल में गिरे कई।
हुईं यशोदा अति ही प्रकम्पिता।
ब्रजेश भी व्यस्त-समस्त हो गये॥44॥
विलोक सारी-जनता भयातुरा।
मुकुन्द ने एक विभिन्न-मार्ग से।
चढ़ा किनारे पर सर्प-यूथ को।
उसे बढ़ाया वन-ओर वेग से ॥45॥
ब्रजेन्द्र के अद्भुत-वेणु-नाद से।
सतर्क-संचालन से सु-युक्ति से।
हुए वशीभूत समस्त सर्प थे।
न अल्प होते प्रतिकूल थे कभी॥46॥
अगम्य-अत्यन्त समीप शैल के।
जहाँ हुआ कानन था, ब्रजेन्द्र ने।
कुटुम्ब के साथ वहीं अहीश को।
सदर्प दे के यम-यातना तजा॥47॥
न नाग काली-तब से दिखा पड़ा।
हुई तभी से यमुनाति निर्मला।
समोद लौटे सब लोग सद्म को।
प्रमोद सारे ब्रज-मध्य छा गया ॥48॥
अनेक यों हैं कहते फणीश को।
स-वंश मारा वन में मुकुन्द ने।
कई मनीषी यह हैं विचारते।
छिपा पड़ा है वह गर्त में किसी ॥49॥
सुना गया है यह भी अनेक से।
पवित्र-भूता-ब्रज-भूमि त्याग के।
चला गया है वह और ही कहीं।
जनोपघाती विष-दन्त-हीन हो ॥50॥
प्रवाद जो हो यह किंतु सत्य है।
स-गर्व मैं हूँ कहता प्रफुल्ल हो।
व्रजेन्दु से ही व्रज-व्याधि है टली।
बनी फणी-हीन पतंग-नन्दिनी ॥51॥
वही महा-धीर असीम-साहसी।
सु-कौशली मानव-रत्न दिव्य-धी।
अभाग्य से है ब्रज से जुदा हुआ।
सदैव होगी न व्यथा-अतीव क्यों ॥52॥
मुकुन्द का है हित चित्त में भरा।
पगा हुआ है प्रति-रोम प्रेम में।
भलाइयाँ हैं उनकी बड़ी-बड़ी।
भला उन्हें क्यों ब्रज भूल जायगा ॥53॥
जहाँ रहें श्याम सदा सुखी रहें।
न भूल जावें निज-तात-मात को।
कभी कभी आ मुख-मंजु को दिखा।
रहें जिलाते ब्रज-प्राणि-पुंज को॥54॥
द्रुतविलम्बित छंद
निज मनोहर भाषण वृद्ध ने।
जब समाप्त किया बहु-मुग्ध हो।
ऊपर एक प्रतिष्ठित-गोप यों।
तब लगा कहने सु-गुणावली ॥55 ।।
वंशस्थ छंद
निदाघ का काल महा-दुरन्त था।
भयावनी थी रवि-रश्मि हो गयी।
तवा समा थी तपती वसुंधरा।
स्फुलिंग वर्षारत तप्त व्योम था ॥56।।
प्रदीप्त थी अग्नि हुई दिगन्त में।
ज्वलन्त था आतप ज्वाल-माल-सा।
पतंग की देख महा-प्रचण्डता।
प्रकम्पिता पादप-पुंज-पंक्ति थी॥57॥
रजाक्त आकाश दिगन्त को बना।
असंख्य वृक्षावलि मर्दनोद्यता।
मुहुर्मुहुः उद्धत हो निनादिता।
प्रवाहिता थी पवनाति-भीषणा ॥58॥
विदग्ध हो के कण-धूलि राशि का।
हुआ तपे लौह कणा समान था।
प्रतप्त-बालू-इव-दग्ध-भाड़ को
भयंकरी थी महि-रेणु हो गई॥59॥
असह्य उत्ताप दुरंत था हुआ।
महा समुद्विग्न मनुष्य मात्र था।
शरीरियों की प्रिय-शान्ति-नाशिनी।
निदाघ की थी अति-उग्र-ऊष्मता॥60॥
किसी घने-पल्लववान-पेड़ की।
प्रगाढ़-छाया अथवा सुकुंज में।
अनेक प्राणी करते व्यततीत थे।
स-व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त-काल को॥61॥
अचेत सा निद्रित हो स्व-गेह में।
पड़ा हुआ मानव का समूह था।
न जा रहा था जन एक भी कहीं।
अपार निस्तब्ध समस्त-ग्राम था॥62॥
स्व-शावकों साथ स्वकीय-नीड़ में।
अबोल हो के खग-वृंद था पड़ा।
स-भीत मानों बन दीर्घ दाघ से।
नहीं गिरा भी तजती स्व-गेह थी।63।।
सु-कुंज में या वर-वृक्ष के तले।
अशक्त हो थे पशु पंगु से पड़े।
प्रतप्त-भू में गमनाभिशंकया।
पदांक को थी गति त्याग के भगी।।64।।
प्रचंड लू थी अति-तीव्र घाम था।
मुहुर्मुहुः गर्जन था समीर का।
विलुप्त हो सर्व-प्रभाव-अन्य का।
निदाघ का एक अखंड-राज्य था।।65॥
अनेक गो-पालक वत्स धेनु ले।
बिता रहे थे बहु शान्ति-भाव से।
मुकुन्द ऐसे अ-मनोज्ञ-काल को।
वनस्थिता-एक-विराम कुञ्ज में ॥66।।
परंतु प्यारी यह शान्ति श्याम की।
विनष्ट औ भंग हुई तुरन्त ही।
अचित्य-दूरागत-भूरि-शब्द
अजस्र जो था अति घोर हो रहा।।67॥
पुनः पुनः कान लगा लगा सुना।
ब्रजेन्द्र ने उत्थित घोर-शब्द को।
अतः उन्हें ज्ञात तुरन्त हो गया।
प्रचंड दावा वन-मध्य है लगी ।।68।।
गये उसी ओर अनेक-गोप थे।
गवादि ले के कुछ-का-पूर्व ही।
हुई इसी से निज बंधु-वर्ग की।
अपार चिन्ता ब्रज-व्योम-चंद्र को।।69॥
अतः बिना ध्यान किये प्रचंडता।
निदाघ की पूषण की समीर की।
ब्रजेन्द्र दौड़े तज शान्ति-कुंज को।
सु-साहसी गोप समूह संग ले ।।70॥
निकुंज से बाहर श्याम ज्यों कढ़े।
उन्हें महा पर्वत धूमपुंज का।
दिखा पड़ा दक्षिण ओर सामने।
मलीन जो था करता दिगन्त को।।71।।
अभी गये वे कुछ दूर मात्र थे।
लगीं दिखाने लपटें भयावनी।
वनस्थली बीच प्रदीप्त-वह्नि की।
मुहुर्मुहुः व्योम-दिगन्त-व्यापिनी ॥72॥
प्रवाहिता उद्धत तीव्र वायु से।
विधूनिता हो लपटें दवाग्नि की।
नितान्त ही थीं बनती भयंकरी।
प्रचंड-दावा-प्रलयंकरी- समा।।73॥
अनन्त थे पादप दग्ध हो रहे।
असंख्य गाठे फटती स-शब्द थीं।
विशेषतः वंश-अपार वृक्ष की।
बनी महा-शब्दित थी वनस्थली ॥74॥
अपार पक्षी पशु त्रस्त हो महा।
स-व्यग्रता थे सब ओर दौड़ते।
नितान्त हो भीत सरीसृपादि भी।
बने महा-व्याकुल भाग थे रहे ॥75॥
समीप जा के बलभद्र-बंधु ने।
वहाँ महा-भीषण-काण्ड जो लखा।
प्रवीर है कौन त्रि-लोक मध्य जो।
स्व-नेत्र से देख उसे न काँपता ॥76॥
प्रचंडता में रवि की दवाग्नि की।
दुरन्तता थी अति ही विवर्द्धिता।
प्रतीति होती उसको विलोक के।
विदग्ध होगी ब्रज की वसुंधरा॥77॥
पहाड़ से पादप तूल पुंज से।
स-मूल होते पल मध्य भस्म थे।
बड़े-बड़े प्रस्तर खंड वह्नि से।
तुरन्त होते तृण-तुल्य दग्ध थे।78 ।।
अनेक पक्षी उड़ व्योम-मध्य भी।
न त्राण थे पा सकते शिखाग्नि से।
सहस्रशः थे पशु प्राण त्यागते।
पतंग के तुल्य पलायनेच्छु हो ॥79॥
जला किसी का पग पूँछ आदि था।
पड़ा किसी का जलता शरीर था।
जले अनेकों जलते असंख्य थे।
दिगन्त था आर्त्त-निनाद से भरा ॥80॥
भयंकरी-प्रज्वलिताग्नि की शिखा।
दिवांधता-कारिणी राशि धूम की।
वनस्थली में बहु-दूर-व्याप्त थी।
नितान्त घोरा ध्वनि त्रास-वर्द्धिनी ॥81॥
यहीं विलोका करुणा-निकेत ने।
गवादिके साथ स्व-बंधु-वर्ग को।
शिखाग्नि द्वारा जिनकी शनैःशनैः।
विनष्ट संज्ञा अधिकांश थी हुई ॥82॥
निरर्थ चेष्टा करते विलोक के।
उन्हें स्व-रक्षार्थ दवाग्नि गर्भ से।
दया बड़ी ही ब्रज-देव को हुई।
विशेषतः देख उन्हें अशक्त-सा॥83॥
अतःसबों से यह श्याम ने कहा।
स्व-जाति-उद्धार महान-धर्म है।
चलो करें पावक में प्रवेश औ।
स-धेनु लेवें निज-जाति को बचा ॥84॥
विपत्ति से रक्षण सर्व-भूत का।
सहाय होना अ-सहाय जीव का।
उबारना संकट से स्व-जाति का।
मनुष्य का सर्व-प्रधान धर्म है॥85॥
बिना न त्यागे ममता स्व-प्राण की।
बिना न जोखों ज्वलदग्नि में पड़े।
न हो सका विश्व-महान-कार्य है।
न सिद्ध होता भव-जन्म हेतु है ॥86॥
बढ़ो करो वीर स्व-जाति का भला।
अपार दोनों विध लाभ है हमें।
किया स्व-कर्तव्य उबार जो लिया।
सु-कीर्ति पाई यदि भस्म हो गये॥87॥
शिखाग्नि से वे सब ओर हैं घिरे।
बचा हुआ एक दुरूह-पंथ है।
परंतु होगी यदि स्वल्प-देर तो।
अगम्य होगा वह शेष-पंथ भी॥88॥
बचा सबों को बलवीर ज्यों कढ़े।
प्रचंड-ज्वाला-मय-पंथ त्यों हुआ।
विलोकते ही यह काण्ड श्याम को।
सभी लगे आदर दे सराहने ।।96 ।।
अभागिनी है ब्रज की वसुन्धरा ।
बड़े-अभागे हम गोप लोग हैं।
हरा गया कौस्तुभ जो ब्रजेश का।
छिना करों से ब्रज-भूमि रत्न जो 197 ॥
न वित्त होता धन रत्न डूबता।
असंख्य गो-वंश-स-भूमि छूटता।
समस्त जाता तब भी न शोक था।
सरोज सा आनन जो विलोकता॥98॥
अतीव-उत्कण्ठित सर्व-काल हूँ।
विलोकने को यक-बार और भी।
मनोज्ञ-वृन्दावन-व्योम-अंक में।
उगे हुए आनन-कृष्णचन्द्र को 199 ।।
द्वादश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
ऊधो को यों स-दुख जब थे गोप बातें सुनाते।
आभीरों का यक-दल नया वाँ उसी-काल आया।
नाना-बातें विलख उसने भी कहीं खिन्न हो हो।
पीछे प्यारा-सुयश स्वर से श्याम का यों सुनाया ॥1॥
द्रुतविलम्बित छंद
सरस-सुंदर-सावन-मास था।
घन रहे नभ में घिर-घूमते।
विलसती बहुधा जिनमें रही।
छविवती-उड़ती-बक-मालिका ॥2॥
घहरता गिरि-सानु समीप था।
बरसता छिति-छू नव-वारि था।
घन कभी रवि-अंतिम-अंशु ले।
गगन में रचता बहु-चित्र था॥3॥
नव-प्रभा परमोज्वल-लीक सी।
गति-मति कुटिला-फणिनी-समा।
दमकती दुरती घन-अंक में।
विपुल केलि-कला-खनि दामिनी ॥4॥
विविध-रूप धरे नभ में कभी।
विहरता वर-वारिद-व्यूह था।
वह कभी करता रस सेक था।
बन सके जिससे सरसा-रसा ॥5॥
सलिल-पूरित थी सरसी हुई।
उमड़ते पड़ते सर-वृन्द थे।
कर-सुप्लावित कूल प्रदेश को।
सरित थी स-प्रमोद प्रवाहिता॥6।।
वसुमती पर थी अति-शोभिता।
नवल कोमल-श्याम-तृणावली।
नयन-रंजनता मृदु-मूर्ति थी।
अनुपमा- तरु- राजि- हरीतिमा॥7॥
हिल, लगे मृदु-मन्द-समीर के।
सलिल-विन्दु गिरा सुठि अंक से।
मन रहे किसका न विमोहते।
जल-धुले दल-पादप पुंज के॥8॥
विपुल मोर लिए बहु-मोरिनी।
विहरते सुख से स-विनोद थे।
मरकतोपम पुच्छ-प्रभाव से।
मणि-मयी कर कानन कुंज को॥9॥
बन प्रमत्त-समान पपीहरा।
पुलक के उठता कह पी कहाँ।
लख वसंत-विमोहक-मंजुता।
उमग कूक रहा पिक-पुंज था॥10॥
स-रव पावस-भूप-प्रताप जो।
सलिल में कहते बहु भेक थे।
विपुल-झींगुर तो थल में उसे।
धुन लगा करते नित गान थे।॥11॥
सुखद-पावस के प्रति सर्व की।
प्रकट सी करती अति-प्रीति थी।
वसुमती-अनुराग-स्वरूपिणी।
विलसती-बहु-वीर बहूटियाँ ।।2।।
परम-म्लान हुई बहु-वेलि को।
निरख के फलिता अति-पुष्पिता।
सकल के उर में रम सी गई।
सुखद-शासन की उपकारिता॥13॥
विविध-आकृति औ फल फूल की।
उपजती अवलोक सु-बूटियाँ।
प्रकट थी महि-मण्डल में हुई।
प्रियकरी-प्रतिपत्ति-पयोद की।14।।
रस-मयी भव-वस्तु विलोक के।
सरसता लख भूतल-व्यापिनी।
समझ है पड़ता बरसात में।
उदक का रस नाम यथार्थ है॥15॥
मृतक-प्राय हुई तृण-राजि भी।
सलिल से फिर जीवित हो गई।
फिर सु-जीवन जीवन को मिला।
वुध न जीवन क्यों उसको कहें ॥16॥
ब्रज-धरा यक बार इन्हीं दिनों।
पतित थी दुख-वारिधि में हुई।
पर उसे अवलम्बन था मिला।
ब्रज-विभूषण के भुज-पोत के ॥17॥
दिवस एक प्रभंजन का हुआ।
अति-प्रकोप, घटा नभ में घिरी।
बहु-भयावह-गाढ़-मसी-समा।
सकल-लोक प्रकंपित-कारिणी॥18॥
अशनि-पात-समान दिगन्त में।
तब महा-रव था बहु व्यापता।
कर विदारण वायु प्रवाह का।
दमकती नभ में जब दामिनी ॥19॥
मथित चालित ताड़ित हो महा।
अति-प्रचंड-प्रभंजन-वेग से।
जलद थे दल के दल आ रहे।
घुमड़ते घिरते ब्रज-घेरेते ॥20॥
तरल-तोयधि-तुंग-तरंग से।
निविड़-नीरद थे घिर घूमते।
प्रबल हो जिनकी बढ़ती रही।
असितता घनता रवकारिता ॥21॥
उपजती उस काल प्रीतित थी।
प्रलय के घन आ ब्रज में घिरे।
गगन-मण्डल में अथवा जमे।
सजल कज्जल के गिरि कोटिशः॥22॥
पतित थी ब्रज-भू पर हो रही।
प्रति-घटी उर-दारक-दामिनी।
असह थी इतनी गुरु-गर्जना।
सह न था सकता पवि-कर्ण भी॥23॥
तिमिर की वह थी प्रभुता बढ़ी।
सब तमोमय था दृग देखता।
चमकता वर-वासर था बना।
असितता-खनि-भाद्र-कुहू-निशा ॥24॥
प्रथम बूँद पड़ी ध्वनि-बाँध के।
फिर लगा पड़ने जल वेग से।
प्रलय कालिक-सर्व-समाँ दिखा।
बरसता जल मूसल-धार था॥25॥
जलद-नाद प्रभंजन-गर्जना।
विकट-शब्द महा-जलपात का।
कर प्रकम्पित पीवर-प्राण को।
भर गया ब्रज-भूतल मध्य था ॥26॥
स-बल भग्न हुई गुरु-डालियाँ।
पतित हो करती बहु-शब्द थीं।
पतन हो कर पादप-पुंज को।
क्षण-प्रभा करती शत-खंड थी॥27॥
सदन थे सब खंडित हो रहे।
परम-संकट में जन-प्राण था।
स-बल विज्जु प्रकोप-प्रमाद से
बहु-विचूर्णित पर्वत-शृंग थे॥28॥
दिवस बीत गया रजनी हुई।
फिर हुआ दिन किंतु न अल्प भी।
कम हुई तम-तोम-प्रगाढ़ता।
न जलपात रुका न हवा थमी॥29॥
सब-जलाशय थे जल से भरे।
इस लिए निशि वासर मध्य ही।
जल-मयी ब्रज की वसुधा बनी।
सलिल-मग्न हुए पुर-ग्राम भी ॥30॥
सर-बने बहु विस्तृत-ताल से।
बन गया सर था लघु-गर्त भी।
बहु तरंग-मयी गुरु-नादिनी।
जलधि तुल्य बनी रविनन्दिनी ॥31॥
तदपि था पड़ता जल पूर्व सा।।
इस लिए अति-व्यकुलता बढ़ी।
विपुल-लोक गये ब्रज-भूप के।
निकट व्यस्त-समस्त अधीर हो॥32॥
प्रकृति को कुपिता अवलोक के।
प्रथम से ब्रज-भूपति व्यग्र थे।
विपुल-लोक समागत देख के।
बढ़ गई उनकी वह व्यग्रता ।।33 ॥
पर न सोच सके नृप एक भी।
उचित यत्न विपत्ति-विनाश का।
अपर जो उस ठौर बहुज्ञ थे।
न वह भी शुभ-सम्मति दे सके ॥34॥
तड़ित सी कछनी कटि में कसे।
सु-विलसे नव-नीरद-कान्ति का।
नवल-बालक एक इसी घड़ी।
जन-समागम-मध्य दिखा पड़ा ॥35॥
ब्रज-विभूषण को अवलोक के।सी
जन-समूह प्रफुल्लित हो उठा।
परम-उत्सुकता-वश प्यार से।
फिर लगा वदनांबुज देखने ।।36॥
सब उपस्थित-प्राणि-समूह को।
निरख के निज-आनन देखता।
बन विशेष विनीत मुकुन्द ने।
यह कहा ब्रज-भूतल-भूप से।।37॥
जिस प्रकार घिरे घन व्योम में।
प्रकृति है जितनी कुपिता हुई।
प्रकट है उससे यह हो रहा।
विपद का टलना बहु-दूर है ॥38॥
इस लिए तज के गिरि-कन्दरा।
अपर यत्न न है अब त्राण का।
उचित है इस काल सयत्न हो।
शरण में चलना गिरि-राजं की॥39॥
बहुत सी दरियाँ अति-दिव्य हैं।
बृहत कन्दर हैं उसमें कई।
निकट भी वह है पुर-ग्राम के।
इस लिए गमन-स्थल है वही ॥40॥
सुन गिरा यह वारिद-गात की।
प्रथम तर्क-वितर्क बड़ा हुआ।
फिर यही अवधारित हो गया।
गिरि बिना 'अवलम्ब' न अन्य है ॥41॥
पर विलोक तमिस्र-प्रगाढ़ता।
तड़ित-पात प्रभंजन-भीमता।
सलिल-प्लावन-वर्षण-वारिका।
विफल थी बनती सब-मंत्रणा ॥42॥
इस लिए फिर पंकज-नेत्र ने।
यह स-ओज कहा जन-वृन्द से।
रह अचेष्टित जीवन त्याग से।
मरण है अति-चारु सचेष्ट हो॥43॥
विपद-संकुल विश्व-प्रपंच है।
बहु-छिपा भवितव्य रहस्य है।
प्रति-घटी पल है भय प्राण का।
शिथिलता इस हेतु अ-श्रेय है॥44॥
विपद से वर-वीर-समान जो।
समर-अर्थ-समुद्यत हो सका।
विजय-भूति उसे सब काल ही।
चरण है करती सु-प्रसन्न हो॥45॥
पर विपत्ति विलोक स-शंक हो।
शिथिल जो करता पग-हस्त है।
अवनि में अवमानित शीघ्र हो।
कवल है बनाता वह काल का॥46॥
कब कहाँ न हुई प्रतिद्वंद्विता ।
जब उपस्थित संकट-काल हो।
उचित-यत्न स-धैर्य्य विधेय है।
उस घड़ी सब-मानव-मात्र को ॥47॥
सु-फल जो मिलता इस काल है।
समझना न उसे लघु चाहिए।
बहुत हैं, पड़ संकट-स्रोत में।
सहस में जन जो शत भी बचें ॥48॥
इस लिए तज निंद्य-विमूढ़ता।
उठ पड़ो सब लोग स-यत्न हो।
इस महा-भय-संकुल काल में।
बहु-सहायक जान ब्रजेश को ॥49॥
सुन स-ओज सु-भाषण श्याम का।
बहु-प्रबोधित हो जन-मण्डली।
गृह गई पढ़ मंत्र-प्रयत्न का।
लग गई गिरि ओर प्रयाण में ॥50॥
बहु-चुने-दृढ़-वीर सु-साहसी।
सबल-गोप लिए बलवीर भी।
समुचित स्थल में करने लगे।
सकल की उपयुक्त सहायता ।।51॥
सलिल प्लावन से अब थे बचे।
लघु-बड़े बहु-उन्नत पंथ जो।
सब उन्हीं पर हो स-सतर्कता।
गमन थे करते गिरि-अंक में ॥52॥
यदि ब्रजाधिप के प्रिय-लाडिले।
पतित का कर थे गहते कहीं।
उदक में घुस तो करते रहे।
वह कहीं जल-बाहर मग्न को॥53॥
पहुँचते बहुधा उस भाग में।
बहु अकिंचन थे रहते जहाँ।
कर सभी सुविधा सब-भाँति की।
वह उन्हें रखते गिरि-अंक में ॥54॥
परम-वृद्ध असम्बल लोक को।
दुख-मयी-विधवा रुज-ग्रस्त को।
बन सहायक थे पहुँचा रहे।
गिरि सु-गह्वर में कर यत्न वे ॥55॥
यदि दिखा पड़ती जनता कहीं।
कु-पथ में पड़ के दुख भोगती।
पथ-प्रदर्शन थे करते उसे।
तुरत तो उस ठौर ब्रजेन्द्र जा।।56॥
जटिलता-पथ की तम गाढ़ता
उदक-पात प्रभंजन भीमता।
मिलित थीं सब साथ, अतः घटी।
दुख-मयी-घटना प्रति-पंथ में ॥57॥
पर सु-साहस से सु-प्रबंध से।
ब्रज-विभूषण के जन एक भी।
तन न त्याग सका जल-मग्न हो।
मर सका गिर के गिरीन्द्र से ॥58॥
फलद-सम्बल लोचन के लिए।
क्षणप्रभा अतिरिक्त न अन्य था।
तदपि साधन में प्रति-कार्य के।
सफलता ब्रज-वल्लभ को मिली ॥59॥
परम-सिक्त हुआ वपु-वस्त्र था।
गिर रहा शिर ऊपर वारि था।
लग रहा अति उग्र-समीर था।
पर विराम न था ब्रज-बंधु को॥60॥
पहुँचते वह थे शर-वेग से।
विपद-संकुल आकुल-ओक में।
तुरत थे करते वह नाश भी।
परम-वीर-समान विपत्ति का।।61॥
लख अलौकिक-स्फूर्ति-सु-दक्षता।
चकित-स्तंभित गोप-समूह था।
अधिकतः बँधता यह ध्यान था।
ब्रज-विभूषण हैं शतशः बने ॥62॥
स-धन गोधन को पुर ग्राम को।
जलज-लोचन ने कुछ काल में।
कुशल से गिरि-मध्य बसा दिया।
लघु बना पवनादि-प्रमाद को ॥63॥
प्रकृति क्रुद्ध छ सात दिनों रही।
कुछ प्रभेद हुआ न प्रकोप में।
पर स-यत्न रहे वह सर्वथा।
तनिक-क्लान्ति हुई न ब्रजेन्द्र को ॥64॥
प्रति-दरी प्रति-पर्वत-कन्दरा।
निवसते जिनमें ब्रज-लोग थे।
बहु-सु-रक्षित थी ब्रज-देव के।
परम-यत्न सु-चारु प्रबन्ध से॥65॥
भ्रमण हो करते सबने उन्हें ।
सकल-काल लखा स-प्रसन्नता।
रजनि भी उनकी कटती रही।
स-विधि-रक्षण में ब्रज-लोक के ॥66॥
लख अपार प्रसार गिरीन्द्र में।
ब्रज-धराधिप के प्रिय-पुत्र का।
सकल लोग लगे कहने उसे।
रख लिया उँगली पर श्याम ने॥67॥
जब व्यतीत हुए दुख-वार ए।
मिट गया पवनादि प्रकोप भी।
तब बसा फिर से ब्रज-प्रांत, औ।
परम-कीर्ति हुई बलवीर की ॥68॥
अहह ऊधव सो ब्रज-भूमि का।
परम-प्राण-स्वरूप सु-साहसी।
अब हुआ दृग से बहु-दूर है।
फिर कहो बिलपे ब्रज क्यों नहीं ॥69॥
कथन में अब शक्ति न शेष है।
विनय हूँ करता बन दीन मैं ।
ब्रज-विभूषण आ निज-नेत्र से।
दुख-दशा निरखें ब्रज-भूमि की ॥70॥
सलिल-प्लावन से जिस भूमि का।
सदय हो कर रक्षण था किया।
अहह आज वही ब्रज की धरा।
नयन-नीर-प्रवाह-निमग्न है ॥71॥
वंशस्थ छंद
समाप्त ज्योंही इस यूथ ने किया।
अतीव-प्यारे अपने प्रसंग को
लगा सुनाने उस काल ही उन्हें।
स्वकीय बातें फिर अन्य गोपयों ।।72॥
वसन्ततिलका छंद
बातें बड़ी-मधुर औ अति ही मनोज्ञा।
नाना मनोरम रहस्य-मयी अनूठी।
जो हैं प्रसूत भवदीय मुखाब्ज द्वारा।
हैं वांछनीय वह, सर्व सुखेच्छुकों की ॥73॥
सौभाग्य है व्यथित-गोकुल के जनों का।
जो पाद-पंकज यहाँ भवदीय आया।
है भाग्य की कुटिलता वचनोपयोगी।
होता यथोचित नहीं यदि कार्यकारी ॥74॥
प्रायः विचार उठता उर-मध्य होगा।
ए क्यों नहीं वचन हैं सुनते हितों के।
है मुख्य-हेतु इसका न कदापि अन्य।
लौ एक श्याम-घन की ब्रज को लगी है।।75 ।।
न्यारी-छटा निरखना दृग चाहते हैं।
है कान को सु-यश भी प्रिय श्याम ही का।
गा के सदा सु-गुण है रसना अघाती।
सर्वत्र रोम तक में हरि ही रमा है।॥76॥
जो हैं प्रवंचित कभी दृग-कर्ण होते।
तो गान है सु-गुण को करती रसज्ञा ।
हो हो प्रमत्त ब्रज-लोग इसी लिए ही।
गा श्याम का सुगुण वासर हैं बिताते ॥77॥
संसार में सकल-काल-नृ-रत्न ऐसे।
हैं हो गये अवनि है जिनकी कृतज्ञा।
सारे अपूर्व-गुण हैं उनके बताते।
सच्चे-नृ-रत्न हरि भी इस काल के हैं ॥78॥
जो कार्य्य श्याम-घन ने करके दिखाये।
कोई उन्हें न सकता कर था कभी भी।
वे कार्य औ द्विदश-वत्सर की अवस्था।
ऊधो न क्यों फिर नृ-रत्न मुकुन्द होंगे॥79॥
बातें बड़ी सरस थे कहते बिहारी।
छोटे बड़े सकल का हित चाहते थे।
अत्यन्त प्यार दिखला मिलते सबों से।
वे थे सहायक बड़े दुख के दिनों में ॥80॥
वे थे विनम्र बन के मिलते बड़ों से।
थे बात-चीत करते बहु-शिष्टता से।
बातें विरोधकर थीं उनको न प्यारी।
वे थे न भूल कर भी अप्रसन्न होते ॥81॥
थे प्रीति-साथ मिलते सब बालकों से।
थे खेलते सकल-खेल विनोद-कारी।
नाना-अपूर्व-फल-फूल खिला खिला के।
वे थे विनोदित सदा उनको बनाते ॥82॥
जो देखते कलह शुष्क-विवाद होता।
तो शांत श्याम उसको करते सदा थे।
कोई बली नि-बल को यदि था सताता।
तो वे तिरस्कृत किया करते उसे थे॥83॥
होते प्रसन्न यदि वे यह देखते थे।
कोई स्व-कृत्य करता अति-प्रीति से है।
यों ही विशिष्ट-पद गौरव की उपेक्षा।
देती नितान्त उनके चित को व्यथा थी॥84॥
माता पिता गुरुजनों वय में बड़ों को।
होते निराद्रित कहीं यदि देखते थे।
तो खिन्न हो दुखित हो लघु को सुतों को।
शिक्षा समेत बहुधा बहु-शास्ति देते ॥85॥
थे राज-पुत्र उनमें मद था न तो भी।
वे दीन के सदन थे अधिकांश जाते।
बातें-मनोरम सुना दुख जानते थे।
औ थे विमोचन उसे करते कृपा में ॥86॥
रोगी दुखी विपद-आपद में पड़ों की।
सेवा सदैव करते निज-हस्त से थे।
ऐसा निकेत ब्रज में न मुझे दिखाया।
कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवें ॥87॥
संतान-हीन-जन तो ब्रज-बंधु को पा।
संतान-वान निज को कहते रहे ही।
संतान-वान जन भी ब्रज-रत्नही का।
संतान से अधिक थे रखते भरोसा ॥88॥
जो थे किसी सदन में बलवीर जाते।
तो मान वे अधिक पा सकते सुतों से।
थे राज-पुत्र इस हेतु नहीं; सदा वे।
होते सुपूजित रहे शुभ-कर्म द्वारा ॥89॥
भू में सदा मनुज है बहु-मान पाता।
राज्याधिकार अथवा धन-द्रव्य-द्वारा।
होता परंतु वह पूजित विश्व में है।
निस्स्वार्थ भूत-हित औ कर लोक-सेवा॥90॥
थोड़ी अभी यदिच है उनकी अवस्था ।
तो भी नितान्त-रत वे शुभ-कर्म में हैं।
ऐसा विलोक वर-बोध स्वभाव से ही।
होता सु-सिद्ध यह है वह हैं महात्मा ॥91॥
विद्या सु-संगति समस्त-सु-नीति शिक्षा।
ये तो विकास भर की अधिकारिणी हैं।
अच्छा-बुरा मलिन-दिव्य स्वभाव भू में।
पाता निसर्ग कर से नर सर्वदा है॥92।।
ऐसे सु-बोध मतिमान कृपालु ज्ञानी
जो आज भी न मथुरा-तज गेह आये।
तो वे न भूल ब्रज-भूतल को गये हैं।
है अन्य-हेतु इसका अति-गूढ कोई ॥93॥
पूरी नहीं कर सके उचिताभिलाषा।
नाना महान जन भी इस मोदिनी में।
होने निरस्त बहुधा नृप-नीतियों से।
लोकोपकार-व्रत में अवलोक बाधा ॥94॥
जी में यही समझ सोच-विमूढ़-सा हो।
मैं क्या कहूँ न यह है मुझको जनाता।
हाँ, एक ही विनय हूँ करता स-आशा।
कोई सु-युक्ति ब्रज के हित की करें वे॥95॥
है रोम-रोम कहता घनश्याम आवें।
आ के मनोहर-प्रभा मुख की दिखावें।
डालें प्रकाश उर के तम को भगावें।
ज्योतिर्विहीन-दृग की द्युति को बढ़ावें ॥96॥
तो भी सदैव चित से यह चाहता हूँ।
है रोम-कूप तक से यह नाद होता।
संभावना यदि किसी कु-प्रपंच की हो।
वो श्याम-मूर्ति ब्रज में न कदापि आवें ॥97॥
कैसे भला स्व-हित की कर चिन्तनायें।
कोई मुकुन्द-हित-ओर न दृष्टि देगा।
कैसे अश्रेय उसका प्रिय हो सकेगा।
जो प्राण से अधिक है ब्रज-प्राणियों का ॥98॥
यों सर्व-वृत्त कहके बहु-उन्मना हो।
आभीर ने वदन ऊधव का विलोका।
उद्विग्नता सु-दृढ़ता अ-विमुक्त बांछा।
होती प्रसूत उसकी खर-दृष्टि से थी॥99॥
ऊधो विलोक करके उसकी अवस्था।
औ देख गोपगण को बहु-खिन्न होता।
बोले गिरा मधुर शान्ति-करी विचारी।
होवे प्रबोध जिससे दुख-दग्धितों का ॥100॥
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त गये गृह को सभी।
ब्रज विभूषण-कीर्ति बखानते।
विवुध पुंगव ऊधव को बना।
विपुल बार विमोहित पंथ में ॥101॥
त्रयोदश सर्ग
वंशस्थ छंद
विशाल-वृन्दावन भव्य-अंक में।
रही धरा एक अतीव-उर्वरा।
नितान्त-रम्या तृण-राजि-संकुला।
प्रसादिनी प्राणी-समूह दृष्टि की॥1॥
कहीं कहीं थे विकसे प्रसून भी।
उसे बनाते रमणीय जो रहे।
हरीतिमा में तृण-राजि-मंजु की।
बड़ी छोटी थी सित-रक्त-पुष्प की ।।2।।
विलोक शोभा उसकी समुत्तमा।
समोद होती यह कांत-कल्पना।
सजा-बिछौना हरिताभ है बिछा।
वनस्थली बीच विचित्र-वस्त्र का ॥3।।
स-चारुता हो कर भूरि-रंजिता।
सु-श्वेतता रक्तिमता-विभूति से।
विराजती है अथवा हरीतिमा।
स्वकीय-वैचित्र्य विकाश के लिए ॥4॥
विलोकनीया इस मंजु-भूमि में।
जहाँ तहाँ पादप थे हरे-भरे।
अपूर्व-छाया जिनके सु-पत्र की।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी॥5॥
कहीं कहीं था विमलाम्बु भी भरा।
सुधा समासादित संत-चित्त सा।
विचित्र-क्रीड़ा जिसके सु-अंक में।
अनेक-पक्षी करते स-मत्स्य थे ॥6॥
इसी धरा में बहु-वत्स वृन्द ले।
अनेक-गायें चरती समोद थीं।
अनके बैठी वट-वृक्ष के तले।
शनैः शनैः थीं करती जुगालियाँ ॥7॥
स-गर्व गंभीर-निनाद को सुना।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते।
विमोहिता धेनु-समूह को बना।
स्व-गात की पीवरता प्रभाव से॥8॥
बड़े-सधे-गोप-कुमार सैकड़ों।
गवादि के रक्षण में प्रवृत्त थे।
बजा रहे थे कितने विषाण को।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का॥9॥
कई अनूठे-फल तोड़ तोड़ खा।
विनोदिता थे रसना बना रहे।
कई किसी सुंदर-वृक्ष के तले।
स-बंधु बैठे करते प्रमोद थे॥10॥
इसी घड़ी कानन-कुंज देखते।
वहाँ पधारे बलवीर-बंधु भी।
विलोक आता उनको सुखी बनी।
प्रफुल्लिता गोपकुमार-मण्डली ॥11॥
बिठा बड़े-आदर-भाव से उन्हें।
सभी लगे माधव-वृत्त पूछने।
बड़े-सुधी ऊधव भी प्रसन्न हो।
लगे सुनाने ब्रज-देव की कथा ॥12॥
मुकुन्द की लोक-ललाम-कीर्ति को।
सुना सबों ने पहले विमुग्ध हो।
पुनः बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने।
व्यथा बढ़े यों हरि-बंधु से कहा ॥13॥
मुकुन्द चाहे वसुदेव-पुत्र हों।
कुमार होवें अथवा ब्रजेश के।
बिके उन्हीं के कर सर्व-गोप हैं।
बसे हुए हैं मन प्राण में वही ॥14॥
अहो यही है ब्रज-भूमि जानती।
ब्रजेश्वरी हैं जननी मुकुन्द की।
परंतु तो भी ब्रज-प्राण हैं वही।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा॥15॥
मुकुन्द चाहे यदु-वंश के बनें।
सदा रहें या वह गोप-वंश के।
न तो सकेंगे ब्रज-भूमि भूल वे।
न भूल देगी ब्रज-मेदिनी उन्हें ॥16॥
वरंच न्यारी उनकी गुणावली।
बता रही यह, तत्त्व तुल्य ही।
न एक का किंतु मनुष्य-मात्र का।
समान है स्वत्व मुकुन्द-देव में ॥17॥
बिना विलोके मुख-चन्द श्याम का।
अवश्य है भू ब्रज की विषादिता।
परंतु सो है अधिकांश-पीड़िता।
न लौटने से बलदेव-बंधु ॥18॥
दयालुता-सज्जनता-सुशीलता।
बढ़ी हुई है घनश्याम मूर्ति की।
द्वि-दंड भी वे मथुरा न बैठते।
न फैलता व्यर्थ प्रपंच-जाल जो ॥19॥
सदा बुरा हो उस कूट-नीति का।
जले महापावक में प्रपंच सो।
मनुष्य लोकोत्तर-श्याम सा जिन्हें ।
सका नहीं रोक अकांत कृत्य से॥20॥
विडम्बना है विधी की बलीयसी।
अखण्डनीया-लिपि है ललाट की।
भला नहीं तो तुहिनाभिभूत हो।
विनष्ट होता रवि-बंधु-कंज क्यों ॥21॥
'विभूतिशाली-ब्रज, श्री मुकुन्द का।'
निवास भू द्वादश-वर्ष जो रहा।
बड़ी-प्रतिष्ठा इससे उसे मिली।
हुआ महा-गौरव गोप-वंश का ॥22॥
चरित्र ऐसा उनका विचित्र है।
प्रविष्ट होती जिसमें न बुद्धि है।
सदा बनाती मन को विमुग्ध है।
अलौकिकालोमकयी गुणावली ॥23॥
अपूर्व-आदर्श दिखा नरत्त्व का।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता।
सिखा उन्होंने चित की समुच्चता।
बना दिया मानव गोप-वृन्द को ॥24॥
मुकुन्द थे पुत्र ब्रजेश-नन्द के
गऊ चराना उनका न कार्य था।
रहे जहाँ सेवक सैकड़ों वहाँ।
उन्हें भला कानन कौन भेजता ॥25॥
परंतु आते वन में स-मोद वे।
अनन्त-ज्ञानार्जन के लिए स्वयं।
तथा उन्हें वांछित थी नितान्त ही।
वनान्त में हिंस्रक-जन्तु-हीनता ॥26॥
मुकुन्द आते जब थे अरण्य में।
प्रफुल्ल हो तो करते विहार थे।
विलोकते थे सु-विलास वारिका।
कलिन्दजा के कल कूल पै खड़े ॥27॥
स-मोद बैठे गिरि-सानु पै कभी।
अनेक थे सुंदर-दृश्य देखते।
बने महा-उत्सुक वे कभी छटा।
विलोकते निर्झर-नीर की रहे ॥28॥
सु-वीथिका में कल-कुंज-पुंज में।
शनैः शनैः वे स-विनोद घूमते ।
विमुग्ध हो हो कर थे विलोकते।
लता-सपुष्पा मृदु-मन्द-दूलिता ॥29॥
पतंगजा-सुंदर स्वच्छ-वारि में।
स-बंधु थे मोहन तैरते कभी।
कदम्ब-शाखा पर बैठ मत्त हो।
कभी बजाते निज-मंजु-वेणु वे ॥30॥
वनस्थली उर्वर-अंक उद्भवा।
अनेक बूटी उपयोगिनी-जड़ी।
रही परिज्ञात मुकुन्द-देव को।
स्वकीय-संधान-करी सु-बुद्धि से ॥31॥
वनस्थली में यदि थे विलोकते।
किसी परीक्षा-रत-धीर-व्यक्ति को।
सु-बूटियों का उससे मुकुंद तो।
स-मर्म थे सर्व-रहस्य जानते ॥32॥
नवीन-दूर्वा फल-फल-मूल क्या।
वरंच वे लौकिक तुच्छ-वस्तु को।
विलोकते थे खर-दृष्टि से सदा।
स्व-ज्ञान-मात्रा-अभिवृद्ध के लिए ॥33॥
तृणाति साधारण को उन्हें कभी।
विलोकते देख निविष्ट चित्त से।
विरक्त होती यदि ग्वाल-मण्डली।
उसे बताते यह तो मुकुन्द थे ॥34॥
रहस्य से शून्य न एक पत्र है।
न विश्व में व्यर्थ बना तृणेक है।
करो न संकीर्ण विचार-दृष्टि को।
न धूलि की भी कणिका निरर्थ है ॥35॥
वनस्थली में यदि थे विलोकते।
कहीं बड़ा भीषण-दुष्ट-जन्तु तो।
उसे मिले घात मुकुन्द मारते।
स्व-वीर्य से साहस से सु-युक्ति से ॥36॥
यहीं बड़ा-भीषण एक व्याल था।
स्वरूप जो था विकराल-काल का।
विशाल काले उसके शरीर की।
करालता थी मति-लोप-कारिणी॥37॥
कभी फणी जो पथ-मध्य वक्र हो।
कँपा स्व-काया चलता स-वेग तो।
वनस्थली में उस काल त्रास का।
प्रकाश पाता अति-उग्र-रूप था ॥38॥
समेट के स्वीय विशालकाय को।
फणा उठा, था जब व्याल बैठता।
विलोचनों को उस काल दूर से।
प्रतीत होता वह स्तूप-तुल्य था ॥39॥
विलोल जिह्वा मुख से मुहुर्मुहुः।
निकालता था जब सर्प क्रुद्ध हो।
निपात होता तब भूत-प्राण था।
विभीषिका-गर्त नितान्त गूढ़ में ॥40॥
प्रलम्ब आतंक-प्रसू, उपद्रवी।
अतीव मोटा यम-दीर्घ-दण्ड सा।
कराल आरक्तिम-नेत्रवान औ।
विषाक्त-फूत्कार-निकेत सर्प था ॥41॥
विलोकते ही उसको वराह की।
विलोप होती वर-वीरता रही।
अधीर हो के बनता अ-शक्त था।
बड़ा-बली वज्र-शरीर केशरी ॥42॥
असह्य होती तरु-वृन्द को सदा।
विषाक्त-साँसें दल दग्ध-कारिणी।
जिला विचूर्ण होती बहुशः शिला रहीं।
कठोर-उद्बन्धन-सर्प-गात्र से॥43॥
अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी।
विदग्ध होते नित थे पतंग से।
भयंकरी प्राणि-समूह-ध्वंसिनी।की
महादुरात्मा अहि-कोप-वह्नि थी॥44॥
अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह में।
निवास प्रायः करता भुजंग था।
परंतु आता वह था कभी-कभी।
यहाँ बुभुक्षा-वश उग्र-वेग से ॥45॥
विराजता सम्मुख जो सु-वृक्ष है।
बड़े-अनूठे जिसके प्रसून हैं।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे।
तले इसी पादप के स-मण्डली ॥46॥
दिनेश ऊँचा वर-व्योम मध्य हो।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था।
इतस्ततः थे बहु गोप घूमते।
असंख्य-गायें चरती समोद थीं॥47॥
इसी में अनूठे-अनुकूल-काल
अपार-कोलाहल आर्त्त-नाद से।
मुकुन्द की शान्ति हुई विदूरिता।
स-मण्डली वे शश-व्यस्त हो गये ॥48॥
विशाल जो है वट-वृक्ष सामने । ।
स्वयं उसी की गिरि-भंग-स्पर्धिनी।
समुच्च-शाखा पर श्याम जा चढ़े।
तुरन्त ही संयत औ सतर्क हो ॥49॥
उन्हें वहीं से दिखला पड़ा वही।
भयावना-सर्प दुरन्त-काल सा।
दिखा बड़ी निष्ठुरता विभीषिका।
मृगादि का जो करता विनाश था॥50॥
उसे लखे पा भय भाग थे रहे।
असंख्य-प्राणी वन में इतस्ततः।
गिरे हुए थे महि में अचेत हो।
समीप के गोप स-धेनु-मण्डली ॥51॥
स्व-लोचनों से इस क्रूर-काण्ड को।
विलोक उत्तेजित श्याम हो गये।
तुरन्त आ, पादप-निम्न, दर्प से।
स-वेग दौड़े खल-सर्प ओर वे ॥52॥
समीप जा के निज मंजु-वेणु को।
बजा उठे वे इस दिव्य-रीति से।
विमुग्ध होने जिससे लगा फणी।
अचेत-आभीर सचेत हो उठे॥53॥
मुहुर्मुहुः अद्भुत-वेणु-नाद साज
बना वशीभूत विमूढ़-सर्प को।
सु-कौशलों से वर-अस्त्र-शस्त्र से।
उसे वधा नन्द नृपाल नन्द ने ॥54॥
विचित्र है शक्ति मुकुन्द देव में।
प्रभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
सदैव होता जिससे सजीव है।
नितान्त-निर्जीव बना मनुष्य भी ॥55॥
अचेत हो भूर पर जो गिरे रहे।
उन्हीं सबों ने विविधा-सहायता।
अशंक की थी बलभद्र-बंधु की।
विनाश होता अवलोक व्याल का ॥56॥
कई महीने तक थी पड़ी रही।
विशाल-काया उसकी वनान्त में।
विलोप पीछे यह चिह्न भी हुआ।
अघोपनामी उस क्रूर-सर्प का ॥57॥
बड़ा-बली का एक विशाल-अश्व था।
वनस्थली में अपमृत्यु-मूर्ति सा।
दुरन्तता से उसकी, निपीड़िता।
नितान्त होती पशु-मण्डली रही ॥58॥
प्रमत्त हो, था जब अश्व दौड़ता।
प्रचंडता-साथ प्रभूत-वेग से।
अरण्य-भू थी तब भूरि-काँपती।
अतीव होती ध्वनिता दिशा रही॥59॥
विनष्ट होते शतशः शशादि थे।
सु-पुष्ट-मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ठ-अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का ॥60॥
बड़ा-बली उन्नत-काय-बैल भी।
विलोक होता उसको विपन्न सा।
नितान्त-उत्पीड़न-दंशनादि
न त्राण पाता सुरभी-समूह था॥61॥
पराक्रमी वीर बलिष्ठ-गोप भी।
न सामना थे करते तुरंग का।
वरंच वे थे बने विमूढ़ से।
उसे कहीं देख भयाभिभूत हो ॥62॥
समुच्च-शाखा पर वृक्ष की किसी।
तुरन्त जाते चढ़ थे स-व्यग्रता।
सुने कठोरा-ध्वनि अश्व-टाप की।
समस्त-आभीर अतीव-भीत हो ॥63॥
मनुष्य आ सम्मुख स्वीय-प्राण को।
बचा नहीं था सकता प्रयत्न से।
दुरन्तता थी उसकी भयावनी।
विमूढ़कारी रव था तरंग का ॥64॥
मुकुन्द ने एक विशाल-दण्ड ले।
स-दर्प घेरा यक बार बाजि को।
अनन्तराघात अजस्त्र से उसे।
प्रदान की वांछित प्राण-हीनता ॥65॥
विलोक ऐसी बलवीर-वीरता।
अशंकता साहस कार्य-दक्षता।
समस्त-आभीर विमुग्ध हो गये।
चमत्कृता हो जन-मण्डली उठी॥66॥
वनस्थली कण्टक रूप अन्य भी।
कई बड़े-क्रर बलिष्ठ-जन्तु थे।
हटा उन्हें भी जिन कौशलादि से।
किया उन्होंने उसको अकण्टका ॥67॥
बड़ा-बली-बालिश व्योम नाम का।
वनस्थली में पशु-पाल एक था।
अपार होता उसको विनोद था।
बना महा-पीड़ित प्राणि-पंज को ॥68॥
प्रवंचना से उसको प्रवंचिता।
विशेष होती ब्रज की वसुंधरा।
अनेक-उत्पात पवित्र-भूमि में।
सदा मचाता यह दुष्ट-व्यक्ति था॥69॥
कभी चुराता वृष-वत्स-धेनु था।
कभी उन्हें था जल-बीच बोरता।
प्रहार-द्वारा गुरु-यष्टि के कभी।
उन्हें बनाता वह अंग-हीन था ॥70॥
दुरात्मता थी उसकी भयंकरी।
न खेद होता उसको कदापि था।
निरही गो-वत्स-समूह को जला।
वृथा लगा पावक कुंज-पुंज में ॥71॥
अबोध-सीधे बहु-गोप-बाल को।
अनेक देता वन-मध्य कष्ट था।
कभी कभी था वह डालता उन्हें।
डरावनी मेरु-गुहा समूह में ॥72॥
विदार देता शिर था प्रहार से।
कँपा कलेजा दृग फोड़ डालता।
कभी दिखा दानव सी दुरन्तता।लागत
निकाल लेता बहु-मूल्य-प्राण था ॥73॥
प्रयत्न नाना ब्रज-देव ने किये।
सुधार चेष्टा हित-दृष्टि साथ की।
परंतु छूटी उसकी न दुष्टता।
न दूर कोई कु-प्रवृत्ति हो सकी ॥74॥
विशुद्ध होती, सु-प्रयत्न से नहीं।
प्रभूत-शिक्षा उपदेश आदि से।
प्रभाव-द्वारा बहु-पूर्व पाप के।
मनुष्य-आत्मा स-विशेष दूषिता ॥75॥
निपीड़िता देख स्व-जन्मभूमि को।।
अतीव उत्पीड़न से खलेन्द्र के।
समीप आता लख एकदा उसे।
स-क्रोध बोले बलभद्र-बंधु यों ॥76॥
सुधार-चेष्टा बहु-व्यर्थ हो गई।
न त्याग तू ने कु-प्रवृत्ति को किया।
अतः यही है अब युक्ति उत्तमा।
तुझे वधूं मैं भव-श्रेय-दृष्टि से॥77॥
अवश्य हिंसा अति-निंद्य-कर्म है।
निगम तथापि कर्त्तव्य-प्रधान है यही।
न सद्म हो पूरित सर्प आदि से।
वसुंधरा में पनपें न पातकी ।।78 ।।
मनुष्य क्या एक पिपीलिका कभी।
न वध्य है जो न अश्रेय हेतु हो।
न पाप है किं च पुनीत-कार्य है।
पिशाच-कर्मी-नर की वध-क्रिया।।79 ।।
समाज-उत्पीड़क धर्म-विप्लवी ।
स्व-जाति का शत्रु दुरन्त पातकी।
मनुष्य-द्रोही भव-प्राणी-पुंज का।
न है क्षमा-योग्य वरंच वध्य है।।80॥
क्षमा नहीं है खल के लिए भली।
समाज-उत्सादक दण्ड योग्य है।
कु-कर्म-कारी नर उबारना।
सु-कर्मियों को करता विपन्न है ॥81॥
अतः अरे पामर सावधान हो।
समीप तेरे अब काल आ गया।
जन पा सकेगा खल आज त्राण तू।
गणना सम्हाल तेरा वध वांछनीय है ॥82॥
स-दर्प बातें सुन श्याम-मूर्ति की
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी।
उठा स्वीकाया-गुरु-दीर्घ यष्टि को।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को ॥83॥
अपूर्व-आस्फालन साथ श्याम ने।
अतीव-लांबी वह यष्टि छीन ली।
पुनः उसी के प्रबल-प्रहार से।
निपात उत्पात-निकेत का किया॥84॥
गुणावली है गरिमा विभूषिता।
गरीयसी गौरव-मूर्ति-कीर्ति है।
उसे सदा संयत-भाव साथ गा।
अतीव होती चित-बीच शान्ति है॥85॥
वनस्थली में पुर मध्य ग्राम में।
अनेक ऐसे थल हैं सुहावने।
अपूर्व-लीला व्रत-देव ने जहाँ।
स-मोद की है मन-मुग्धकारिणी ॥86॥
उन्हीं थलों को जनता शनैः शनैः।
बना रही है ब्रज-सिद्ध पीठ सा।
उन्हीं थलों की रज श्याम-मूर्ति के।
वियोग में हैं बहु-बोध-दायिनी ॥87॥
अपार होगा उपकार लाडिले ।
यहाँ पधारें यक बार और जो।
प्रफुल्ल होगी ब्रज-गोप-मण्डली।
विलोक आँखों वदनारविन्द को ॥88॥
मन्दाक्रान्ता छंद
श्रीदामा जो अति-प्रिय सखा श्यामली मूर्ति का था।
मेधावी जो सकल-ब्रज के बाबकों में बड़ा था।
पूरा ज्योंही कथन उसका हो गया मुग्ध सा हो।
बोला त्योंही मधुर-स्वर से दूसरा एक ग्वाला॥89॥
मालिनी छंद
विपुल-ललित-लीला-धाम आमोद-प्याले।
सकल-कलित-क्रीड़ा कौशलों में निराले।
अनुपम-वनमाला को गले बीच डाले।
कब उमग मिलेंगे लोक-लावण्य-वाले ॥90॥
कब कुसुमित-कुंजों में बजेगी बता दो।
वह मधु-मय-प्यारी-बाँसुरी लाडिले की।
कब कल-यमुना के कूल वृन्दाटवी में।
चित-पुलकितकारी चारु आलाप होगा ॥91॥
कब प्रिय विहरेंगे आ पुनः काननों में।
कब वह फिर खेलेंगे चुने-खेल-नाना।
विविध-रस-निमग्ना भाव सौंदर्य-सिक्ता।
कब वर-मुख-मुद्रा लोचनों में लसेगी ॥92 ॥
यदि ब्रज-धन छोटा खेल भी खेलते थे।
क्षण भर न गँवाते चित्त-एकाग्रता थे।
बहु चकित सदा थीं बालकों को बनाती।
अनुमत-मृदुता में छिप्रता की कलायें ॥93॥
चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं।
वर सब-विषयों में जो उन्हें हैं बनाती।
अति-कठिन-कला में केलि-क्रीड़ादि में भी।
वह मुकुट सबों थे मनोनीत होते ॥94॥
सबल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिले को।
निज छल बल-द्वारा था नहीं जीत पाता।
बहु अवसर ऐसे आँख से हैं विलोके।
जब कुँवर अकेले जीतते थे शतों को ॥95॥
तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा।
वह निज-सुहृदों से थे स्वयं हार खाते।
वह कतिपय जीते-खेल को थे जिताते।
सफलित करने को बालकों की उमंगें ॥96॥
वह अतिशय-भूखा देख के बालकों को।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी-शीघ्रता से।
निज-कमल-करों से तोड़ मीठे-फलों को।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हें यत्न-द्वारा ॥97॥
सरस-फल अनूठे-व्यंजनों को यशोदा।
प्रति-दिन वन में थीं भेजती सेवकों से।
कह कह मृदु-बातें प्यार से पास बैठे।
ब्रज-रमण खिलाते थे उन्हें गोपजों को ॥98॥
नव किशलय किम्वा पीन-प्यारे-दलों से।
वह ललित-खिलौने थे अनेकों बनाते।
वितरण कर पीछे भूरि-सम्मान द्वारा।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को ॥99॥
अभिनव-कलिका से पुष्प से पंकजों से ।
रच अनुपम-माला भव्य-आभूषणों को।
वह निज-कर से थे बालकों को पिन्हाते।
बहु-सुखित बनाते यों सखा-वृन्द को थे॥100॥
वह विविध-कथायें देवता-दानवों की।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से।
वह हँस-हँस बातें थे अनूठी सुनाते।
सुखकर-तरु-छाया में समासीन हो के ॥101॥
ब्रज-धन जब क्रीड़ा-काल में मत्त होते।
तब अभि मुख होती मूर्ति तल्लीनता की।
बहु थल लगती थीं बोलने कोकिलायें।
यदि वह पिक का सा कुंज में कूकते थे॥102॥
यदि वह पपीहा की शारिका या शुकी की।
श्रुति-सुखकर-बोली प्यार से बोलते थे।
कलरव करते तो भूरि-जातीय-पक्षी।
ढिग-तरु पर आ के मत्त हो बैठते थे ॥103॥
यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता।
यदि कलित कलापी-तुल्य वे नाचते थे।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनों को ॥104॥
यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी।
मृग-गण समता की तो न थे ताब लाते।
यदि वह वन में थे गर्जते केशरी सा।
थर-थर कँपता तो मत्त-मातङ्ग भी था॥105॥
नवल-फल-दलों औ पुष्प-संभार-द्वारा।
विरचित कर के वे राजसी-वस्तुओं को।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो।
वह छवि बन आती थी विलोक दृगों से ॥106॥
यह अवगत होता है वहाँ-बंधु मेरे।
कल कनक बनाये दिव्य-आभूषणों को।
स-मुकुट मन-हारी सर्वदा पैन्हते हैं।
सु-जटित जिनमें हैं रत्न आलोकशाली ॥107॥
शिर पर उनके है राजता छत्र-न्यारा।
सु-चमर दुलते हैं, पाट हैं रत्न शोभी।
परिकर-शतश: हैं वस्र औ वेशवाले।
वरचित नभ चुम्बी सद्म हैं स्वर्ण द्वारा ॥108॥
इन सब विभवों की न्यूनता थी न याँ भी।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे।
यह हरित-तृणों से शोभिता भूमि रम्या।
प्रिय-तर उनको थी स्वर्ण-पर्यङ्क से भी ॥109॥
यह अनुपम-नीला-व्योम प्यारा उन्हें था।
अतुलित छविवाले चारु-चन्द्रातपों से।
यह कलित निकुंजें थीं उन्हें भूरि प्यारी।
मयहृदय-विमोही-दिव्य-प्रासाद से भी ॥110॥
समधिक मणि-मोती आदि से चाहते थे।
विकसित-कुसुमों को मोहिनी मूर्ति मेरे।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण-आभूषणों से।
वह सुललित पुष्पों के अलंकार ही को ॥111॥
अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का।
अहह वह नहीं तो क्यों सभी भूल जाते।
यह नित-नव कुंजें भूमि शोभा-निधाना।
प्रति-दिवस उन्हें तो क्यों नहीं याद आतीं ॥112॥
सुन कर वह प्रायः गोप के बालकों से।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट-गाथा।
वन तज उन गेहों मध्य थे शीघ्र जाते।
नियमन करने को सर्ग-संभूत-वाधा ॥113॥
यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते।
रुज-ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते।
यदि कलह वितण्डावाद की वृद्धि होती।
वह मृदु-वचनों से तो उसे भी भगाते ॥114॥
'बहु नयन, दुखी हो वारि-धारा बहा के।'
पथ प्रियवर का ही आज भी देखते हैं
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होंने नहीं ली।
वह प्रथित दया का धाम भूल उन्हें क्यों ॥115॥
पद-रज ब्रज-भू है चाहती उत्सुका हो।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपों का।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनों की।
सरसिज मुख-शोभा देखने को पिपासा ॥116॥
प्रतपित-रवि तीखी-रश्मियों से शिखी हो।
प्रतिपल चित से ज्यों मेघ को चाहता है।
ब्रज-जन बहु तापों से महा तप्त हो के।
बन घन-तन-स्नेही हैं समुत्कण्ठ त्योंही॥117॥
नव-जल-धर-धारा ज्यों समुत्सन्न होते।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती।
हितकर दुख-दग्धों का उसी भाँति होगा।
नव-जलद शरीरी श्याम का सद्म आना॥118॥
द्रुतविलम्बित छंद
कथन यों करते ब्रज की व्यथा।
गगन-मण्डल लोहित हो गया।
इस लिए वुध-ऊधव को लिए।
सकल ग्वाल गये निज-गेह को ॥119॥
चतुर्दश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।
छोटे-छोटे सु-द्रुम उसके मुग्ध-कारी बड़े थे।
ऐसे न्यारे प्रति-विटप के अंक में शोभिता थी।
लीला-शीला-ललित लतिका पुष्पाभारावनम्रा ॥1॥
बैठे ऊधो मुदित-चित से एकदा थे इसी में।
लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।
धीरे-धीरे तपन-किरणें फैलती थीं दिशा में।
न्यारी-क्रीड़ा उमंग करती वायु थी पल्लवों से ॥2॥
बालाओं का यक दल इसी काल आता दिखाया।
आशाओं को ध्वनित करके मंजु-मंजीरकों से।
देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग में थीं।
भोली-भाली कपितय बड़ी-सुन्दरी-बालिकायें ।।3 ॥
नीला-प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा।
बोली हो के विरस-वदना अन्य-गोपांगना से।
कालिन्दी को पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।
लीला-मग्ना जलद-तन की मूर्ति है याद आती ।।4।।
श्यामा-बातें श्रवण कर के बालिका एक रोई।
रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।
ज्यों ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारि-धारा।
त्यों त्यों आँसू अधिकतर थे लोचनों मध्य आते ॥5॥
ऐसा रोता निरख उसको एक मर्मज्ञ बोली।
लियों रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी।
कैसे तेरे युगल-दृग ए ज्योति-शाली रहेंगे।
तू देखेगी वह छविमयी-श्यामली-मूर्ति कैसे ॥6॥
जो यों ही तू बहु-व्यथित हो दग्ध होती रहेगी।
का तेरे सूखे-कृशित-तन में प्राण कैसे रहेंगे।
शिा जी से प्यारा-मुदित-मुखड़ा जो न तू देख लेगी।
कि तो वे होंगे सुखित न कभी स्वर्ग में भी सिधा के ॥7॥
मिर्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली।
तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता-बालिका को।
जो बालायें विरह-दव में दग्धिता हो रही हैं।
आँखों का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है॥8॥
वाष्प-द्वारा बहु-विध-दुखों वर्द्धिता-वेदना के।
बालाओं का हृदय-नभ जो है समाच्छन्न होता।
तो निर्द्धूता तनिक उसकी म्लानता है न होती।
पर्जन्यों सा न यदि बरसें वारि हो, वे दृगों से॥9॥
प्यारी-बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी।
न्यारा-प्यारा-वदन जिसने था कभी देख पाया।
वे होती हैं बहु-व्यथित जो श्याम हैं याद आते।
क्यों रोवेगी न वह जिसके जीवनाधार वे हैं॥10॥
प्यारे-भ्राता-सुत-स्वजन सा श्याम को चाहती हैं।
बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो।
प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है।
हा! क्यों बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी ॥11॥
ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई।
त्यों सारी ही करुण-स्वर से रो उठीं कम्पिता हो।
ऐसा न्यारा-विरह उनका देख उन्माद-कारी।
धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये ॥12॥
ज्यों पाते ही सम-तल धरा वारि-उन्मुक्त-धरा।
पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विवता को।
त्योंही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी।
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का ॥13॥
प्यारी-बातें स- विध कह के मान-सम्मान-सिक्ता।
ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया।
पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये।
क्या वे भूले कमल-पग की प्रेमिका गोपियों को॥14॥
ऊधो बोले समय-गति है गूढ़-अज्ञात बेंडी।
क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता।
आवेंगे या न अब ब्रज में आ सकेंगे बिहारी।
हा! मीमांसा इस दुख-पगे प्रश्न की क्यों करूँ मैं॥15॥
प्यारा वृन्दा-विपिन उनको आज भी-सा है।
वे भेले हैं न प्रिय-जननी और न प्यारे-पिता को।
वैसी ही हैं सुरति करते श्याम गोपांगना को।
वैसी ही है प्रणय-प्रतिमा-बालिका याद आती॥16॥
प्यारी-बातें कथन करके बालिका-बालकों की।
माता की और प्रिय की गोप-गोपांगना की।
मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते।
उच्छ्वासों से व्यथित-उर के नेत्र में वारि लाते॥17॥
सांय- प्रात: प्रति-पल-घटी है, उन्हें याद आती।
सोते में भी ब्रज-अवनि का स्पप्न वे देखते हैं।
कुंजों में ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है।
देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी-मूर्ति का है॥18॥
हो के भी वे ब्रज-अवनि के चित्त से यों सनेही।
क्यों आते हैं न प्रति-जन का प्रश्न होता यही है।
कोई यों है कथन करता तीन ही कोस आना।
क्यों है मेरे कुँवर-वर को कोटिश: कोस होता॥19॥
दोनों आँखें सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हों।
जो वारों को कुँवर-पथ को देखते हैं बिताते
वे हो-हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी।
तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य ही है ॥20॥
ऐ संतप्ता-विरह-विधुरा गोपियों किंतु कोई।
थोड़ा सा भी कुँवर-वर के मर्म का है न ज्ञाता।
वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियों के हितैषी।
प्राणों से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा ॥21॥
स्वार्थों को औ विपुल-सुख को तुच्छ देते बना हैं।
जो आ जाता जगत-हित है सामने लोचनों के।
हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त।
लिप्साओं से भरित उर की सैकड़ों लालसायें ॥22॥
ऐसे-ऐसे जगत-हित के कार्य हैं चक्षु आगे।
हैं सारे ही विषम जिनके सामने श्याम भूले।
सच्चे जी से परम-व्रत के व्रती हो चुके हैं।
निष्कामी से अपर-कृति के कूल-वर्ती अतः हैं ॥23॥
मीमांसा हैं प्रथम करते स्वीय कर्त्तव्य ही की।
पीछे वे हैं निरत उसमें धीरता साथ होते।
हो के वांछा-विवश अथवा लिप्त हो वासना से।
प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य-कर्त्तव्य से हैं ।।24 ॥
घूमूं जा के कुसुम-वन में वायु-आनन्द मैं लूँ।
देखू प्यारी सुमन-लतिका चित्त यों चाहता है।
रोता कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे।
तो जावेंगे न उपवन में शान्ति देंगे उसे वे॥25॥
जो सेवा हों कुँवर करते स्वीय-माता-पिता की।
या वे होवें स्व-गुरुजन को बैठे सम्मान देते।
ऐसे बेले यदि सुन पड़े आर्त-वाणी उन्हें तो।
वे देवेंगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ों की॥26॥
जो वे बैठे सदन करते कार्य होवें अनेकों।
औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के
गेहों को है दहन करती वर्धिता-ज्वाल-माला।
तो दौड़ेंगे तुरत तज वे कार्य प्यारे-सहस्रों ॥27॥
कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व-जातीय-प्राणी।
दुष्टात्मा हो, मनुज-कुल का शत्रु हो, पातकी हो।
तो वे सारी हृदय-तल की भूल के वेदनायें।
शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे॥28॥
हाथों में जो प्रिय-कुँवर के न्यस्त हो कार्य कोई।
पीड़ाकारी सकल-कुल का जाति का बांधवों का।
तो हो के भी दुखित उसको वे सुखी हो करेंगे।
निजो देखेंगे निहित उसमें लोक का लाभ कोई ॥29॥
अच्छे-अच्छे बहु-फलद औ सर्व-लोकोपकारी।
कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनों के।
पूरे-पूरे निरत उनमें सर्वदा हैं बिहारी।
जी से प्यारी ब्रज-अवनि में हैं इसी से न आते ॥30॥
हो जावेंगी बहु-दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा।
जो देवेंगी सु-फल मति के साथ सम्पन्न हो के।
है ऐसी नाना-परम-जटिला राज की नीतियाँ भी।
वाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति में हो रही हैं ॥31॥
तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण-प्यारे।
आवेंगे ही न अब ब्रज में औ उसे भूल देंगे।
जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं।
निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे॥32॥
हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है।
होते होते जगत कितने काम ही हैं न होते।
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये।
तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियों! खो न देना ॥33॥
जो संतप्ता-सलिल-नयना-बालिकायें कई हैं।
ऐ प्राचीना-तरल-हृदया-गोपियों स्नेह-द्वारा।
शिक्षा देना समुचित इन्हें कार्य होगा तुमारा।
होने पावें न वह जिससे मोह-माया-निमग्ना ॥34॥
जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक-सेवा किसे हैं।
जो जानेगा न वह, भव के श्रेय का मर्म क्या है।
जो सोचेगा न गुरु-गरिमा लोक के प्रेमिकों की।
कर्तव्यों में कुँवर-वर को तो बड़ा-क्लेश होगा॥35॥
प्रायः होता हृदय-तल है एक ही मानवों का।
जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।
जो पीड़ायें-प्रबल बन के एक को हैं सताती।
तो होने से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है ॥36॥
जो ऐसी ही रुदन करती बलिकायें रहेंगी।
पीड़ायें भी विविध उनको जो इसी भाँति होंगी।
यों ही रो-रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।
तो आवेगा ब्रज-अधिप के चित्त को चैन कैसे ॥37॥
जो होवेगा न चित उनका शांत स्वच्छन्दचारी।
तो वे कैसे जगत-हित को चारुता से करेंगे।
सत्कार्यों में परम-प्रिय के अल्प भी विघ्न-वाधा।
कैसे होगी उचित, चित में गोपियों, सोच देखो ॥38॥
धीरे-धीरे भ्रमित-मन को योग-द्वारा सम्हालो।
स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो।
भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मूर्तियों को।
यों होवेगा दुख शमन औ शान्ति न्यारी मिलेगी ॥39॥
ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी।
खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व-गोपी-जनों ने।
पीछे बोलीं अति-चकित हो म्लान हो उन्मना हो।
कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझें ॥40॥
हो जाते हैं भ्रमित जिसमें भूरि-ज्ञानी मनीषी।
कैसे होगा सुगम-पथ सो मंद-धी नारियों को।
छोटे-छोटे सरित-सर में डूबती जो तरी है।
सो भू-व्यापी सलिल-निधि के मध्य कैसे तिरेगी॥41॥
वे त्यागेंगी सकल-सुख औ स्वार्थ-सारा तजेंगी।
औ रक्खेंगी निज-हृदय में वासना भी न कोई।
ज्ञानी-ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो।
कैसे त्यागें हृदय-धन को प्रेमिका-गोपिकायें ॥42॥
भोगों को औ भुवि-विभव को लोक की लालसा को।
माता-भ्राता स्वप्रिय-जन को बंधु को बांधवों को।
वे भूलेंगी स्व-तन-मन को स्वर्ग की सम्पदा को।
हा! भूलेंगी जलद-तन की श्यामली मूर्ति कैसे॥43॥
जो प्यारा है अखिल-ब्रज के प्राणियों का बड़ा ही।
रोमों की भी अवलि जिसके रंग ही में रँगी है।
कोई देही बन अवनि में भूल कैसे उसे दे।
जो प्राणों में हृदय-तल में लोचनों में रमा हो।44॥
भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो।
देखी जा के सु-छवि जिसकी लोचनों में रमी हो।
कैसे भूले कुँवर जिनमें चित्त ही जा बसा है।
प्यारी-शोभा निरख जिसकी आप आँखें रमी हैं ॥45॥
कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दें गोपिकायें।
प्यारा-न्यारा निज-हृदय तो वे उसे काढ़ देंगी।
हो पावेगा न यह उनसे देह में प्राण होते।
उद्योगी हो हृदय-तल से श्याम को काढ़ देवें॥46॥
मीठे-मीठे वचन जिसके नित्य ही मोहते थे।
हा! कानों से श्रवण करती हूँ उसी की कहानी।
भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती।
जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनों में सदा थे॥47॥
मैं रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा।
या आँखों से पग-युगल की माधुरी देखती थी।
या है ऐसा कु-दिन इतना हो गया भाग्य खोटा।
मैं प्यारे के चरण-तल की धूलि भी हूँ न पाती ॥48॥
ऐसी कुंजें ब्रज-अवनि में हैं अनेकों जहाँ जा।
आ जाती है दृग-युगल के सामने मूर्ति-न्यारी।
प्यारी-लीला उमग जसुदा-लाल ने है जहाँ की।
ऐसी ठौरों ललक दृग हैं आज भी लग्न होते ॥49॥
फूली डालें सु-कुसुममयी नीप की देख आँखों।
आ जाती है हृदय-धन की मोहनी मूर्ति आगे।
कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा ।
हो जाती है उदय उर में माधुरी अम्बुदों सी ॥50॥
सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हों कुंज-पुंजें।
फूटें आँखें, हृदय-तल भी ध्वंस हो गोपियों का।
सारा वृन्दा-विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे।
तो भूलेंगे प्रथित-गुण के पुण्य-पाथोधि माधो ॥51॥
आसीना जो मलिन-वदना बालिकायें कई हैं।
ऐसी ही हैं ब्रज-अवनि में बालिकायें अनेकों।
जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो।
रोना-धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना ॥52॥
पूजायें त्यों विविध-व्रत औ सैकड़ों ही क्रियायें।
सालों की हैं परम-श्रम से भक्ति-द्वारा उन्होंने।
ब्याही जाऊँ कुँवर-वर से एक वांछा यही थी।
सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यों न होंगी॥53॥
जो वे जी सो कमल-दृग की प्रेमिका हो चुकी हैं।
भोला-भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी हैं।
जो आँखों में सु-छवि बसती मोहिनी-मूर्ति की है।
प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यों वे धरा-मध्य होंगी॥54॥
नीला-प्यारा-जलद जिनके लोचनों में रमा है।
कैसे होंगी अनुरत कभी धूम के पुंज में वे।
जो आसक्ता स्व-प्रियवर में वस्तुतः हो चुकी हैं।
वे दवेंगी ह्दय-तल में अन्य को स्थान कैसे॥55॥
सोचो ऊधो यदि रह गईं बालिकायें कुमारी।
कैसी होगी ब्रज-अवनि के प्राणियों को व्यथायें।
वे होवेंगी दुखित कितनी और कैसे विपन्ना।
हो जावेंगे दिवस उनके कंटकाकीर्ण कैसे!॥56॥
सर्वांगों में लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।
जो है घोरा परम-प्रवला औ महोछ्वास-शीला।
तोड़े देती प्रबल-तरि जो ज्ञान औ बुद्धि की है।
घातों से है दलित जिसके धैर्य का शैल होता ।।57॥
ऐसे ओखे-उदक-निधि में हैं पड़ी बालिकायें।
झोंके से है पवन बहती काल की वामता की।
आवर्तों में तरि-पतित है नौ-धनी है न कोई।
हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे हैं ॥58॥
शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।
वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।
हा! सो शोभा-सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।
सारे प्यारे कुसुम-कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते ॥59॥
जो मर्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।
ड्के देती परम-तप से प्राप्त सं-सिद्ध को है।
ए बालायें परम-सरला सर्वथा अप्रगल्भा।
कैसे ऐसी मदन-दव की तीव्र-ज्वाला सहेंगी।60॥
चक्री होते चकित जिससे काँपते हैं पिनाकी।
जो वज्री के हृदय-तल को क्षुब्ध देता बना है।
जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियों को।
कैसे ऐसे रति-रमण के वाण से वे बचेंगी ॥61॥
जो हो के भी परम-मृदु है वज्र का काम देता।
जो हो के भी कुसुम-करता शेल की सी क्रिया है।
जो हो के भी मधुर बनता है महा-दग्ध-कारी।
कैसे ऐसे मदन-शर से रक्षिता वे रहेंगी॥62॥
प्रत्यंगों में प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।
जो हो जाता अति विषम है काल-कूटादिकों सा।
मद्यों से भी अधिक जिसमें शक्ति उन्मादिनी है।
कैसे ऐसे मदन-मद से वे न उन्मत्त होंगी॥63॥
कैसे कोई अहह उनको देख आँखों सकेगा।
वे होवेंगी विकटतम औ घोर रोमांच-कारी।
पीड़ायें जो 'मदन' हिम के पात के तुल्य देगा।
स्नेहोत्फुल्ला-विकच-वदना बालिकांभोजिनी को ॥64॥
मेरी बातें श्रवण करके आप जो पूछ बैठे।
कैसे प्यारे-कुँवर अकेले ब्याहते सैकड़ों को।
तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च-ज्ञानी।
क्या ज्ञाता है न वुध-विदिता प्रेम की अंधता का ॥65 ॥
आसक्ता हैं विमल-विधु की तारिकायें अनेकों।
हैं लाखों ही कमल-कलियाँ भानु की प्रेमिकायें। ।
जो बालायें विपुल हरि में रक्त हैं चित्र क्या है?
प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है॥66॥
जो धाता ने अवनि-तल में रूप की सृष्टि की है।
तो क्यों ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।
माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।
क्यों मोहेंगी न बहु-सुमना-सुन्दरी-बालिकायें ॥67॥
जो मोहेंगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।
वे होवेंगी न यदि सफला क्यों न उद्भ्रान्त होंगी।
ऊधो पूरी जटिल इनकी हो गई है समस्या।
यों तो सारी ब्रज-अवनि ही है महा शोक-मग्ना ॥68॥
जो वे आते न ब्रज बरसों, टूट जाती न आशा।
चोटें खाता न उर उतना जी न यों ऊब जाता।
जो वे जा के न मधुपुर में वृष्णि-वंशी कहाते।
प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के॥69॥
ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले बड़े हैं।
ऐसा न्यारा-रतन जिनको आज यों हाथ आया।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के हैं बड़े ही अभागे।
जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं।70॥
भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग की रीति जाने।
कैसे बूझें अ-वुध अबला ज्ञान-विज्ञान बातें।
देते क्यों हो कथन कर के बात ऐसी व्यथायें।
देखू प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे बता दो ॥71॥
न्यारी-क्रीड़ा ब्रज-अवनि में आ पुन: वे करेंगे।
आँखें होंगी सुखित फिर भी गोप-गोपांगना की।
वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज में काननों में।
आवेंगे वे दिवस फिर भी जो अनूठे बड़े हैं ॥72॥
श्रेय:कारी सकल ब्रज की है यही एक आशा।
थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है।
ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा।
क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी ॥73॥
देखो सोचो दुखमय-दशा श्याम-माता-पिता की।
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको।
गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो।
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो ॥74॥
वसन्ततिलका छंद
बोली स-शोक अपरा यक गोपिका यों।
ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ।
जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ।
लौटल श्याम-घन को ब्रज-मध्य लाओ॥75॥
अत्यन्त-लोक-प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी
जैसा तुम्हें चरित मैं अब हूँ सुनाती।
ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा।
लावण्य-धाम फिर दिव्य-कला दिखावें ॥76॥
भू में रमी शरद की कमनीयता थी।
नीला अनन्त-नभ निर्मल हो गया था।
थी छा गई ककुभ में अमिता सिताभा।
उत्फुल्ल सी प्रकृति थी प्रतिभात होती ॥77॥
होता सतोगुण प्रसार दिगन्त में है।
है विश्व-मध्य सितता अभिवृद्धि पाती।
सारे-स-नेत्र जन को यह थे बताते।
कान्तार-काश, विकसे सित-पुष्प-द्वारा ॥78॥
शोभा-निकेत अति-उज्वल कान्तिशाली।
था वारि-विन्दु जिसका नव मौक्तिकों सा।
स्वच्छोदका विपुल-मंजुल-वीचि-शीला।
थी मन्द-मन्द बहती सरितातिभव्या ॥79॥
उच्छ्वास था न अब कूल विलोनकारी।
था वेग भी न अति-उत्कट कर्ण-भेदी।
आवत-जाल अब था न धरा-विलोपी।
धीरा, प्रशांत, विमलाम्बुवती, नदी थी॥80॥
था मेघ शून्य नभ उज्वल-कान्तिवाला।
मालिन्य-हीन मुदिता नव-दिग्वधू थी।
थी भव्य-भूमि गत-कर्दम स्वच्छ रम्या।
सर्वत्र धौत जल निर्मलता लसी थी॥81॥
कान्तार में सरित-तीर सुगह्वरों में।
थे मंद-मंद बहते जल स्वच्छ-सोते।
होती अजस्र उनमें ध्वनि थी अनूठी।
वे थे कृती शरद की कल-कीर्ति गाते ॥82॥
नाना नवागत-विहंग-वरूथ-द्वारा।
वापी तड़ाग सर शोभित हो रहे थे।
फूले सरोज मिष हर्षित लोचनों से।
वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे ॥83॥
नाना-सरोवर खिले-नव-पंकजों को।
ले अंक में विलसते मन-मोहते थे।
मानों पसार अपने शतशः करों को।
वे माँगते शरद से सु-विभूतियाँ थे॥84॥
प्यारे सु-चित्रित सितासित रंगवाले।
थे दीखते चपल-खंजन प्रांतरों में।
बैठी मनोरम सरों पर सोहती थी।
आई स-मोद ब्रज-मध्य मराल-माला ॥85॥
प्रायः निरम्बु कर पावस-नीरदों को।
पानी सुखा प्रचुर-प्रांतर औ पथों का।
न्यारे-असीम-नभ में मुदिता मही में।
व्यापी नवोदित-अगस्त नई-विभा थी॥86॥
था क्वार-मास निशि थी अति-रम्य-राका।
पूरी कला-सहित शोभित चन्द्रमा था।
ज्योतिर्मयी विमलभूत दिशा बना के।
सौंदर्य साथ लसती क्षिति में सिता थी॥87॥
शोभा-मयी शरद की ऋतु पा दिशा में।
निर्मेघ-व्योम-तल में सु-वसुंधरा में।
होती सु-संगति अतीव मनोहरा थी।
न्यारी कलाकर-कला नव स्वच्छता की॥88॥
प्यारी-प्रभा रजनी-रंजन की नगों को।
जो थी असंख्य नव-हीरक से लसाती।
ता वीचि में तपन की प्रिय-कन्यका के।
थी चारु-पूर्ण मणि मौक्तिक के मिलाती ॥89॥
थे स्नात से सकल-पादप चन्द्रिका से।
प्रत्येक-पल्लव प्रभा-मय दीखता था।
फैली लता विकच-वेलि प्रफुल्ल-शाखा।
डूबी विचित्र-तर निर्मल-ज्योति में थी ॥90॥
जो मेदिनी रजत-पत्र-मयी हुई थी।
किम्वा पयोधि-पय से यदि प्लाविता थी।
तो पत्र-पत्र पर पादप-वेलियों के।
पूरी हुई प्रथित-पारद-प्रक्रिया थी॥91॥
था मंद-मंद हँसता विधु व्योम-शोभी।
होती प्रवाहित धरातल में सुधा थी।
जो पा प्रवेश दृग में प्रिय अंशु-द्वारा।
थी मत्त-प्राय करती मन-मानवों का।।92॥
अत्युज्वला पहन तारक-मुक्त-माला।
दिव्यांबरा बन अलौकिक-कौमुदी से।
शोभा-भरी परम-मुग्धकरी हुई थी।
राका कलाकर-मुखी रजनी-पुरंध्री ॥93॥
पूरी समुज्वल हुई सित-यामिनी थी।
होता प्रतीत रजनी-पति भानु सा था।
पीती कभी परम-मुग्ध बनी सुधा थी।
होती कभी चकित थी चतुरा-चकोरी ॥94॥
ले पुष्प-सौरभ तथा पय-सीकरों को।
थी मन्द-मन्द बहती पवनाति प्यारी।
जो थी मनोरम अतीव-प्रफुल्ल-कारी।
हो सिक्त सुंदर सुधाकर की सुधा से॥95॥
चन्द्रोज्वला रजत-पत्र-वती मनोज्ञा।
शान्ता नितान्त-सरसा सु-मयूख सिक्ता।
शुभ्रांगिनी-सु-पवना सुजला सु-कूला।
सत्पुष्पसौरभवती वन-मेदिनी थी॥96॥
ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा में।
ऐसे मनोरम-अलंकृत-काल को पा।
वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।
आनन्द-कन्द ब्रज-गोप-गणाग्रणी की ॥97॥
भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध-कारी।
आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त-व्यापी।
पीछे पड़ा श्रवण में बहु-भावकों के
पीयूष के प्रमुद-वर्द्धक-विन्दुओं सा ॥98॥
पूरी विमोहित हुईं यदि गोपिकायें।
तो गोप-वृन्द अति-मुग्ध हुए स्वरों से।
फैली विनोद-लहरें ब्रज-मेदिनी में।
आनन्द-अंकुर उगा उर में जनों के ॥99॥
वंशी-निनाद सुन त्याग निकेतनों को।
दौड़ी अपार जनताति उमंगिता हो।
गोपी-समेत बहु गोप तथांगनायें।
आईं विहार-रुचि से वन-मेदिनी में ॥100॥
उत्साहिता विलसिता बहु-मुग्ध-भूता।
आई विलोक जनता अनुराग-मग्ना।
की श्याम ने रुचिर-क्रीड़न की व्यवस्था।
कान्तार में पुलिन पै तपनांगजा के ॥101॥
हो हो विभक्त बहुशः दल में सबों ने।
प्रारंभ की विपिन में कमनीय-क्रीड़ा।
बाजे बजां अति-मनोहर-कण्ठ से गा।
उन्मत्त-प्राय बन चित्त-प्रमत्तता से ॥102॥
मंजीर नूपुर मनोहर-किंकिणी की।
फैली मनोज्ञ-ध्वनि मंजुल वाद्य की सी।
छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई।
अत्यन्त कांत कर से कमनीय-वीणा ॥103॥
थापें मृदंग पर जो पड़ती सधी थीं।
वे थीं स-जीव स्वर-सप्तक को बनाती।
माधुर्य-सार बहु-कौशल से मिला के।
थीं नाद को श्रुति मनोहरता सिखाती ॥104॥
मीठे-मनोरम-स्वरांकित वेणु नाना।
हो के निनादित विनोदित थे बनाते।
थी सर्व में अधिक-मंजुल-मुग्धकारी।
वंशी महा-मधुर केशव कौशली की॥105 ॥
हो-हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से।
कान्तार में मुरलिका जब गूंजती थी।
तो पत्र-पत्र पर था कल-नृत्य होता।
रागांगना-विधु-मुखी चपलांगिनी का ॥106॥
भू-व्योम-व्यापित कलाधर की सुधा में।
न्यारी-सुधा मिलित हो मुरली-स्वरों की
धारा अपूर्व रस की महि में बहा के।
सर्वत्र थी अति-अलौकिकता लसाती ॥107॥
उत्फुल्ल थे विटप-वृन्द विशेष होते।
माधुर्य था विकच, पुष्प-समूह पाता।
होती विकाश-मय मंजुल वेलियाँ थीं।
लालित्य-धाम बनती नवला लता थीं॥108॥
क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली।
धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी।
थी नाचती उमगती अनुरक्त होती।
उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी॥109॥
पाई अपूर्व-स्थिरता मृदु-वायु ने थी।
मानों अचंचल विमोहित हो बनी थी।
वंशी मनोज्ञ-स्वर से बहु-मोदिता हो।
माधुर्य्यु-साथ हँसती सित-चन्द्रिका थी॥110॥
सत्कण्ठ साथ नर-नारि-समूह-गाना।
उत्कण्ठ था न किसको महि में बनाता।
तानें उमंगित-करी कल-कण्ठ जाता।
तंत्री रहीं जन-उरस्थल की बजाती। ॥111॥
ले वायु कण्ठ-स्वर, वेणु-निनाद-न्यारा।
प्यारी मृदंग-ध्वनि, मंजुल बीन-मीड़ें।
सामोद घूम बहु-पान्थ खगों मृगों को।
थीं मत्तप्राय नर-किन्नर को बनाती।॥112॥
हीरा समान बहु-स्वर्ण-विभूषणों में।
नाना विहंगरव में पिक-काकली सी।
होती नहीं मिलित थीं अति थीं निराली।
नाना-सुवाद्य-स्वन में हरि-वेणु-तानें ॥113॥
ज्यों ज्यों हुई अधिकता कल-वादिता की।
ज्यों ज्यों रही सरसता अभिवृद्धि पाती।
त्यों त्यों कला विवशता सु-विमुग्धता की।
होती गई समुदिता उर में सबों के ॥114॥
गोपी समेत अतएव समस्त-ग्वाले।
भूले स्व-गात-सुधि हो मुरली-रसाई।
गाना रुका सकल-वाद्य रुके स-वीणा।
वंशी-विचित्र-स्वर केवल गूंजता था॥115॥
होती प्रतीति उर में उस काल यों थी।
है मंत्र साथ मुरली अभीमंत्रिता सी।
उन्माद-मोहन-वशीकरणादिकों के।
हैं मंजु-धाम उसके ऋजु-रंध्र-सातों ॥116॥
पुत्र-प्रिया-सहित मंजुल-राग गा-गा।
ला-ला स्वरूप उनका जन-नेत्र-आगे।
ले-ले अनेक उर-वेधक-चारु-तानें।
की श्याम ने परम-मुग्धकरी क्रियायों ॥117॥
पीछे अचानक रुकीं वर-वेणु तानें।
चावों समेत सबकी सुधि लौट आई।
आनंद-नादमय कंठ-समूह-द्वारा।
हो-हो पड़ी ध्वनित बार कई दिशाएँ ॥118॥
माधो विलोक सबको मुद-मत्त बोले।
देखो छटा-विपिन की कल-कौमुदी में।
आना करो सफल कानन में गृहों से।
शोभामयी-प्रकृति की गरिमा विलोको ॥119॥
बीसों विचित्र-दल केवल नारि का था।
यों ही अनेक दल केवल थे नरों के।
नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रों।
उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम-बातें ॥120॥
सानन्द सर्व-दल कानन-मध्य फैला।
होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना।
देने लगा उर कभी नवला-लता को।
गाने लगा कलित-कीर्ति कभी कला की ॥121॥
आभा-अलौकिक दिखा निज-वल्लभा को।
पीछे कला-कर-मुखी कहता उसे था।
तोभी तिरस्कृत हुए छवि-गर्विता से।
ए होता प्रफुल्ल तम था दल-भावुकों का ॥122॥
जो कुल स्वच्छ-सर के नलिनी दलों में।
आबद्ध देख दृग से अलि-दारु-वेधी।
उत्फुल्ल हो समझता अवधारता था।
उद्दाम-प्रेम-महिमा दल-प्रेमिकों का॥123॥
विच्छिन्न हो स्व-दल से बहु-गोपिकायें।
स्वच्छन्द थीं विचरती रुचिर-स्थलों में।
या बैठ चन्द्र-कर-धौत-धरातलों में।
वे थीं स-मोद करती मधु-सिक्त बातें ॥124॥
कोई प्रफुल्ल-लतिका कर से हिला के।
वर्षा-प्रसून चय की कर मुग्ध होता।
कोई स-पल्लव स-पुष्प मनोज्ञ-शाखा।
था प्रेम साथ रखता कर में प्रिया के ॥125॥
आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली में।
बातें बड़ी-सरस थे सबको सुनाते।
हो भाव-मत्त-स्वर में मृदुता मिला के।
या थे महा-मधु-मयी-मुरली बजाते ॥126॥
आलोक-उज्वल दिखा गिरि-शृंग-माला।
थे यों मुकुन्द कहते छवि-दर्शकों से।
देखो गिरीन्द्र-शिर पै महती-प्रभा का।
है चन्द्र-कांत-मणि-मण्डित-क्रीट कैसा ॥127॥
धारा-मयी अमल श्यामल-अर्कजा में।
प्रायः स-तारक विलोक मयंक-छाया।
थे सोचते खचित-रत्न असेत शाटी।
है पैन्ह ली प्रमुदिता वन-भू-वधू ने ॥128॥
ज्योतिर्मयी-विकसिता-हसिता लता को।
लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के।
थे भाखते पति-रता-अवलम्बिता का।
कैसा प्रमोदमय जीवन है दिखाता ॥129॥
आलोक से लसित पादप-वृन्द नीचे।
छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के।
थे यों मुकुन्द कहते मलिनान्तरों का।
है वाह्य रूप बहु-उज्वल दृष्टि आता ॥130॥
ऐसे मनोरम-प्रभामय-काल में भी।
म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को।
थे यों ब्रजेन्दु कहते कुल-कामिनी को।
स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता ॥131॥
फूले हुए कुमुद देख सरोवरों में।
माधो सु-उक्ति यह थे सबको सुनाते।
उत्कर्ष देख निज-अंकपले-शशी का।
है वारि-राशि कुमुदों मिष हृष्ट होता ॥132॥
फैली विलोक सब ओर मयंक-आभा।
आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी।
है कीर्ति, भू ककुभ में अति-कांत छाई।
प्रत्येक धूलि-कणरंजन-कारिणी की ॥133॥
फूलों दलों पर विराजित ओस-बूंदें।
जो श्याम को दमकती द्युति से दिखातीं।
तो वे समोद कहते वन-देवियों ने।
की है कला पर निछावर-मंजु-मुक्ता ॥134॥
आपाद-मस्तक खिले कमनीय पौधे।
जो देखते मुदित होकर तो बताते।
होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से।
फूले नहीं नवल-पादप हैं समाते॥135॥
यों थे कलाकर दिखा कहते बिहारी।
है स्वर्ण-मेरु यह मंजुलता-धरा का।
है कल्प-पादप मनोहरताटवी का।
आनन्द-अंबुधि महामणि है मृगांक ॥136॥
है ज्योति-आकर पयोनिधि है सुधा का।
शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का।
है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा।
सर्वस्व है परम-रूपवती कला का ॥137॥
जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी।
वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी।
जैसी बही रससरी इस शर्वरी में।
वैसी कभी न ब्रज-भूतल में बही थी॥138॥
न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी।
वंशी-निनाद मन दे जिसने सुना है।
देखा विहार जिसने इस यामिनी में।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥139॥
जैसी बजी मधुर-बीन मृदंग-वंशी।
जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना।
जैसा बंधा इस महा-निशि में समाँ था।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥140॥
हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे।
देवे मयंक-कर को तज माधुरी भी।
तो भी नहीं ब्रज-धरा-जन के उरों से।
उत्फुल्ल-मूर्ति मनमोहन की कढ़ेगी॥141॥
धारा वही जल वही यमुना वही है।
है कुंज-वैभव वही वन-भू वही है।
हैं पुष्प-पल्लव वही ब्रज भी वही है।
ए हैं वही न घनश्याम बिना जनाते ॥142॥
कोई दुखी-जन विलोक पसीजता है।
कोई विषाद-वश रो पड़ता दिखाया।
कोई प्रबोध कर, 'है' परितोष देता।
है किंतु सत्य हित-कारक व्यक्ति कोई ॥143॥
सच्चे हितू तुम बनो ब्रज की धरा के।
ऊधो यही विनय है मुझ सेविका की।
कोई दुखी न ब्रज के जन-तुल्य होगा।
ए हैं अनाथ-सम भूरि-कृपाधिकारी॥144॥
मन्दाक्रान्ता छंद
बातों ही में दिन गत हुआ किंतु गोपी न ऊबीं।
वैसे ही थीं कथन करती वे व्यथायें स्वीकाया।
पीछे आई पुलिन पर जो सैकड़ों गोपिकायें।
वे कष्टों को अधिकतर हो उत्सुका थीं सुनाती॥145॥
वंशस्थ छंद
परंतु संध्या अवलोक आगता।
मुकुन्द के बुद्धि-निधान बंधु ने।
समस्त गोपी-जन को प्रबोध दे।
समाप्त आलोचित-वृत्त को किया ॥146॥
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त अतीव सराहना।
कर अलौकिक-पावन प्रेम की।
ब्रज-वधू-जन की कर सान्त्वना।
ब्रज-विभूषण-बंधु बिदा हुए ॥147॥
पंचदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
छाई प्रातः सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवों में।
कुंजों में थे भ्रमण करते हो महा-मुग्ध ऊधो।
आभा-वाले अनुपम इसी काल में एक बाला।
भावों-द्वारा-भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई ॥1॥
नाना बातें कथन करते देख पुष्पादिकों से।
उन्मत्ता की तरह करते देख न्यारी-क्रियायें।
उत्कण्ठा के सहित उसका वे लगे भेद लेने।
कुंजों में या विटपचय की ओट में मौन बैठे ॥2॥
थे बाला के दृग-युगल के सामने पुष्प नाना।
जो हो-हो के विकच, कर में भानु के सोहते थे।
शोभा पाता यक कुसुम था लालिमा पा निराली।
सो यों बोली निकट उसके जा बड़ी ही व्यथा से॥3॥
आहा कैसी तुझ पर लसी माधुरी है अनूठी।
तू ने कैसी सरस-सुषमा आज है पुष्प पाई।
चूसूं चाटू नयन भर मैं रूप तेरा विलोकूँ।
जी होता है हृदय-तल से मैं तुझे ले लगा लूँ॥4॥
क्या बातें हैं मधुर इतना आज तू जो बना है।
क्या आते हैं ब्रज-अवनि में मेघ सी कान्तिवाले?।
या कुंजों में अटन करते देख पाया उन्हें है।
या आ के है स-मुद परसा हस्त-द्वारा उन्होंने ॥5॥
तेरी प्यारी मधुर-सरसा-लालिमा है बताती।
डूबा तेरा हृदय-तल है लाल के रंग ही में।
मैं होती हूँ विकल पर तू बोलता भी नहीं है।
कैसे तेरी सरस-रसना कुंठिता हो गई है॥6॥
हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ।
जो जिह्वा हूँ कथन-रहिता-पंखड़ी को बनाती।
तू क्यों होगा सदय दुख क्यों दूर मेरा करेगा।
तू काँटों से जनित यदि है काठ का जो सगा है ।।7।।
आ के जूही-निकट फिर यों बालिका व्यग्र बोली।
मरी बातें तनिक न सुनी पातकी-पाटलों ने।
पीड़ा नारी-हृदय-तल की नारि ही जानती है।
जूही तू है विकच-वदना शान्ति तू ही मुझे दे॥8॥
तेरी भीनी-महँक मुझको मोह लेती सदा थी।
क्यों है प्यारी न वह लगती 'आज' सच्ची बता दे।
क्या तेरी है महँक बदली या हुई और ही तू।
या तेरा भी सरबस गया साथ ऊधो-सखा के॥9॥
छोटी-छोटी रुचिर अपनी श्याम-पत्रावली में।
तू शोभा से विकच जब थी भूरिता साथ होती।
ताराओं से खचित नभ सी भव्य तो थी दिखाती।
हा! क्यों वैसी सरस-छवि से वंचिता आज तू है ॥10॥
वैसी ही है सकल दल में श्यामता दृष्टि आती।
तू वैसी ही अधिकतर है वेलियों-मध्य फूली।
क्यों पाती हूँ न अब तुझमें चारुता पूर्व जैसी।
क्यों है तेरी यह गत हुई क्या न देगी बता तू॥11॥
मैं पाती हूँ अधिक तुझसे क्यों कई एक बातें।
क्यों देती है व्यथित कर क्यों वेदना है बढ़ाती।
क्यों होता है न दुख तुझको वंचना देख मेरी।
क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी ॥12॥
हो-हो पूरी चकित सुनती वेदना है हमारी।
या तू खोले वदन हँसती है दशा देख मेरी।
मैं तो तेरा सुमुखि! इतना मर्म भी हूँ न पाती।
क्या आशा है अपर तुझसे है निराशामयी तू ।।13।।
जो होता है सुखित, उसको अन्य की वेदनायें।
क्या होती हैं विदित वह जो भुक्त-भोगी न होवे।
तू फूली है हरित-दल में बैठ के सोहती है।
क्या जानेगी मलिन बनते पुष्प की यातनायें ॥14॥
तू कोरी है न, कुछ तुझ में प्यार का रंग भी है।
क्या देखेगी न फिर मुझको प्यार की आँख से तू।
मैं पूछूगी भगिनि! तुझसे आज दो-एक बातें।
तू क्या भी है प्रिय-मगन से यों महा-शोक-मग्ना॥15॥
थोड़ी लाली पुलकित-करी पंखड़ी-मध्य जो है।
क्या सो वृन्दा-विपिन-पति की प्रीति की व्यंजिका है।
जो है तो तू सरस-रसना खोल ले औ बता दे।
क्या तू भी है प्रिय-गमन से यों महा-शोक-मग्ना॥16॥
मेरा जी तो व्यथित बन के बावला हो रहा है।
व्यापी सारे हृदय-तल में वेदनायें सहस्रों।
मैं पाती हूँ न कल दिन में, रात में ऊबती हूँ।
भींगा जाता सब वदन है वारि-द्वारा दृगों के॥17॥
क्या तू भी है रुदन करती यामिनी-मध्य यों ही।
जो पत्तों में पतित इतनी वारि की बूँदियाँ हैं।
पीड़ा द्वारा मथित-उर के प्रायशः काँपती है।
या तू होती मृदु-पवन से मन्द आन्दोलिता है॥18॥
तेरे पत्ते अति-रुचिर है कोमला तू बड़ी है।
तेरा पौधा कुसुम-कुल में है बड़ा ही अनूठा।
मेरी आँखें ललक पड़ती हैं तुझे देखने को।
हा! क्यों तो भी कथित चित की तू न आमोदित है ॥19॥
हा! बोली तू न कुछ मुझसे औ बताईं न बातें।
मेरा जी है कथन करता तू हुई तद्गता है
मेरे प्यारे-कुँवर तुझको चित्त से चाहते थे।
तेरी होगी न फिर दयिते! आज ऐसी दशा क्यों ॥20॥
जूही बोली न कुछ जतला प्यार बोली चमेली।
मैंने देखा दृग-युगल से रंग भी पाटलों का।
तू बोलेगा सदय बन के ईदृशी है न आशा।
पूरा कोरा निठुरपन के मूर्ति ऐ पुष्प बेला ॥21॥
मैं पूछूगी तदपि मुझसे आज बातें स्वकीया।
तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।
क्यों होते हैं पुरुष कितने, प्यार से शून्य कोरे।
क्यों होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा ॥22॥
आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मैं हूँ।
तेरी तीखी महँक मुझको कष्टिता है बनाती।
क्यों होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की।
क्यों तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू ॥23॥
तेरी सारे सुमन-चय से श्वेतता उत्तमा है।
अच्छा होता अधिक यदि तू सात्विकी वृत्ति पाता।
हा! होती है प्रकृति रुचि में अन्यथा कारिता भी।
तेरा एरे निठुर नतुवा साँवला रंग होता ॥24॥
नाना पीड़ा निठुर-कर से नित्य मैं पा रही हूँ।
तेरे में भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है।
हो-हो खिन्ना परम तुझसे मैं अतः पूछती हूँ।
क्यों देते हैं निठुर जन यों दूसरों को व्यथायें ॥25॥
हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है।
मैं कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ।
खोटे होते दिवस जब हैं भाग्य जो फूटता है।
कोई साथी अवनि-तल में है किसी का न होता॥26॥
जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के।
पीड़ा मेरे हृदय-तल की पाटलों ने न जानी।
तो तू हो के धवल-तन औ कुन्त-आकार-अंगी।
क्यों बोलेगा व्यथित चित की क्यों व्यथा जान लेगा॥27॥
चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली।
पाई जाती सुरभि तुझमें एक सत्पुष्प-सी है
तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता।
क्या है ऐसी कसर तुझमें न्यूनता कौन सी है ॥28॥
क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।
क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।
तू ने की है सुमुखि ! अलि का कौन सा दोष ऐसा।
जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है ॥29॥
सर्वांगों में सरस-रज और धूलियों को लपेटे।
आ पुष्पों में स-विधि करती गर्भ-आधान जो है।
जो ज्ञाता है मधुर-रस का मंजु जो गूंजता है।
ऐसे प्यारे रसिक-अलि से तू असम्मानिता है ॥30॥
जो आँखों में मधुर-छवि की मूर्ति सी आँकता है।
जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका-शशी है।
जो वंशी के सरस-स्वर से है सुधा सी बहाता ।
ऐसे माधो-विरह-दव से मैं महादग्धिता हूँ॥31॥
मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनायें कई हैं।
आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।
जो रोती हैं दिवस-रजनी दोष जाने बिना ही।
ऐसी भी हैं अवनि-तल में जन्म लेती अनेकों ॥32॥
मैंने देखा अवनि-तल में श्वेत ही रंग ऐसा।
जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।
तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखो।
क्या तू मेरे हृदय-तल के रंग में भी रँगेगा॥33॥
क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते हैं।
तू कैसा है रुचिर लगता पत्तियों-मध्य फूला।
तो भी कैसी व्यथित-कर है सो कली हाय! होती।
हो जाती है विधि-कुमति से म्लान फूले बिना जो ॥34॥
मेरे जी की मृदुल-कलिका प्रेम के रंग राती।
म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली।
क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू ।
या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा ॥35॥
वे हैं मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को।
जो तू मेरे हृदय-तल में अल्प भी ला सकेगा।
हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा।
तो तू मेरे मलिन-मन की म्लानता पा सकेगा॥36॥
हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी।
जो तू होगा व्यथित न किसी कष्टिता की व्यथा से।
कैसे तेरी सुमन-अभिधा सार्थ ऐ कुन्द होगी।
जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितों से॥37॥
सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया।
चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है।
यों काँटों से भरित तुझको क्यों उसीने किया है।
दी है धूली अलि अवलि की दृष्टि-विध्वंसिनी क्यों ॥38॥
कालिन्दी सी कलित-सरिता दर्शनीया-निकुंजें।
प्यारा-वृन्दा-विपिन विटपी चारु न्यारी-लतायें।
शोभावाले-विहग जिसने हैं दिये हा! उसीने।
कैसे माधोरहित ब्रज की मेदनी को बनाया ॥39॥
क्या थोड़ा भी सजनि! इसका मर्म तू पा सकी है।
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती।
कैसा होता जगत सुख का धाम और मुग्धकारी।
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती ॥40॥
मैंने देखा अधिकतर है भंग आ पास तेरे।
अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है।
आ जाती है दृग-युगल में अंधता धूलि-द्वारा।
काँटों से हैं उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते ॥41॥
क्यों होती है अहह इतनी यातना प्रेमिकों की।
क्यों वाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता।
जो प्यारा औ रुचिर-विटपी जीवनोद्यान का है।
सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटकों से भरा है ॥42॥
पूरा रागी हृदय-तल है पुष्प बन्धूक तेरा।
मर्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है
तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती।
पूरा-पूरा दिवस-पति के प्रेम में तू पगा है॥43॥
तेरे जैसे प्रणय-पथ के पान्थ उत्पन्न हो के।
प्रेमी की हैं प्रकट करते पक्वता मेदनी में।
मैं पाती हूँ परम-सुख जो देख लेती तुझे हूँ।
क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा॥44॥
मैं गोरी हूँ कुँवर-वर की कान्ति है मेघ की सी।
कैसे मेरा, महर-सुत का, भेद निर्मूल होगा।
जैसे तू है परम-प्रिय के रंग में पुष्प डूबा ।
कैसे वैसे जलद-तन के रंग में मैं रँगूँगी॥45॥
पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियों का।
मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ।
मैं पाऊँगी हृदय-तल में उत्तमा-शांति कैसे।
जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही में ॥46॥
'ऐसी' हो के कुसुम तुझमें प्रेम की पक्वता है।
मैं हो के भी मनुज-कुल की, न्यूनता से भरी हूँ।
कैसी लज्जा-परम-दुख की बात मेरे लिए है।
छा जावेगा न प्रियतम का रंग सर्वांग में जो ॥47॥
वंशस्थ छंद
खिला हुआ सुंदर-वेलि-अंक में।
मुझे बता श्याम-घटा प्रसून तू।
तुझे मिलि क्यों किस पूर्व-पुण्य से।
अतीव-प्यारी-कमनीय-श्यामता॥48॥
हरीतिमा वृन्त समीप की भली।
मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता।
लसी हुई श्यामलताग्रभाग में।
नितान्त है दृष्टि विनोद-वर्धिनी ॥49॥
परंतु तेरा बहु-रंग देख के।
अतीव होती उर-मध्य है व्यथा।
अपूर्व होता भव में प्रसून तू।
निमग्न होता यदि श्याम-रंग में ॥50॥
तथापि तु अल्प न भाग्यवान है।
चढ़ा हुआ है कुछ श्याम रंग तो।
अभागिनी है वह, श्यामता नहीं।
विराजती है जिसके शरीर में ॥51॥
न स्वल्प होती तुझमें सुगंधि है।
तथापि सम्मानित सर्व-काल में।
तुझे रखेगा ब्रज-लोक दृष्टि में
प्रसून तेरी यह श्यामलांगता ॥52॥
निवास होगा जिस ओर सूर्य का।
उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू।
विलोकती है जिस चाव से उसे।
सदैव ऐ सूर्यमुखी सु-आनना ॥53॥
अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय भी।
अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी।
विलोकती थी जब हो विनोदिता।
मुकुन्द के मंजु-मुखारविन्द को ॥54॥
परंतु मेरे अब वे न वार हैं।
न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता।
तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू।
विभावरी में बनती मलीन है ॥55॥
निशांत में तू प्रिय स्वीय कांत से।
पुनः सदा है मिलती प्रफुल्ल हो।
परंतु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये।
मदीय घोरा रजनी-वियोग की ॥56॥
नृलोक में है वह भाग्य-शालिनी।
सुखी बने जो विपदावसान में।
अभागिनी है वह विश्व में बड़ी।
न अन्त होवे जिसकी विपत्ति का ॥57॥
मालिनी छंद
कुवलय-कुल में से तो अभी तू कढ़ा है।
बहु-विकसित प्यारे-पुष्प में भी रमा है।
अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की।
सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें ॥58॥
यह समझ प्रसूनों पास में आज आई।
क्षिति-तल पर हैं ए मूर्त्ति-उत्फुल्लता की।
पर सुखित करेंगे ए मुझे आह! कैसे।
जब विविध दुखों में मग्न होते स्वयं हैं ॥59॥
कतिपय-कुसुमों को म्लान होते विलोका।
कतिपय बहु कीटों के पड़े पेच में हैं।
मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।
कतिपय-सुमनों की पंखड़ी भू पड़ी है॥60॥
तदपि इन सबों में ऐंठ देखी बड़ी ही।
लख दुखित-जनों को ए नहीं म्लान होते।
चित व्यथित न होता है किसी की व्यथा से।
बहु भव-जनितों की वृत्ति ही ईदृशी है॥61॥
अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती।
मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।
अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है
थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥
यदि तज कर के तू गूंजना धैर्य-द्वारा।
कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।
तब अवगत होगा बालिका एक भू में।
विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो ॥63॥
अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।
निज दुख तुझसे मैं आज तो भी कहूँगी।
कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता।
क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मूर्ति पाती ॥64॥
इस क्षिति-तल में क्या व्योम के अंक में भी
प्रिय वपु छवि शोभी मेघ जो घूमते हैं।
इक टक पहरों मैं तो उन्हें देखती हूँ।
कह निज मुख द्वारा बात क्या-क्या न जानें ॥65॥
मधुकर सुन तेरी श्यामता है न वैसी।
अति-अनुपम जैसी श्याम के गात की है।
पर जब-जब आँखें देख लेती तुझे हैं।
तब-तब सुधि आती श्यामली-मूर्ति की है॥66॥
तव तन पर जैसी पीत-आभा लसी है।
प्रियतम कटि में है सोहता वस्त्र वैसा।
गुन-गुन करना औ गूंजना देख तेरा।
रस-मय-मुरली का नाद है याद आता ॥67॥
जब विरह विधाता ने सृजा विश्व में था।
तब स्मृति रचने में कौन सी चातुरी थी।
यदि स्मृति विरचा तो क्यों उसे है बनाया।
वपन-पटु कु-पीड़ा बीज प्राणी-उरों में ॥68॥
अलि पड़ कर हाथों में इसी प्रेम के ही।
लघु-गुरु कितनी तू यातना भोगता है।
विधि-वश बँधता है कोष में पंकजों के।
बहु-दुख सहता है विद्ध हो कंटकों से॥69॥
पर नित जितनी मैं वेदना पा रही हूँ।
अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी।
मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है।
तब दुख उसकी ही पीतता तुल्य तो है ॥70॥
बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा।
अपहृत चित होता है अनायास तेरा।
कतिपय-मति-शाली हेतु आसक्तता का।
अनुपम-मधु किम्वा गंध को हैं बताते ॥71॥
यदि इन विषयों को रूप गंधादिकों को।
मधुकर हम तेरे मोह का हेतु मानें।
यह अवगत होना चाहिए भृङ्ग तो भी।
दुख-प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं ॥72॥
पर मुझ अबला की वेदना-दायिनी हा।
समधिक गुण-वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
तदुपरि कितनी हैं मानवी-वंचनायें।
विचलित-कर होंगी क्यों न मेरी व्यथायें ॥73॥
जब हम व्यथिता हैं ईदृशी तो तुझे क्या।
कुछ सदय न होना चाहिए श्याम-बन्धो।
प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के दृगों से।
मत निठुर बने तू सामने लोचनों के ॥74॥
नव-नव-कुसुमों के पास जा मुग्ध हो-हो।
गुन-गुन करता है चाव से बैठता है।
पर कुछ सुनता है तू न मेरी व्यथायें।
मधुकर इतना क्यों हो गया निर्दयी है॥75॥
कब टल सकता था श्याम के टालने से।
मुख पर मँडलाता था स्वयं मत्त हो के।
यक दिन वह था औ एक है आज का भी।
जब भ्रमर न मेरी ओर तू ताकता है ॥76॥
कब पर-दुख कोई है कभी बाँट लेता।
सब परिचय-वाले प्यार ही हैं दिखाते।
अहह न इतना भी हो सका तो कहूँगी।
मधुकर यह सारा दोष है श्यामता का ॥77॥
द्रुतविलम्बित छंद
कमल-लोचन क्या कल आ गये।
पलट क्या कु-कपाल-क्रिया गई।
मुरलिका फिर क्यों वन में बजी।
वन रसा तरसा वरसा सुधा ॥78॥
किस तपोबल से किस काल में।
सच बता मुरली कल-नादिनी।
अवनि में तुझको इतनी मिली।
मदिरता, मृदुता, मधुमानता ॥79॥
चकित है किसको करती नहीं।
अवनि को करती अनुरक्त है।
विलसती तव सुंदर अंक में।
सरसता, शुचिता, रुचिकारिता ॥80॥
निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की।
कथन क्यों न करूँ अयि वंशिके।
निहित है तब मोहक पोर में।
सफलता, कलता, अनुकूलता ॥81॥
मुरलिके कह क्यों तव-नाद से।
विकल हैं बनती ब्रज-गोपिका।
किस लिए कल पा सकती नहीं।
पुलकती, हँसती, मृदु बोलती ॥82॥
स्वर पूँका तव है किस मंत्र से।
सुन जिसे परमाकुल मत्त हो।
सदन है तजती ब्रज-बालिका।
उमगती, ठगती, अनुरागती ॥83॥
तव प्रवंचित है बन छानती।
विवश सी नवला ब्रज-कामिनी।
युग विलोचन से जल मोचती।
ललकती, कँपती, अवलोकती ॥84॥
यदि बजी फिर, तो बज ऐ प्रिये।
अपर है तुझ सी न मनोहरा।
पर कृपा कर के कर दूर तू।
कुटिलता, कटुता, मदशालिता ॥85॥
विपुल छिद्र-वती बन के तुझे।
यदि समादर का अनुराग है।
तज न तो अयि गौरव-शालिनी।
सरलता, शुचिता, कुल-शीलता ॥86॥
लसित है कर में ब्रज-देव के।
मुरलिके तप के बल आज तू।
इस लिए अबलाजन को वृथा।
मत सता, न जता मति-हीनता ॥87॥
वंशस्थ छंद
मदीय प्यारी अयि कुंज-कोकिला।
मुझे बता तू ढिग कूक क्यों उठी।
विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी।
विषादिता, संकुचिता, निपीड़िता ॥88॥
प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की।
भला नहीं तो ब्रज-मध्य श्याम की।
कभी बजेगी अब क्यों सु-बाँसुरी।
सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी ॥89॥
विषादिता तू यदि कोकिला बनी।
विलोक मेरी गति तो कहीं न जा।
समीप बैठी सुन गूढ-वेदना।
कुसंगजा, मानसजा,मदंगजा ॥190॥
यथैव हो पालि काक-अंक में।
त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय हैं।
तथैव माधो यदु-वंश में मिले।
अशोभना, खिन्न मना मुझे बना ॥191॥
तथापि होती उतनी न वेदना।
न श्याम को जो ब्रज-भूमि भूलती।
नितान्त ही है दुखदा, कपाल की।
कुशीलता, आविलता, करालता ॥92॥
कभी न होगी मथुरा-प्रवासिनी।
गरीबिनी गोकुल-ग्राम-गोपिका।
भला करे लेकर राज-भोग क्या।
यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता ॥93॥
जहाँ न वृन्दावन है विराजता।
जहाँ नहीं है ब्रज-भू मनोहरा।
न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नहीं।
प्रवाहिता भानु-सुता प्रफुल्लिता ॥94॥
करील हैं कामद कल्प-वृक्ष से।
गवादि हैं काम-दुधा गरीयसी।
सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा।
महामना, श्यामघना लुभावना ॥95॥
जहाँ न वंशी-वट है न कुंज है
जहाँ न केकी-पिक है न शारिका।
न चाह वैकुण्ठ रखें, न है जहाँ।
बड़ी भली, गोप-लली, समाअली ॥96॥
न कामुका हैं हम राज-वेश की।
न नाम प्यारा यदु-नाथ है हमें।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की।
विरागिनी, पागलिनी, वियोगिनी ॥97॥
विरक्ति बातें सुन वेदना-भरी।
पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही।
बना रहा है तब बोलना मुझे।
व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी ॥98॥
नहीं-नहीं है मुझको बता रही।
नितान्त तेरे स्वर की अधीरता।
वियोग से है प्रिय के तुझे मिली।
अवांछिता, कातरता, मलीनता ॥99॥
अतः प्रिये तू मथुरा तुरन्त जा।
सुनास्व-वेधी-स्वर जीवितेश को।
अभिज्ञ वे हों जिससे वियोग की।
कठोरता, व्यापकता, गंभीरता ॥100॥
परंतु तू तो अब भी उड़ी नहीं।
प्रिये पिकी क्या मथुरा न जायगी?
न जा, वहाँ है न पधारना भला।
उलाहना है सुनना जहाँ मना 101॥
वसंततिलका छंद
पा के तुझे परम-पूत-पदार्थ पाया।
आई प्रभा प्रवह मान दुखी दृगों में।
होती विवर्द्धित घटी उर-वेदनायें।
ऐ पद्म-तुल्य पद-पावन चिन्ह प्यारा ॥102॥
कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा।
कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ।
तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था।
कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे ॥103॥
माथे चढ़ा मुदित हो उर में लगाऊँ।
है चित्त चाह सु-विभूति उसे बनाऊँ।
तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं।
सानन्द अंजित सुरंजित-लोचनों में ॥104॥
लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया।
तीसी-प्रसून-सम श्यामलता सलोनी।
कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी।
तो भी विमुग्ध करती तब माधुरी है॥105॥
संयोग से पृथक हो पद-कंज से तू।
जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है।
त्योंहीं मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो।
मैं भी अचिन्तित-अचेतनतामयी हूँ॥106॥
होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की।
पाती अलौकिक-पदार्थ वसुंधरा में।
होता स-शान्ति मम जीवन शेष भूत।
लेती पदांक तुझको यदि अंक में मैं ॥107॥
हूँ मैं अतीव-रुचि से तुझको उठाती।
प्यारे पदांक अब तू मम-अंक में आ।
हा! दैव क्या यह हुआ? उह! क्या करूँ मैं।
कैसे हुआ प्रिय पदांक विलोप भू में ॥108॥
क्या हैं कलंकित बने युग-हस्त मेरे।
क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था।
ए हैं अवश्य अति-निंद्य महा-कलंकी।
जो हैं प्रवंचित हुए पद-अर्चना से ॥109॥
मैं भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय! मैंने।
अत्यन्त भ्रान्त वन के इतना न जाना।
जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े हैं।
वे हैं किसी अपर के कब हाथ आते ॥110॥
पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया।
मैं बाँधती सरुचि अंचल में तुझे हूँ।
होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता।
देगी प्रकाश तम में फिरते दृगों को॥111॥
मालिनी छंद
कुछ कथन करूँगी मैं स्वकीया व्यथायें।
बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा।
प्रति-पल बहती ही क्या चली जायगी तू।
कल-कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला ॥112॥
कल-मुरलि-निनादी लोभनीयांग-शोभी।
अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तलो कांति-शाली।
अयि पुलकित अंके आज भी क्यों न आया।
वह कलित-कपोलों कांत आलापवाला ॥113॥
अब अप्रिय हुआ है क्यों उसे गेह आना।
प्रति-दिन जिसकी ही ओर आँखें लगी हैं।
पल-पल जिस प्यारे के लिए हूँ बिछाती।
पुलकित-पलकों के पाँवड़े प्यार-द्वारा ॥114॥
मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।
निज उर वह क्यों है संग जैसा बनाता।
विलसित जिसमें है चारु-चिन्ता उसी की।
वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता ॥115॥
जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैंने।
वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।
जिस कुँवर बिना हैं याम होते युगों से।
वह छवि दिखलाता क्यों नहीं लोचनों को ॥116॥
सब तज हमने है एक पाया जिसे ही।
अयि अलि! उसने है क्या हमें त्याग पाया।
हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती हैं।
वह प्रिय न हमारी ओर क्यों ताक पाया॥117॥
विलसित उर में है जो सदा देवता सा।
वह निज उर में है ठौर भी क्यों न देता।
नित वह कलपाता है मुझे कांत हो क्यों।
जिस बिन 'कल' पाते हैं नहीं प्राण मेरे ॥118॥
मम दृग जिसके ही रूप में हैं रमे से।
अहह वह उन्हें है निर्ममों सा रुलाता।
यह मन जिनके ही प्रेम में मग्न सा है।
वह मद उसको क्यों मोह का है पिलाता ॥119॥
जब अब अपने ए अंग ही हैं न आली।
तब प्रियतम में मैं क्या करूँ तर्कनायें।
जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती।
तब कुछ कहना ही कांत को अज्ञता है ॥120॥
दृग अति अनुरागी श्यामली-मूर्ति के हैं
युग श्रुति सुनना हैं चाहते चारु-तानें।
प्रियतम मिलने को चौगुनी लालसा से।
प्रति-पल अधिकाती चित्त की आतुरी है ॥121॥
उर विदलित होता मत्तता वृद्धि पाती।
बहु विलख न जो मैं यामिनी-मध्य रोती।
विरह-दव सताता, गात सारा जलाता।
यदि मम नयनों में वारि-धारा न होती ॥122॥
कब तक मन मारूँ दग्ध हो जी जलाऊँ।
निज-मृदुल-कलेजे में शिला क्यों लगाऊँ।
वन-वन विलयूँ या मैं धुंकूँ मेदिनी में।
निज-प्रियतम प्यारी मूर्ति क्यों देख पाऊँ ॥123॥
तव तट पर आ के नित्य ही कांत मेरे।
पुलकित बन भावों में पगे घूमते हैं।
यक दिन उनको पा प्रीत जी से सुनाना।
कल-कल-ध्वनि-द्वारा सर्व मेरी व्यथायें ॥124॥
विधि वश यदि तेरी धार में आ गिरूँ मैं।
मम तन ब्रज की हो मेदिनी में मिलाना।
उस पर अनुकूला हो, बड़ी मंजुता से।
कल-कुसुम अनूठी-श्यामता के उगाना ॥125॥
घन-तन रत मैं हूँ तू असेतांगिनी है।
तरलित-उर तू है चैन मैं हूँ न पाती।
अयि अलि बन जा तू शान्ति-दाता हमारी।
अति-प्रतपित मैं हूँ ताप तू है भगाती ॥126॥
मन्दाक्रान्ता छंद
रोई आ के कुसुम-ढिग औ भृङ्ग के साथ बोली।
वंशी-द्वारा-भ्रमित बन के बात की कोकिला से।
देखा प्यारे कमल-पग के अंक को उन्मना हो।
पीछे आयी तरणि-तनया-तीर उत्कण्ठिता सी॥127 ॥
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त गई गृह-बालिका।
व्यथित ऊधव को अति ही बना।
सब सुना सब ठौर छिपे गये।
पर न बोल सके वह अल्प भी॥128॥
षोड़श सर्ग
वंशस्थ छंद
विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था।
वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी।
विचित्रता-साथ विराजिता रही।
वसंत वासंतिकता वनान्त में॥1॥
नवीन भूता वन की विभूति में।
विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में।
अनूपता व्यापित थीह वसंत की।
निकुंज में कूजित-कुंज-पुंज में ॥2॥
प्रफुल्लिता कोमल-पल्लवान्विता।
मनोज्ञता-मूर्ति नितान्त-रंजिता।
वनस्थली थी मकरंद-मोदिता।
अकीलिता कोकिल-काकली-मयी॥3॥
निसर्ग ने, सौरभ ने, पराग ने।
प्रदान की थी अति कांत-भाव से।
वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को।
मनोज्ञता, मादकता, मदांधता॥4॥
वसंत की भाव-भरी विभूति सी।
मनोज की मंजुल-पीठिका-समा।
लसी कहीं थी सरसा सरोजिनी।
कुमोदिनी-मानस-मोदिनी कहीं॥5॥
नवांकुरों में कलिका-कलाप में।
नितान्त न्यारे फल पत्र-पुंज में।
निसर्ग-द्वारा सु प्रसूत-पुष्प में।
प्रभूत पुंजी-कृत थी प्रफुल्लता ॥6॥
विमुग्धता की वर-रंग-भूमि सी।
प्रलुब्धता केलि वसुंधरोपमा।
मनोहरा थीं तरु-वृन्द-डालियाँ।
नई कली मंजुल-मंजरीमयी ॥7॥
अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा।
महत्व औ गौरव, सत्य-त्याग का।
विचित्रता से करती प्रकाश थी।
स-पत्रता पादप पत्र-हीन की॥8॥
वसंत-माधुर्य-विकाश-वर्द्धिनी।
क्रिया-मयी, मार-महोत्सवांकिता।
सु-कोंपलें थीं तरु-अंक में लसी।
स-अंगरागा अनुराग-रंजिता ॥9॥
नये-नये पल्लववान पेड़ में।
प्रसून में आगत थी अपूर्वता।
वसंत में थी अधिकांश शोभिता।
विकाशिता-वेलि प्रफुल्लिता-लता ॥10॥
अनार में औ कचनार में बसी।
ललामता थी अति ही लुभावनी।
बड़े लसे लोहित-रंग-पुष्प से।
पलाश की थी अपलाशता ढकी।
स-सौरभा लोचन की प्रसादिका॥11॥
स-सौरभा लोचन की प्रसादिका।
कांक वसंत-वासंतिका-विभूषिता।
विनोदिता हो बहु थी विनोदिनी।
प्रिया-समा मंजु-प्रियाल-मंजरी॥12॥
दिशा प्रसन्ना महि पुष्प-संकुला।
नवीनता-पूरित पादपावली।
वसंत में थी लतिका सु-यौवना।
अलापिका पंचम-तान कोकिला ॥13॥
अपूर्व-स्वर्गीय-सुगंध में सना।
सुधा बहाता धमनी-समूह में।
समीर आता मलयाचलांक से।
किसे बनाता न विनोद-मग्न था॥14॥
प्रसादिनी-पुष्प सुगंध-वर्द्धिनी।
विकाशिनी वेलि लता विनोदिनी।
अलौकिकी थी मलयानिली क्रिया।र
विमोहिनी पादप पंक्ति-मोदिनो॥15॥
वसंत शोभा प्रतिकूल थी बड़ी।
वियोग-मग्ना ब्रज-भूमि के लिए।
बना रही थी उसको व्यथामयी।
विकाश पाती वन-पादपावली ॥16॥
दृगों उरों को दहती अतीव थीं।
शिखाग्नि-तुल्या तरु-पुंज-कोंपलें।
अनार-शाखा कचनार-डाल थी।
अपार अंगारक पुंज-पूरिता ॥17॥
नितान्त ही थी प्रतिकूलता-मयी।
प्रियाल की प्रीति-निकेत-मंजरी।
बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।
विदारता था तरु कोबिदार का18॥
भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।
सशंकता-मूर्ति प्रमोद-नाशिनी।
अतीव थी रक्तमयी अशोभना।
पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा॥19॥
इतस्ततः भ्रान्त-समान घूमती।
प्रतीत होती अवली मिलिन्द की।
विदूषिता हो कर थी कलंकिता।
अलंकृता कोकिल कांत कंठता ॥20॥
प्रसून को मोहकता मनोज्ञता।
नितान्त थी अन्यमनस्कतामयी।
न वांछिता थी न विनोदनीय थी।
अ-मानिता हो मलयानिल-क्रिया ॥21॥
बड़े यशस्वी वृष-भानु गेह के।
समीप थी एक विचित्र वाटिका।
प्रबुद्ध-ऊधो इसमें इन्हीं दिनों।
प्रबोध देने ब्रज-देवि को गये॥22॥
वसंत को पा यह शांत वाटिका।
स्वभावतः कांत नितान्त थी हुई।
परंतु होती उसमें स-शान्ति थी।
विकाश की कौशल-कारिणी-क्रिया ॥23॥
शनैः शनैः पादप पुंज कोंपलें।
विकाश पा के करती प्रदान थीं।
स-आतुरी रक्तिमता-विभूति को।
प्रमोदनीया-कमनीय श्यामता ॥24॥
अनेक आकार-प्रकार से मनों।
बता रही थीं यह गूढ़-मर्म वे।
नहीं रँगेगा वह श्याम-रंग में।
न आदि में जो अनुराग में रंगा॥25॥
प्रसून थे भाव-समेत फूलते।
लुभावने श्यामल पत्र अंक में।
सुगंध को पूत बना दिगन्त में।
पसारती थी पवनातिपावनी ॥26॥
प्रफुल्लता में अति-गूढ़-म्लानता।
मिली हुई साथ पुनीत-शान्ति के।
सु-व्यंजिता संयत भाव संग थी।
प्रफुल्ल-पाथोज प्रसून-पुंज में ॥27॥
स-शान्ति आते उड़ते निकुंज में।
स-शान्ति जाते ढिग थे प्रसून के।
बने महा-नीरव, शांत, संयमी।
स-शान्ति पीते मधु को मिलिन्द थे ॥28॥
विनोद से पादप पै विराजना।
विहंगिनी साथ विलास बोलना।
बँधा हुआ संयम-सूत्र साथ था।
कलोलकारी खग का कलोलना ॥29॥
न प्रायशः आनन त्यागती रही।
न थी बनाती ध्वनिता दिगन्त को।
न बाग में पा सकती विकाश थी।
अ-कुंठिता हा कल-कंठ-काकली ॥30॥
इसी तपोभूमि-समान वाटिका।
सु-अंक में सुंदर एक कुंज थी।
समावृता श्यामल-पुष्प-संकुला।
अनेकशः वेलि-लता-समूह से ॥31॥
विराजती थीं वृष-भानु-नन्दिनी।
इसी बड़े नीरव शांत-कुंज में।
अतः यहीं श्री बलवीर-बंधु ने।
उन्हें विलोका अलि-वृन्द आवृता॥32॥
प्रशांत, म्लाना, वृषभानु-कन्यका।
सु-मूर्ति देवी सम दिव्यतामयी।
विलोक, हो भावित भक्ति-भाव से।
विचित्र ऊधो-उर की दशा हुई ॥33॥
अतीव थी कोमल-कान्ति नेत्र की।
परंतु थी शान्ति विषाद-अंकिता।
विचित्र-मुद्रा मुख-पद्म की मिली।
प्रफुल्लता आकुलता समन्विता ।।34॥
स-प्रीति वे आदर के लिए उठीं।
विलोक आया ब्रज-देव-बंधु को।
पुनः उन्होंने निज-शांत-कुंज में।
उन्हें बिठाया अति-भक्ति-भाव से ॥35॥
अतीव-सम्मान समेत आदि में।
ब्रजेश्वरी की कुशलादि पूछ के।
पुनः सुधी-ऊधव ने स-नम्रता।
कहा सँदेसा वह श्याम-मूर्ति का ॥36॥
मन्दाक्रान्ता छंद
प्राणाधारे परम-सरले प्रेम की मूर्ति राधे।
निर्माता ने पृथक तुमसे यों किया क्यों मुझे है।
प्यारी आशा प्रिय-मिलन की नित्य है दूर होती।
कैसे ऐसे कठिन-पथ का पान्थ मैं हो रहा हूँ ॥37॥
जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये हैं।
क्यों धाता ने विलग उनके गात को यों किया है।
कैसे आ के गुरु-गिरि पड़े बीच में हैं, उन्हीं के।
जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यशःथे॥38॥
उत्कण्ठा के विवश नभ को, भूमि को, पादपों को।
ताराओं को, मनुज-मुख को प्रयाशः देखता हूँ।
प्यारी! ऐसी न ध्वनि मुझको है कहीं भी सुनाती।
जो चिन्ता से चलित-चित की शान्ति का हेतु होवे ॥39॥
जाना जाता परम विधि के बंधनों का नहीं है।
तो भी होगा उचित चित में यों प्रिये सोच लेना।
होते जाते विफल यदि हैं सर्व-संयोग सूत्र।
तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई ॥40॥
हैं प्यारी औ मधुर सुख औ भोग की लालसायें।
कान्ते, लिप्सा जगत-हित की और भी है मनोज्ञा।
इच्छा आत्मा परम-हित की मुक्ति की उत्तमा है।
वांछा होती विशद उससे आत्म-उत्सर्ग की है॥41॥
जो होता है निरत तप से मुक्ति की कामना से
आत्मार्थी है, न कह सकते हैं उसे आत्मत्यागी।
जी से प्यारा जगत-हित औ लोक-सेवा जिसे है।
प्यारी सच्चा अवनि-तल में आत्मत्यागी वही है ॥42॥
जो पृथ्वी के विपुल-सुख की माधुरी है विपाशा।
प्राणी-सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है।
जो आद्या है नखत द्युति सी व्याप जाती उरों में
तो होती है लसित उसमें कौमुदी सी द्वितीया ॥43॥
भोगों में भी विविध कितनी रंजिनी-शक्तियाँ हैं।
वे तो भी हैं जगत-हित से मुग्धकारी न होते।
सच्ची यों है कलुष उनमें हैं बड़े क्लान्ति-कारी।
पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा ॥44॥
है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा।
सारे प्राणी स-रुचि इसकी माधुरी में बँधे हैं।
जो होता है न वश इसके आत्म-उत्सर्ग-द्वारा।
ऐ कान्ते है सफल अवनी-मध्य आना उसी का ॥45॥
जो है भावी परम-प्रबला दैव-इच्छा प्रधाना।
तो होवेगा उचित न, दुखी वांछितों हेतु होना।
श्रेय:कारी सतत दयिते सात्विकी-कार्य होगा।
जो हो स्वार्थोपरत भव में सर्व-भूतोपकारी ॥46॥
वंशस्थ छंद
अतीव हो अन्यमना विषादिता।
विमोचते वारि दृगारविन्द से।
समस्त सन्देश सुना ब्रजेश का।
ब्रजेश्वरी ने उर वज्र सा बना ॥47॥
पुनः उन्होंने अति शांत-भाव से।
कभी बहा अश्रु कभी स-धीरता।
कहीं स्व-बातें बलवीर-बंधु से।
दिखा कलत्रोचित-चित्त-उच्चता ॥48॥
मन्दाक्रान्ता छंद
मैं हूँ ऊधो पुलकित हुई आपको आज पा के
सन्देशों को श्रवण कर के और भी मोदिता हूँ।
मंदीभूता, उर-तिमिर की ध्वंसिनी ज्ञान आभा।
उद्दीप्ता हो उचित-गति से उज्ज्वला हो रही है॥49॥
मेरे प्यारे, पुरुष, पृथिवी-रत्न औ शांत धी हैं।
सन्देशों में तदपि उनकी, वेदना, व्यंजिता है।
मैं नारी हूँ, तरल-उर हूँ, प्यार से वंचिता हूँ।
जो होती हूँ विकल, विमना, व्यस्त, वैचित्र्य क्या है॥50॥
हो जाती है रजनि मलिना ज्यों कला-नाथ डूबे।
वाटी शोभा रहित बनती ज्यों वसन्तान्त में है।
त्योंही प्यारे विधु-वदन की कान्ति से वंचिता हो।
श्री-हीना मलिन ब्रज की मेदिनी हो गई है ॥51॥
जैसे प्रायः लहर उठती वारि में वायु से है।
त्योंही होता चित चलित है कश्चिदावेग-द्वारा।
उद्वेगों में व्यथित बनना बात स्वाभाविकी है।
हाँ, ज्ञानी औ विवुध-जन में मुह्यता है न होती ॥52॥
माग पूरा-पूरा परम-प्रिय का मर्म मैं बूझती हूँ।
है जो वांछा विशद उर मैं जानती भी उसे हूँ।
यत्नों द्वारा प्रति-दिन अतः मैं महा संयता हूँ।
तो भी देती विरह-जनिता-वासनायें व्यथा हैं ॥53॥
जो मैं कोई विहग उड़ता देखती व्योम में हूँ।
तो उत्कण्ठा-विवश चित में आज भी सोचती हूँ।
होते मेरे अबल तन में पक्ष जो पक्षियों से।
तो यों ही मैं स-मुद उड़ती श्याम के पास जाती ॥54॥
जो उत्कण्ठा अधिक प्रबल है किसी काल होती।
तो ऐसी है लहर उठती चित्त में कल्पना की।
जो हो जाती पवन, गति पा वांछिता लोक-प्यारी।
मैं छू आती परम-प्रिय के मंजु-पादाम्बुजों को ॥55॥
निर्लिप्ता हूँ अधिकतर मैं नित्यशः संयता हूँ।
तो भी होती अति व्यथित हूँ श्याम की याद आते।
वैसी वांछा जगत-हित की आज भी है न होती।
जैसी जी में लसित प्रिय के लाभ की लालसा है॥56॥
हो जाता है उदित उर में मोह जो रूप-द्वारा।
व्यापी भू में अधिक जिसकी मंजु-का-वली है।
जो प्राय: है प्रसव करता मुग्धता मानसों में।
जो है क्रीड़ा अवनि चित की भ्रान्ति उद्विग्नता का ॥57॥
जाता है पंच-शर जिसकी 'कल्पिता-मूर्ति' माना।
जो पुष्पों के विशिख-बल से विश्व को वेधता है।
भाव-ग्राही मधुर-महती चित्त-विक्षेप-शीला।
न्यारी-लीला सकल जिसकी मानसोन्मादिनी है ॥58॥
वैचित्र्यों से वलित उसमें ईदृशी शक्तियाँ हैं।
ज्ञाताओं ने प्रणय उसको है बताया न तो भी।
है दोनों से सबल बनती भूरि-आसंग-लिप्सा।
होती है किंतु प्रणयज ही स्थायिनी औ प्रधाना॥59॥
जैसे पानी प्रणय तृषितों की तृषा है न होती।
हो पाती है न क्षुधित-क्षुधा अन्न-आसक्ति जैसे।
वैसे ही रूप निलय नरों मोहनी-मूर्तियों में।
हो पाता है न 'प्रणय' हुआ मोह रूपादि-द्वारा ॥60॥
मूली-भूता इस प्रणय की बुद्धि की वृत्तियाँ हैं।
हो जाती हैं समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणों से।
वे होते हैं नित नव, तथा दिव्यता-धाम, स्थायी।
पाई जाती प्रणय-पथ में स्थायिता है इसी से॥61॥
हो पाता है विकृत स्थिरता-हीन हैं रूप होता।
पाई जाती नहिं इस लिए मोह में स्थायिता है।
होता है रूप विकसित भी प्रायशः एक ही सा।
हो जाता है प्रशमित अत: मोह संभोग से भी।।62 ।।
नाना स्वार्थों सरस-सुख की वासना-मध्य-डूबा।
आवेगों से वलित ममतावान है मोह होता।
निष्कामी है प्रणय-शुचिता-मूर्ति है सात्विकी है।
होती पूरी प्रमिति उसमें आत्म-उत्सर्ग की है॥63॥
सद्यः होती फलित, चित में मोह की मत्तता है।
धीरे-धीरे प्रणय बसता, व्यापता है उरों में।
हो जाता है विवश अपरा-वृत्तियाँ मोह-द्वारा।
भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है॥64॥
हो जाते हैं उदय कितने भाव ऐसे उरों में।
होती है मोह-वश जिनमें प्रेम की भ्रान्ति प्रायः।
वे होते हैं न प्रणय न वे हैं समीचीन होते।
पाई जाती अधिक उनमें मोह की वासना है॥65॥
हो के उत्कण्ठ प्रिय-सुख की भूयसी-लालसा से।
जो है प्राणी हृदय-तल की वृत्ति उत्सर्ग-शीला।
पुण्याकांक्षा सुयश-रुचि वा धर्म-लिप्सा बिना ही।
ज्ञाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसी को॥66॥
आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सवृत्ति-द्वारा।
हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा।
होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है।
पीछे खो आत्म-सुधि लसती आत्म-उत्सर्गता है॥67॥
सद्गंधों से, मधुर-स्वर से, स्पर्श से औ रसों से।
जो हैं प्राणी हृदय-तल में मोह उद्भूत होते।
वे ग्राही हैं जन-हृदय के रूप के मोह ही से।
हो पाते हैं तदपि उतने मत्तकारी नहीं वे ॥68 ॥
व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता
पाया जाता प्रबल उसका चित्त-चाञ्चल्य भी है।
मानी जाती न क्षिति-तल में है पतंगोपमाना।
भृङ्गों, मीनों द्विरद मृग की मत्तत्ता प्रीतिमत्ता॥69॥
मोहों में है प्रबल सबसे रूप का मोह होता।
कैसे होंगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता।
जो है प्यारा प्रणय-मणि सा काँच सा मोह तो है।
ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है॥70॥
दोनों आँखें निरख जिसको तृप्त होती नहीं हैं।
ज्यों-ज्यों देखें अधिक जिसकी दीखती मंजुता है।
जो है लीला-निलय महि में वस्तु स्वर्गीय जो है।
ऐसा राका-उदित-विधु सा रूप उल्लासकारी ॥71॥
उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा बार लाखों।
कानों की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा।
हृत्तन्त्री में ध्वनित करता स्वर्ग-संगीत जो है।
ऐसा न्यारा-स्वर उर-जयी विश्व-व्यामोहकारी ॥72॥
होता है मूल अग जग के सर्वरूपों-स्वरों का।
या होती है मिलित उसमें मुग्धता सद्गुणों की।
ए बातें ही विहित-विधि के साथ हैं व्यक्त होतीं।
न्यारे गंधों सरस-रस, औ स्पर्श-वैचित्र्य में भी ॥73॥
पूरी-पूरी कुँवर-वर के रूप में है महत्ता।
मंत्रों से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है।
सारे न्यारे प्रमुख-गुण की सात्विकी मूर्ति वे हैं।
कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरों में न होगा ॥74॥
जो आसक्ता ब्रज-अवनि में बालिकायें कई हैं।
वे सारी ही प्रणय रंग से श्याम के रञ्जिता हैं।
मैं मानूँगी अधिक उनमें हैं महा-मोह-मग्ना।
तो भी प्रायः प्रणय-पथ की पंथिनी ही सभी हैं ॥75॥
मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूं क्यों।
काढूँ कैसे हृदय-तल से श्यामली-मूर्ति न्यारी।
जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु-तानें।
तो क्यों होंगी शमित प्रिय के लाभ की लालसायें ॥76॥
आँखें हैं जिधर फिरती चाहती श्याम को हैं।
कानों को भी मधुर-रव की आज भी लौ लगी है।
कोई मेरे हृदय-तल को पैठ के जो विलोके।
तो पावेगा लसित उसमें कान्ति-प्यारी उन्हीं की॥77॥
जो होता है उदित नभ में कौमुदी कांत आ के।
या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कहीं हूँ।
शोभा-वाले हरित दल के पादपों को विलोके।
है प्यारे का विकच-मुखड़ा आज भी याद आता ॥78॥
कालिन्दी के पुलिन पद जा, या, सजीले-सरों में।
जो मैं फूले-कमल-कुल को मुग्ध हो देखती हूँ। ललित
तो प्यारे के कलित-कर की औ अनूठे-पगों की। जिला
छा जाती है सरस-सुषमा वारि स्रावी-दृगों में ॥79॥
ताराओं से खचित-नभ को देखती जो कभी हूँ।
किणित या मेघों में मुदित-बक की पंक्तियाँ दीखती हैं।
तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है।
मानों मुक्ता-लसित-उर है श्याम का दृष्टि आता॥80॥
छू देती है मृदु-पवन जो पास आ गात मेरा।
तो हो जाती परस सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
ले पुष्पों की सुरभि वह जो कुञ्ज में डोलती है।
तो गंधों से बलित मुख की वास है याद आती ॥81॥
कलिनी ऊँचे-ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते।
कम्यो ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे दृगों के।
नाना-क्रीड़ा-निलय-झरना चारु-छीटें उड़ाता।
किमि उल्लासों को कुँवर-वर के चक्षु में है लसाता ॥82॥
कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही
मेरे प्यासे दृग-युगल के सामने है न लाती।
प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से।
सद्भावों के सहित चित में सर्वदा है लसाती ॥83॥
फूली संध्या परम-प्रिय की कान्ति सी है दिखाती।
मैं पाती हूँ रजनी-तन में श्याम का रङ्ग छाया।
ऊषा आती प्रति-दिवस है प्रीति से रंजिता हो।
पाया जाता वर-वदन सा ओप आदित्य में है ॥184॥
मैं पाती हूँ अलक-सुषमा भृङ्ग की मालिका में।
है आँखों की सु-छवि मिलती खंजनों औ मृगों में।
दोनों बाहें कलभ कर को देख हैं याद आती।
पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की ॥85॥
है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में।
विम्बाओं में वर अधर सी राजती लालिमा है
मैं केलों में जघन-युग ही मंजुता देखती हूँ।
गुल्फों की सी ललित सुषमा है गुलों में दिखाती ॥86॥
नेत्रोन्मादी बहु-मुदमयी-नीलिमा गात की सी।
न्यारे नीले गगन-तल के अङ्क में राजती है।
भूमें शोभा, सुरस जल में, वन्हि में दिव्य-आभा।
मेरे प्यारे-कुँवर वर सी प्रायशः है दिखाती ॥87॥
सायं-प्रात: सरस-स्वर से कूजते हैं पखेरू।
प्यारी-प्यारी मधुर-ध्वनियाँ मत्त हो, हैं सुनाते।
मैं पाती हूँ मधुर ध्वनि में कूजने में खगों के।
मीठी-तानें परम-प्रिय को मोहिनी-वंशिका की॥8॥
मेरी बातें श्रवण कर के आप उद्विग्न होंगे।
जानेंगे मैं विवश बन के हूँ महा-मोह-मग्ना।
सच्ची यों है न निज-सुख के हेतु मैं मोहिता हूँ।
संरक्षा में प्रणय-पथ के भावतः हूँ सयला ॥89॥
हो जाती है विधि-सृजन से इक्षु में माधुरी जो।
आ जाता है सरस रँग जो पुष्प की पंखड़ी में।
क्यों होगा सो रहित रहते इक्षुता-पुष्पता के।
ऐसे ही क्यों प्रसृत उर से जीवनाधार होगा॥90॥
क्यों मोहेंगे न दृग लख के मूर्तियाँ रूपवाली।
कानों को भी मधुर-स्वर से मुग्धता क्यों न होगी।
क्यों डूबेंगे न उर रंग में प्रीति-आरंजितों के।
धाता-द्वारा सृजित तन में तो इसी हेतु वे हैं ॥91॥
छाया-ग्राही मुकुर यदि हो, वारि हो चित्र क्या है।
जो वे छाया ग्रहण न करें चित्रता तो यही है।
वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर में जो न रूपादि व्यायें।
तो विज्ञानी, विवुध उनको स्वस्थ कैसे कहेंगे॥92॥
पाई जाती श्रवण करने आदि में भिन्नता है।
देखा जाना प्रभृति भव में भूरि-भेदों भरा है।
कोई होता कलुष-युत है कामना-लिप्त हो के।
त्योंही कोई परम-शुचितावान औ संयमी है॥93॥
पक्षी होता सु-पुलकित है देख सत्पुष्प फूला।
भौंरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूंजता है।
अर्थी-माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता।
तीनों का ही कल-कुसुम का देखना यों त्रिधा है ॥94॥
लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की।
कोई होता मदन-वश है मोद में मग्न कोई।
कोई गाता परम-प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो।
यों तीनों की प्रचुर-प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती ॥95॥
शोभा-वाले विटप विलसे पक्षियों के स्वरों से।
विज्ञानी है परम-प्रभु के प्रेम का पाठ पाता।
व्याधा की हैं हनन-रुचियाँ और भी तीव्र होती।
यों दोनों के श्रवण करने में बड़ी भिन्नता है ॥96॥
यों ही है भेद युत चखना, सूंघना और छूना।
पात्रों में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती।
ऐसी ही हैं हृदय-तल के भाव में भिन्नतायें।
भावों ही से अवनि-तल है स्वर्ग के तुल्य होता॥97॥
प्यारे आवें सु-बयन कहें प्यार से गोद लेवें।
ठंढे होवें नयन, दुख हों दूर मैं मोद पाऊँ।
ए भी हैं भाव मम उर के और ए भाव भी हैं।
प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवे॥98॥
जो होता है हृदय-तत का भाव लोकोपतापी।
छिद्रान्वेषी, मलिन, वह है तामसी-वृत्ति-वाला।
नाना भोगाकलित, विविधा-वासना-मध्य डूबा ।
जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी-वृत्ति शाली॥99॥
निष्कामी है भव-सुखद है और है विश्व-प्रेमी।
जो है भोगोपरत वह सात्विकी-वृत्ति-शोभी।
ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था।
आत्मोत्सर्गी, हृदय-तल की सात्विकी-वृत्ति ही है ॥100॥
जिह्वा, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी।
क्यों त्यागेंगे प्रकृति अपने कार्य को क्यों तजेंगे।
क्यों होवेंगी शमित उर की लालसायें, अत: मैं।
रंगे देती प्रति-दिन उन्हें सात्विकी-वृत्ति में हूँ ॥101॥
कंजों का या उदित-विधु का देख सौंदर्य आँखों।
या कानों से श्रवण कर के गान मीठा खगों का।
मैं होती थी व्यथित, अब हूँ शान्ति सानन्द पाती।
प्यारे के पाँव, मुख, मुरली-नाद जैसा उन्हें पा॥102॥
यों ही जो है अवनि नभ में दिव्य, प्यारा, उन्हें मैं।
जो छूती हूँ श्रवण करती देखती सूंघती हूँ।
तो होती हूँ मुदित उनमें भावतः श्याम की पा।
न्यारी-शोभा, सुगुण-गरिमा अंग संभूत साम्य ॥103॥
हो जाने से हृदय-तल का भाव ऐसा निराला।
मैंने न्यारे परम गरिमावान दो लाभ पाये।
मेरे जी में हृदय विजयी विश्व का प्रेम जागा।
मैंने देखा परम प्रभु को स्वीय-प्राणेश ही में ॥104॥
पाई जाती विविध जितनी वस्तुयें हैं सबों में।
जो प्यारे को अमित रँग औ रूप में देखती हूँ।
तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूँगी।
यों है मेरे हृदय-तल में विश्व का प्रेम जागा ॥105॥
जो आता है न जन-मन में जो परे बुद्धि के है
जो भावों का विषय न बना नित्य अव्यक्त जो है।
है ज्ञाता की न गति जिसमें इन्द्रियातीत जो है।
सो क्या है, में अबुध अबला जान पाऊँ उसे क्यों ॥106॥
शास्रों में है कथित प्रभु के शीश औ लोचनों की।
संख्यायें हैं अमित पग औ हस्त भी हैं अनेकों।
सो हो के भी रहित मुख से नेत्र नासादिकों से।
छूता, खाता, श्रवण करता, देखता, सूंघता है ॥107॥
ज्ञाताओं ने विशद इसका मर्म यों है बताया।
सारे प्राणी अखिल जग के मूर्तियाँ हैं उसी की।
होती आँखें प्रभृति उनकी भूरि-संख्यावती हैं।
सो विश्वात्मा अमित-नयनों आदि-वाला अतःहै॥108॥
निष्प्राणों की विफल बनतीं सर्व-गात्रेन्द्रियाँ हैं।
है अन्या-शक्ति कृति करती वस्तुतः इन्द्रियों की।
सो है नासा न दुग रसना आदि ईशांश ही है।
होके नासादि रहित अतः सूंघता आदि सो है ॥109॥
ताराओं में तिमिर-हर में वह्नि-विद्युल्लता में।
नाना रत्नों, विविध मणियों में विभा है उसीकी।
पृथ्वी, पानी, पवन, नभ में, पादपों में, खगों में।
मैं पाती हूँ प्रथित-प्रभुता विश्व में व्याप्त की ही ॥110॥
प्यारी-सत्ता जगत-गत की नित्य लीला-मयी है।
स्नेहोपेता परम-मधुरा पूतता में पगी है।
ऊँची-न्यारी-सरल-सरसा ज्ञान-गर्भा मनोज्ञा।
पूज्या मान्या हृदय-तल की रंजिनी उज्वला है ॥111॥
मैंने की हैं कथन जितनी शास्त्र-विज्ञात बातें।
वे बातें हैं प्रकट करती ब्रह्म है विश्व-रूपी।
व्यापी है विश्व प्रियतम में विश्व में प्राणप्यारा।
यों ही मैंने जगत-पति को श्याम में है विलोका ॥112॥
शास्त्रों में है लिखित प्रभु की भक्ति निष्काम जो है।
सो दिव्या है मनुज-तन की सर्व संसिद्धियों से।
मैं होती हूँ सुखित यह जो तत्वतः देखती हूँ।
प्यारे की औ परम-प्रभु की भक्तियाँ हैं अभिन्ना ॥113॥
द्रुतविलम्बित छंद
जगत-जीवन प्राण स्वरूप का।
निज पिता जननी गुरु आदि का।
स्व-प्रिय साधन भक्ति है।
वह अकाम महा-कमनीय है॥114॥
श्रवण, कीर्तन, वन्दन, दासता।
स्मरण, आत्म-निवेदन, अर्चना।
सहित सख्य तथा पद-सेवना।
निगदिता नवधा प्रभु-भक्ति है ॥115॥
वंशस्थ छंद
बना किसी की यक मूर्ति कल्पिता।
करे उसकी पद-सेवनादि जो।
न तुल्य होगा वह बुद्धि दृष्टि से।
स्वयं उसीकी पद-अर्चनादि के ॥116॥
मन्दाक्रान्ता छंद
विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो हैं उसीके।
सारे प्राणी सरि गिरि लता वेलियाँ वृक्ष नाना।
रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।
भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तमा हैं॥117॥
जी से सारा कथन सुनना आर्त्त-उत्पीड़ितों का।
रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक-उन्नायकों का।
सच्छास्त्रों का श्रवण सुनना वाक्य सत्संगियों का।
मानी जाती श्रवण-अभिधा-भक्ति है सज्जनों में ॥118॥
सोये जागें, तम-पतित की दृष्टि में ज्योति आवे।
भूले आवें सु-पथ पर औ ज्ञान-उन्मेष होवे।
ऐसे गाना कथन करना दिव्य-न्यारे गुणों का।
है प्यारी भक्ति प्रभुवर की कीर्तनोपाधिवाली ॥119॥
विद्वानों के स्व-गुरु-जन के देश के प्रेमिकों के।
ज्ञानी दानी सु-चरित गुणी सर्व-तेजस्वियों के।
आत्मोत्सर्गी विवुध जन के देव सद्विग्रहों के।
आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या ॥120॥
जो बातें हैं भव-हितकरी सर्व-भूतोपकारी।
जो चेष्टायें मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती।
हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना।
विश्वात्मा-भक्ति भव-सुखदा दासता-संज्ञका है॥121॥
कंगालों को विवश विधवा औ अनाथाश्रितों की।
उद्विग्नों की सुरति करना औ उन्हें त्राण देना।
सत्कार्यों का पर-हृदय की पीर का ध्यान आना।
मानी जाती स्मरण-अभिधा भक्ति है भावुकों में ॥122॥
द्रुतविलम्बित छंद
विपद-सिन्धु पड़े नर वृन्द के।
दुख-निवारण औ हित के लिए।
अरपना अपने तन प्राण को।
प्रथित आत्म-निवेदन-भक्ति है ॥123॥
मन्दाक्रान्ता छंद
संत्रस्तों को शरण मधुरा-शान्ति संतापितों को।
निर्बोधों को सु-मति विविधा औषधी पीड़ितों को।
पानी देना तृषित-जन को अन्न भूखे नरों को।
सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना-संज्ञका है॥124॥
नाना प्राणी तरु गिरि लता आदि की बात ही क्या।
जो दूर्वा से धु-मणि तक है व्योम में या धरा में
सद्भावों के सहित उनसे कार्य-प्रत्येक लेना।
सच्चा होना सहृद उनका भक्ति है सख्य-नाम्नी॥125॥
वसन्ततिलका छंद
जो प्राणी-पुंज निज कर्म-निपीड़नों से।
नीचे समाज-वपु के पग सा पड़ा है।
देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा।
है भक्ति लोक-पति की पद-सेवनाख्या ॥126॥
द्रुतविलम्बित छंद
कह चुकी प्रिय-साधन ईश का।
कुँवर का प्रिय-साधन है यही।
इस लिए प्रिय की परमेश की।
परम-पावन-भक्ति अभिन्न है ॥127॥
यह हुआ मणि-कांचन-योग है।
मिलन है यह स्वर्ण-सुगंध का।
यह सुयोग मिले बहु-पुण्य से।
अवनि में अति-भाग्यवती हुई॥128॥
मन्दाक्रान्ता छंद
जो इच्छा है परम-प्रिय की जो अनुज्ञा हुई है।
मैं प्राणों के अछत उसको भूल कैसे सकूँगी।
यों भी मेरे परम व्रत के तुल्य बातें यही थीं।
हो जाऊँगी अधिक अब मैं दत्तचित्ता इन्हीं में ॥129॥
मैं मानूँगी अधिक मुझमें मोह-मात्रा अभी है।
होती हूँ मैं प्रणय-रंग से रंजिता नित्य तो भी।
ऐसी हूँगी निरत अब मैं पूत-कार्यावली में।
मेरे जी में प्रणय जिससे पूर्णत: व्याप्त होवे॥130॥
मैंने प्रायः निकट प्रिय के बैठ, है भक्ति सीखी।
जिज्ञासा से विविध उसका मर्म है जान पाया।
चेष्टा ऐसी सतत अपनी बुद्धि-द्वारा करूँगी।
भूलूं-चूकूँ न इस व्रत की पूत-का-वली में ॥131॥
जा के मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावें।
मेरे प्यारे कुँवर-वर को आप सौजन्य-द्वारा।
मैं ऐसी हूँ न निज-दुख से कष्टिता शोक-मग्ना।
हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियों के दुखों से॥132॥
गोपी गोपों विकल ब्रज की बालिका बालकों को।
आ के पुष्पानुपम मुखड़ा प्राणप्यारे दिखावें।
वाधा कोई न यदि प्रिय के चारु-कर्त्तव्य में हो।
तो वे आ के जनक-जननी की दशा देख जावें॥133॥
मैं मानूँगी अधिक बढ़ता लोभ है लाभ ही से।
तो भी होगा सु-फल कितनी भ्रान्तियाँ दूर होंगी।
जो उत्कण्ठा-जनित दुखड़े दाहते हैं उरों को।
सद्वाक्यों से प्रबल उनका वेग भी शांत होगा॥134॥
सत्कर्मी हैं परम-शुचि हैं आप ऊधो सुधी हैं।
अच्छा होगा सनय प्रभु से आप चाहें यही जो।
आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ।
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे ॥135॥
द्रुतविलम्बित छंद
चुप हुई इतना कह मुग्ध हो।
ब्रज-विभूति-विभूषण राधिका।
चरण की रज ले हरिबंधु भी।
परम-शान्ति-समेत विदा हुए॥136॥
सप्तदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
ऊधे लौटे नगर मथुरा में कई मास बीते ।
आये थे वे ब्रज-अवनि में दो दिनों के लिए ही।
आया कोई न फिर ब्रज में औ न गोपाल आये।
धीरे-धीरे निशि-दिन लगे बीतने व्यग्रता से॥1॥
बीते थोड़ा दिवस ब्रज में एक सम्वाद आया।
कन्याओं से निधन सुन के कंस का कृष्ण द्वारा।
जाना ग्रामों पुर नगर को फूंकता भू-कॅपाता।
सारी सेना सहित मथुरा है जरासन्ध आता ॥2॥
ए बातें ज्यों ब्रज-अवनि में हो गई व्यापमाना।
सारे प्राणी अति व्यथित हो, हो गये शोक-मग्न ।
क्या होवेगा परम-प्रिय की आपदा क्यों टलेगी।
ऐसी होने प्रति-पल लगीं तर्कनायें उरों में ॥3॥
जो होती थी गगन-तल में उत्थिता धूलि यों ही।
तो आशंका विवश बनते लोग थे बावले से।
जो टापें हो ध्वनित उठती घोटकों की कहीं भी।
तो होता है हृदय शतधा गोप-गोपांगना का॥4॥
धीरे-धीरे दुख-दिवस ए त्रास के साथ बीते।
लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहों में।
सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम-हाथों।
प्राणों को ले मगध-पति हो भूरि उद्विग्न भागा॥5॥
बारी-बारी ब्रज-अवनि को कम्पमाना बना के।
बातें धावा-मगध-पति की सत्तरा-बार फैलीं।
आया सम्वाद ब्रज-महि में बार अट्ठारहीं जो।
टूटी आशा अखिल उससे नन्द-गोपादिकों की ॥6॥
हा! हाथों से पकड़ अबकी बार ऊबा-कलेजा
रोते-धोते यह दुखमयी बात जानी सबों ने।
उत्पातों से मगध-नृप के श्याम ने व्यग्र हो के।
त्यागा प्यारा-नगर मथुरा जा बसे द्वारिका में ॥7॥
ज्यों होता है शरद त्रतु के बीतने से हताश ।
स्वाती-सेवी अतिशय तृष्णावान प्रेमी पपीहा।
वैसे ही श्री कुँवर-वर के द्वारिका में पधारे।
छाई सारी ब्रज-अवनि में सर्वदेशी निराशा ॥8॥
प्राणी आशा-कमल-पग को है नहीं त्याग पाता।
सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि में है।
व्यापी भू के उर-तिमिर सी है जहाँ पै निराशा।
हैं आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी॥9॥
आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी।
लाखों आँखें पथ कुँवर का आज भी देखती थीं।
मात्रायें थीं समधिक हुईं शोक दुःखादिकों की।
लोहू आता विकल-दृग में वारि के स्थान में था ॥10॥
कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा।
ढालेगा अश्रु कब तक क्यों थाम टूटा-कलेजा।
जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध होके।
कोई होगा बिरत कब लौं विश्व-वयापी-सुखों से॥11॥
न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की।
ताराओं से खचित नभ की नीलिमा मेघ-माला।
पेड़ों की औ ललित-लतिका-वेलियों की छटायें।
कान्ता-क्रीड़ा सरित सर औ निर्झरों के जलों की॥12॥
मीठी-तानें मधुर-लहरें गान-वाद्यादिकों को।
प्यारी बोली विहग-कुल की बालकों की कलायें।
सारी-शोभा रुचिर-ऋतु की पर्व की उत्सवों की।
वैचित्र्यों से बलित धरती विश्व की सम्पदायें ॥13॥
संतप्तों का, प्रबल-दुख से दग्ध का, दृष्टि
आना।
जो आँखों में कुटिल-जग का चित्र सा खींचते हैं
आख्यानों से सहित सुखदा-सान्त्वना सज्जनों की।
संतानों की सहज ममता पेट-धन्धे सहस्रों॥14॥
हैं प्राणी के हृदय-तल को फेरते मोह लेते।
धीरे-धीरे प्रबल-दुख का वेग भी हैं घटाते।
नाना भावों सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से।
वे हैं प्रायः व्यथित-उर की वेदनायें हटाते॥15॥
गोपी-गोपों जनक-जननी बालिका-बालकों के।
चित्तोन्मादी प्रबल-दुख का वेग भी काल पा सके।
धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्रायः।
तो भी व्यापी हृदय-तल में श्यामली मूर्ति ही थी॥16॥
वे गाते तो मधुर-स्वर से श्याम की कीर्ति गाते।
प्रायः चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की।
मानी जाती सुतिथि वह थीं पर्व औ उत्सवों की।
थीं लीलायें ललित जिनमें राधिका-कांत ने की॥17॥
खो देने में विरह-जनिता वेदना किल्विषों के।
ला देने में व्यथित-उर में शान्ति भावानुकूल।
आशा दग्धा जनक-जननी चित्त के बोधने में।
की थी चेष्टा अधिक परमा-प्रेमिका राधिका ने॥18॥
चिन्ता-ग्रस्ता विरह-विधुरा भावना में निमग्ना।
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे होती थीं बहु-उपकृता-नित्य श्री राधिका से।
घंटों आ के पग-कमल के पास वे बैठती थीं॥19॥
जो छा जाती गगन-तल के अंक में मेघ-माला।
जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा
प्रायः उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा।
तो उन्मत्ता-सदृश बन के बालिकायें अनेकों ॥20॥
ये बातें थीं स-जल घन को खिन्न हो हो सुनाती।
क्यों तू हो के परम-प्रिय सा वेदना है बढ़ाता।
तेरी संज्ञा सलिल-धर है और पर्जन्य भी है।
ठंढा मेरे हृदय-तल को क्यों नहीं तू बनाता ॥21॥
तू केकी को स्व-छवि दिखला है महा मोद देता।
वैसा ही क्यों मुदित तुझसे है पपीहा न होता।
क्यों है मेरा हृदय दुखता श्यामता देख तेरी।
क्यों ए तेरी त्रिविध मुझको मूर्तियाँ दीखती हैं॥22॥
ऐसी ठौरों पहुँच बहुधा राधिका कौशलों से।
ए बातें थीं पुलक कहतीं उन्मना-बालिका से।
देखो प्यारी भगिनि भव को प्यार की दृष्टियों से।
जो थोड़ी भी हृदय-तल में शान्ति की कामना है॥23॥
ला देता है जलद दृग में श्याम की मंजु-शोभा।
पक्षाभा से मुकुट-सुषमा है कलापी दिखाता।
पी का सच्चा प्रणय उर में आँकता है पपीहा।
ए बातें हैं सुखद इनमें भाव क्या है व्यथा का ॥24॥
होती राका विमल-विधु से बालिका जो विपन्ना।
तो श्री राधा मधुर-स्वर से यों उसे थीं सुनाती।
तेरा होना विकल सुभगे बुद्धिमत्ता नहीं है।
क्या प्यारे की वदन-छवि तू इन्दु में है न पाती॥25॥
मालिनी छंद
जब कुसुमित होतीं वेलियाँ औ लतायें।
जब ऋतुपति आता आम की मंजरी ले।
जब रसमय होती मेदिनी हो मनोज्ञा।
जब मनसिज लाता मत्तता मानसों में ॥26॥
जब मलय-प्रसूता-वायु आती सु-सिक्ता।
जब तरु कलिका औ कोंपलों से लुभाता।
जब मधुकर-माला गूंजती कुंज में थी।
जब पुलकित हो हो कूकतीं कोकिलायें ॥27॥
तब ब्रज बनता था मूर्ति उद्विग्नता की।
प्रति-जन उर में थी वेदना वृद्धि पाती।
गृह, पथ, वन, कुंजों मध्य
थीं दृष्टि आती।
बहु-विकल उनींदी, ऊबती, बालिकायें ॥28॥
इन विविध व्यथाओं मध्य डूबे दिनों में।
अति-सरल-स्वभावा सुन्दरी एक बाला।
निशि-दिन फिरती थी प्यार से सिक्त हो के।
गृह, पथ, बहु-बागों,
कुंज-पुंजों, वनों में॥29॥
वह सहृदयता से ले किसी मूर्छिता को।
निज अति उपयोगी अंक में यत्न-द्वारा।
मुख पर उसके थी डालती वारि-छींटे।
वर-व्यजन डुलाती थी कभी तन्मयी हो॥30॥
कुवलय-दल बीछे पुष्प औ पल्लवों को।
निज-कलित-करों से थी धरा में बिछाती।
उस पर यक तप्ता बालिका को सुला के।
वह निज कर से थी लेप ठंढे लगाती॥31॥
यदि अति अकुलाती उन्मना-बालिका को ।
वह कह मृदु-बातें बोधती कुंज में जा।
वन-वन बिलखाती तो किसी बावली का।
वह ढिग रह छाया-तुल्य संताप खोती ॥32॥
यक थल अवनी में लोटती वंचिता का।
तन रज यदि छाती से लगा पोंछती थी।
अपर थल उनींदी मोह-मग्ना किसी को।
वह शिर सहला के गोद में थी सुलाती॥33॥
सुन कर उसमें की आह रोमांचकारी।
वह प्रति-गृह में थी शीघ्र से शीघ्र जाती।
फिर मृदु-वचनों से मोहनी-उक्तियों से।
वह प्रबल-व्यथा का वेग भी थी घटाती॥34॥
गिन-गिन नभ-तारे ऊब आँसू बहा के।
यदि निज-निशि होती कश्चिदार्ता बिताती।
वह ढिग उसके भी रात्रि में ही सिधाती।
निज अनुपम राधा-नाम की सार्थता से॥35॥
मन्दाक्रान्ता छंद
राधा जाती प्रति-दिवस थीं पास नन्दांगना के।
नाना बातें कथन कर के थीं उन्हें बोध देती।
जो वे होती परम-व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना।
तो वे आठों पहर उनकी सेवना में बितातीं॥36॥
घंटों ले के हरि-जननि को गोद में बैठती थीं।
वे थीं नाना जतन करतीं पा उन्हें शोक-मग्ना।
धीरे-धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त-पीड़ा।
हाथों से थीं दृग-युगल के वारि को पोंछ देती ॥37॥
हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थीं यशोदा।
क्या आवेंगे न अब ब्रज में जीवनाधार मेरे।
तो वे धीरे मधुर-स्वर से हो विनीता बताती।
हाँ आवेंगे, व्यथित-ब्रज को श्याम कैसे तजेंगे॥38॥
आता ऐसा कथन करते वारि राधा-दृगों में।
बूंदों-बूंदों टपक पड़ता गाल पै जो कभी था।
जो आँखों से सदुख उसको देख पाती यशोदा।
तो धीरे यों कथन करती खिन्न हो तू न बेटी ॥39॥
हो के राधा विनत कहतीं मैं नहीं रो रही हूँ।
आता मेरे दृग युगल में नीर आनन्द का है
जो होता है पुलक करके आप की चारु सेवा।
हो जाता है प्रकटित वही वारि द्वारा दृगों में॥40॥
वे थीं प्राय: ब्रज-नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं।
सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती।
बातों ही में जग -विभव की तुच्छता थीं दिखाती।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनाती॥41॥
होती मारे मन यदि कहीं गोप की पंक्ति बैठी।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता।
तो कार्यों में सविधि उनको यत्नतः वे लगातीं।
औ ए बातें कथन करती भूरि गंभीरता से ॥42॥
जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को हैं।
तो पा भू में पुरुष-तन को, खिन्न हो के न बैठे।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिये कार्य्य ऐसे।
जो प्यारे हैं परम प्रिय के विश्व के प्रेमिकों के॥43॥
जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
देतीं पुष्पों रचित उनको मुग्धकारी खिलौने।
दे शिक्षायें विविध उनसे कृष्ण-लीला करातीं।
घंटों बैठी परम-रुचि से देखतीं तद्गता हो॥44॥
पाई जातीं दुखित जितनी अन्य गोपांगनायें।
राधा द्वारा सुखित वह भी थीं यथा रीति होती।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।
प्यारी-बातें कथन कर के वे उन्हें बोध देतीं ॥145॥
संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना-कार्य में भी।
वे सेवा थीं सतत करती वृद्ध-रोगी जनों की।
दीनों, हीनों, निबल विधवा आदि को मनाती
थीं।
पूजी जाती ब्रज-अवनि में देवियों सी अतः थीं॥46॥
खो देती थीं कलह-जनिता आधि के दुर्गुणों को।
धो देती थीं मलिन-मन की व्यापिनी कालिमायें।
बो देती थीं हृदय-तल के बीज भावज्ञता का।
वे थीं चिन्ता-विजित-गृह में शान्ति-धारा बहाती ॥147॥
आटा चींटी विहग गण थे वारि औ अन्न पाते।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी।
पत्तों को भी न तरु-वर के वे वृथा तोड़ती थीं।
जी से वे थीं निरत रहती भूत-सम्बर्द्धना में॥48॥
वे छाया थीं सु-जन शिर की शासिका थीं खलों कीं।
कंगालों की परम निधि थीं औषधी पीड़ितों की।
दीनों की थीं बहिन, जननी थीं अनाथाश्रितों की।
आराध्या थीं ब्रज -अवनि की प्रेमिका विश्व की थीं॥49॥
जैसा व्यापी विरह-दुख था गोप गोपांगना का।
वैसी ही थीं सदय-हृदया स्नेह ही मूर्ति राधा।
जैसी मोहावरित-ब्रज में तामसी-रात आई।
वैसे ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थीं ॥50॥
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।
श्री राधा के हृदय-बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।
वे भी छाया-सदृश उनकी वस्तुतः हो गई थीं ॥51॥
तो भी आई न वह घटिका औ न वे वार आये।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते।
वैसे उन्माद-कर-स्वर से कोकिला भी न बोली ॥52॥
जीते भूले न ब्रज-महि के नित्य उत्कण्ठ प्राणी।
जी से प्यारे जलद-तन को, केलि-क्रीड़ादिकों को।
पीछे छाया विरह-दुख की वंशजों-बीच व्यापी।
सच्ची यों है ब्रज-अवनी में आज भी अंकिता है ॥53॥
सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे।
राधा जैसी सदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
हे विश्वात्मा! भरत-भुव के अंक में और आवें।
ऐसी व्यापी विरह-घटना किंतु कोई न होवे ॥54॥नाना मनोरम रहस्य-मयी अनूठी।
जो हैं प्रसूत भवदीय मुखाब्ज द्वारा।
हैं वांछनीय वह, सर्व सुखेच्छुकों की ॥73॥
सौभाग्य है व्यथित-गोकुल के जनों का।
जो पाद-पंकज यहाँ भवदीय आया।
है भाग्य की कुटिलता वचनोपयोगी।
होता यथोचित नहीं यदि कार्यकारी ॥74॥
प्रायः विचार उठता उर-मध्य होगा।
ए क्यों नहीं वचन हैं सुनते हितों के।
है मुख्य-हेतु इसका न कदापि अन्य।
लौ एक श्याम-घन की ब्रज को लगी है।।75 ।।
न्यारी-छटा निरखना दृग चाहते हैं।
है कान को सु-यश भी प्रिय श्याम ही का।
गा के सदा सु-गुण है रसना अघाती।
सर्वत्र रोम तक में हरि ही रमा है।॥76॥
जो हैं प्रवंचित कभी दृग-कर्ण होते।
तो गान है सु-गुण को करती रसज्ञा ।
हो हो प्रमत्त ब्रज-लोग इसी लिए ही।
गा श्याम का सुगुण वासर हैं बिताते ॥77॥
संसार में सकल-काल-नृ-रत्न ऐसे।
हैं हो गये अवनि है जिनकी कृतज्ञा।
सारे अपूर्व-गुण हैं उनके बताते।
सच्चे-नृ-रत्न हरि भी इस काल के हैं ॥78॥
जो कार्य्य श्याम-घन ने करके दिखाये।
कोई उन्हें न सकता कर था कभी भी।
वे कार्य औ द्विदश-वत्सर की अवस्था।
ऊधो न क्यों फिर नृ-रत्न मुकुन्द होंगे॥79॥
बातें बड़ी सरस थे कहते बिहारी।
छोटे बड़े सकल का हित चाहते थे।
अत्यन्त प्यार दिखला मिलते सबों से।
वे थे सहायक बड़े दुख के दिनों में ॥80॥
वे थे विनम्र बन के मिलते बड़ों से।
थे बात-चीत करते बहु-शिष्टता से।
बातें विरोधकर थीं उनको न प्यारी।
वे थे न भूल कर भी अप्रसन्न होते ॥81॥
थे प्रीति-साथ मिलते सब बालकों से।
थे खेलते सकल-खेल विनोद-कारी।
नाना-अपूर्व-फल-फूल खिला खिला के।
वे थे विनोदित सदा उनको बनाते ॥82॥
जो देखते कलह शुष्क-विवाद होता।
तो शांत श्याम उसको करते सदा थे।
कोई बली नि-बल को यदि था सताता।
तो वे तिरस्कृत किया करते उसे थे॥83॥
होते प्रसन्न यदि वे यह देखते थे।
कोई स्व-कृत्य करता अति-प्रीति से है।
यों ही विशिष्ट-पद गौरव की उपेक्षा।
देती नितान्त उनके चित को व्यथा थी॥84॥
माता पिता गुरुजनों वय में बड़ों को।
होते निराद्रित कहीं यदि देखते थे।
तो खिन्न हो दुखित हो लघु को सुतों को।
शिक्षा समेत बहुधा बहु-शास्ति देते ॥85॥
थे राज-पुत्र उनमें मद था न तो भी।
वे दीन के सदन थे अधिकांश जाते।
बातें-मनोरम सुना दुख जानते थे।
औ थे विमोचन उसे करते कृपा में ॥86॥
रोगी दुखी विपद-आपद में पड़ों की।
सेवा सदैव करते निज-हस्त से थे।
ऐसा निकेत ब्रज में न मुझे दिखाया।
कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवें ॥87॥
संतान-हीन-जन तो ब्रज-बंधु को पा।
संतान-वान निज को कहते रहे ही।
संतान-वान जन भी ब्रज-रत्नही का।
संतान से अधिक थे रखते भरोसा ॥88॥
जो थे किसी सदन में बलवीर जाते।
तो मान वे अधिक पा सकते सुतों से।
थे राज-पुत्र इस हेतु नहीं; सदा वे।
होते सुपूजित रहे शुभ-कर्म द्वारा ॥89॥
भू में सदा मनुज है बहु-मान पाता।
राज्याधिकार अथवा धन-द्रव्य-द्वारा।
होता परंतु वह पूजित विश्व में है।
निस्स्वार्थ भूत-हित औ कर लोक-सेवा॥90॥
थोड़ी अभी यदिच है उनकी अवस्था ।
तो भी नितान्त-रत वे शुभ-कर्म में हैं।
ऐसा विलोक वर-बोध स्वभाव से ही।
होता सु-सिद्ध यह है वह हैं महात्मा ॥91॥
विद्या सु-संगति समस्त-सु-नीति शिक्षा।
ये तो विकास भर की अधिकारिणी हैं।
अच्छा-बुरा मलिन-दिव्य स्वभाव भू में।
पाता निसर्ग कर से नर सर्वदा है॥92।।
ऐसे सु-बोध मतिमान कृपालु ज्ञानी
जो आज भी न मथुरा-तज गेह आये।
तो वे न भूल ब्रज-भूतल को गये हैं।
है अन्य-हेतु इसका अति-गूढ कोई ॥93॥
पूरी नहीं कर सके उचिताभिलाषा।
नाना महान जन भी इस मोदिनी में।
होने निरस्त बहुधा नृप-नीतियों से।
लोकोपकार-व्रत में अवलोक बाधा ॥94॥
जी में यही समझ सोच-विमूढ़-सा हो।
मैं क्या कहूँ न यह है मुझको जनाता।
हाँ, एक ही विनय हूँ करता स-आशा।
कोई सु-युक्ति ब्रज के हित की करें वे॥95॥
है रोम-रोम कहता घनश्याम आवें।
आ के मनोहर-प्रभा मुख की दिखावें।
डालें प्रकाश उर के तम को भगावें।
ज्योतिर्विहीन-दृग की द्युति को बढ़ावें ॥96॥
तो भी सदैव चित से यह चाहता हूँ।
है रोम-कूप तक से यह नाद होता।
संभावना यदि किसी कु-प्रपंच की हो।
वो श्याम-मूर्ति ब्रज में न कदापि आवें ॥97॥
कैसे भला स्व-हित की कर चिन्तनायें।
कोई मुकुन्द-हित-ओर न दृष्टि देगा।
कैसे अश्रेय उसका प्रिय हो सकेगा।
जो प्राण से अधिक है ब्रज-प्राणियों का ॥98॥
यों सर्व-वृत्त कहके बहु-उन्मना हो।
आभीर ने वदन ऊधव का विलोका।
उद्विग्नता सु-दृढ़ता अ-विमुक्त बांछा।
होती प्रसूत उसकी खर-दृष्टि से थी॥99॥
ऊधो विलोक करके उसकी अवस्था।
औ देख गोपगण को बहु-खिन्न होता।
बोले गिरा मधुर शान्ति-करी विचारी।
होवे प्रबोध जिससे दुख-दग्धितों का ॥100॥
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त गये गृह को सभी।
ब्रज विभूषण-कीर्ति बखानते।
विवुध पुंगव ऊधव को बना।
विपुल बार विमोहित पंथ में ॥101॥
त्रयोदश सर्ग
वंशस्थ छंद
विशाल-वृन्दावन भव्य-अंक में।
रही धरा एक अतीव-उर्वरा।
नितान्त-रम्या तृण-राजि-संकुला।
प्रसादिनी प्राणी-समूह दृष्टि की॥1॥
कहीं कहीं थे विकसे प्रसून भी।
उसे बनाते रमणीय जो रहे।
हरीतिमा में तृण-राजि-मंजु की।
बड़ी छोटी थी सित-रक्त-पुष्प की ।।2।।
विलोक शोभा उसकी समुत्तमा।
समोद होती यह कांत-कल्पना।
सजा-बिछौना हरिताभ है बिछा।
वनस्थली बीच विचित्र-वस्त्र का ॥3।।
स-चारुता हो कर भूरि-रंजिता।
सु-श्वेतता रक्तिमता-विभूति से।
विराजती है अथवा हरीतिमा।
स्वकीय-वैचित्र्य विकाश के लिए ॥4॥
विलोकनीया इस मंजु-भूमि में।
जहाँ तहाँ पादप थे हरे-भरे।
अपूर्व-छाया जिनके सु-पत्र की।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी॥5॥
कहीं कहीं था विमलाम्बु भी भरा।
सुधा समासादित संत-चित्त सा।
विचित्र-क्रीड़ा जिसके सु-अंक में।
अनेक-पक्षी करते स-मत्स्य थे ॥6॥
इसी धरा में बहु-वत्स वृन्द ले।
अनेक-गायें चरती समोद थीं।
अनके बैठी वट-वृक्ष के तले।
शनैः शनैः थीं करती जुगालियाँ ॥7॥
स-गर्व गंभीर-निनाद को सुना।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते।
विमोहिता धेनु-समूह को बना।
स्व-गात की पीवरता प्रभाव से॥8॥
बड़े-सधे-गोप-कुमार सैकड़ों।
गवादि के रक्षण में प्रवृत्त थे।
बजा रहे थे कितने विषाण को।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का॥9॥
कई अनूठे-फल तोड़ तोड़ खा।
विनोदिता थे रसना बना रहे।
कई किसी सुंदर-वृक्ष के तले।
स-बंधु बैठे करते प्रमोद थे॥10॥
इसी घड़ी कानन-कुंज देखते।
वहाँ पधारे बलवीर-बंधु भी।
विलोक आता उनको सुखी बनी।
प्रफुल्लिता गोपकुमार-मण्डली ॥11॥
बिठा बड़े-आदर-भाव से उन्हें।
सभी लगे माधव-वृत्त पूछने।
बड़े-सुधी ऊधव भी प्रसन्न हो।
लगे सुनाने ब्रज-देव की कथा ॥12॥
मुकुन्द की लोक-ललाम-कीर्ति को।
सुना सबों ने पहले विमुग्ध हो।
पुनः बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने।
व्यथा बढ़े यों हरि-बंधु से कहा ॥13॥
मुकुन्द चाहे वसुदेव-पुत्र हों।
कुमार होवें अथवा ब्रजेश के।
बिके उन्हीं के कर सर्व-गोप हैं।
बसे हुए हैं मन प्राण में वही ॥14॥
अहो यही है ब्रज-भूमि जानती।
ब्रजेश्वरी हैं जननी मुकुन्द की।
परंतु तो भी ब्रज-प्राण हैं वही।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा॥15॥
मुकुन्द चाहे यदु-वंश के बनें।
सदा रहें या वह गोप-वंश के।
न तो सकेंगे ब्रज-भूमि भूल वे।
न भूल देगी ब्रज-मेदिनी उन्हें ॥16॥
वरंच न्यारी उनकी गुणावली।
बता रही यह, तत्त्व तुल्य ही।
न एक का किंतु मनुष्य-मात्र का।
समान है स्वत्व मुकुन्द-देव में ॥17॥
बिना विलोके मुख-चन्द श्याम का।
अवश्य है भू ब्रज की विषादिता।
परंतु सो है अधिकांश-पीड़िता।
न लौटने से बलदेव-बंधु ॥18॥
दयालुता-सज्जनता-सुशीलता।
बढ़ी हुई है घनश्याम मूर्ति की।
द्वि-दंड भी वे मथुरा न बैठते।
न फैलता व्यर्थ प्रपंच-जाल जो ॥19॥
सदा बुरा हो उस कूट-नीति का।
जले महापावक में प्रपंच सो।
मनुष्य लोकोत्तर-श्याम सा जिन्हें ।
सका नहीं रोक अकांत कृत्य से॥20॥
विडम्बना है विधी की बलीयसी।
अखण्डनीया-लिपि है ललाट की।
भला नहीं तो तुहिनाभिभूत हो।
विनष्ट होता रवि-बंधु-कंज क्यों ॥21॥
'विभूतिशाली-ब्रज, श्री मुकुन्द का।'
निवास भू द्वादश-वर्ष जो रहा।
बड़ी-प्रतिष्ठा इससे उसे मिली।
हुआ महा-गौरव गोप-वंश का ॥22॥
चरित्र ऐसा उनका विचित्र है।
प्रविष्ट होती जिसमें न बुद्धि है।
सदा बनाती मन को विमुग्ध है।
अलौकिकालोमकयी गुणावली ॥23॥
अपूर्व-आदर्श दिखा नरत्त्व का।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता।
सिखा उन्होंने चित की समुच्चता।
बना दिया मानव गोप-वृन्द को ॥24॥
मुकुन्द थे पुत्र ब्रजेश-नन्द के
गऊ चराना उनका न कार्य था।
रहे जहाँ सेवक सैकड़ों वहाँ।
उन्हें भला कानन कौन भेजता ॥25॥
परंतु आते वन में स-मोद वे।
अनन्त-ज्ञानार्जन के लिए स्वयं।
तथा उन्हें वांछित थी नितान्त ही।
वनान्त में हिंस्रक-जन्तु-हीनता ॥26॥
मुकुन्द आते जब थे अरण्य में।
प्रफुल्ल हो तो करते विहार थे।
विलोकते थे सु-विलास वारिका।
कलिन्दजा के कल कूल पै खड़े ॥27॥
स-मोद बैठे गिरि-सानु पै कभी।
अनेक थे सुंदर-दृश्य देखते।
बने महा-उत्सुक वे कभी छटा।
विलोकते निर्झर-नीर की रहे ॥28॥
सु-वीथिका में कल-कुंज-पुंज में।
शनैः शनैः वे स-विनोद घूमते ।
विमुग्ध हो हो कर थे विलोकते।
लता-सपुष्पा मृदु-मन्द-दूलिता ॥29॥
पतंगजा-सुंदर स्वच्छ-वारि में।
स-बंधु थे मोहन तैरते कभी।
कदम्ब-शाखा पर बैठ मत्त हो।
कभी बजाते निज-मंजु-वेणु वे ॥30॥
वनस्थली उर्वर-अंक उद्भवा।
अनेक बूटी उपयोगिनी-जड़ी।
रही परिज्ञात मुकुन्द-देव को।
स्वकीय-संधान-करी सु-बुद्धि से ॥31॥
वनस्थली में यदि थे विलोकते।
किसी परीक्षा-रत-धीर-व्यक्ति को।
सु-बूटियों का उससे मुकुंद तो।
स-मर्म थे सर्व-रहस्य जानते ॥32॥
नवीन-दूर्वा फल-फल-मूल क्या।
वरंच वे लौकिक तुच्छ-वस्तु को।
विलोकते थे खर-दृष्टि से सदा।
स्व-ज्ञान-मात्रा-अभिवृद्ध के लिए ॥33॥
तृणाति साधारण को उन्हें कभी।
विलोकते देख निविष्ट चित्त से।
विरक्त होती यदि ग्वाल-मण्डली।
उसे बताते यह तो मुकुन्द थे ॥34॥
रहस्य से शून्य न एक पत्र है।
न विश्व में व्यर्थ बना तृणेक है।
करो न संकीर्ण विचार-दृष्टि को।
न धूलि की भी कणिका निरर्थ है ॥35॥
वनस्थली में यदि थे विलोकते।
कहीं बड़ा भीषण-दुष्ट-जन्तु तो।
उसे मिले घात मुकुन्द मारते।
स्व-वीर्य से साहस से सु-युक्ति से ॥36॥
यहीं बड़ा-भीषण एक व्याल था।
स्वरूप जो था विकराल-काल का।
विशाल काले उसके शरीर की।
करालता थी मति-लोप-कारिणी॥37॥
कभी फणी जो पथ-मध्य वक्र हो।
कँपा स्व-काया चलता स-वेग तो।
वनस्थली में उस काल त्रास का।
प्रकाश पाता अति-उग्र-रूप था ॥38॥
समेट के स्वीय विशालकाय को।
फणा उठा, था जब व्याल बैठता।
विलोचनों को उस काल दूर से।
प्रतीत होता वह स्तूप-तुल्य था ॥39॥
विलोल जिह्वा मुख से मुहुर्मुहुः।
निकालता था जब सर्प क्रुद्ध हो।
निपात होता तब भूत-प्राण था।
विभीषिका-गर्त नितान्त गूढ़ में ॥40॥
प्रलम्ब आतंक-प्रसू, उपद्रवी।
अतीव मोटा यम-दीर्घ-दण्ड सा।
कराल आरक्तिम-नेत्रवान औ।
विषाक्त-फूत्कार-निकेत सर्प था ॥41॥
विलोकते ही उसको वराह की।
विलोप होती वर-वीरता रही।
अधीर हो के बनता अ-शक्त था।
बड़ा-बली वज्र-शरीर केशरी ॥42॥
असह्य होती तरु-वृन्द को सदा।
विषाक्त-साँसें दल दग्ध-कारिणी।
जिला विचूर्ण होती बहुशः शिला रहीं।
कठोर-उद्बन्धन-सर्प-गात्र से॥43॥
अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी।
विदग्ध होते नित थे पतंग से।
भयंकरी प्राणि-समूह-ध्वंसिनी।की
महादुरात्मा अहि-कोप-वह्नि थी॥44॥
अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह में।
निवास प्रायः करता भुजंग था।
परंतु आता वह था कभी-कभी।
यहाँ बुभुक्षा-वश उग्र-वेग से ॥45॥
विराजता सम्मुख जो सु-वृक्ष है।
बड़े-अनूठे जिसके प्रसून हैं।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे।
तले इसी पादप के स-मण्डली ॥46॥
दिनेश ऊँचा वर-व्योम मध्य हो।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था।
इतस्ततः थे बहु गोप घूमते।
असंख्य-गायें चरती समोद थीं॥47॥
इसी में अनूठे-अनुकूल-काल
अपार-कोलाहल आर्त्त-नाद से।
मुकुन्द की शान्ति हुई विदूरिता।
स-मण्डली वे शश-व्यस्त हो गये ॥48॥
विशाल जो है वट-वृक्ष सामने । ।
स्वयं उसी की गिरि-भंग-स्पर्धिनी।
समुच्च-शाखा पर श्याम जा चढ़े।
तुरन्त ही संयत औ सतर्क हो ॥49॥
उन्हें वहीं से दिखला पड़ा वही।
भयावना-सर्प दुरन्त-काल सा।
दिखा बड़ी निष्ठुरता विभीषिका।
मृगादि का जो करता विनाश था॥50॥
उसे लखे पा भय भाग थे रहे।
असंख्य-प्राणी वन में इतस्ततः।
गिरे हुए थे महि में अचेत हो।
समीप के गोप स-धेनु-मण्डली ॥51॥
स्व-लोचनों से इस क्रूर-काण्ड को।
विलोक उत्तेजित श्याम हो गये।
तुरन्त आ, पादप-निम्न, दर्प से।
स-वेग दौड़े खल-सर्प ओर वे ॥52॥
समीप जा के निज मंजु-वेणु को।
बजा उठे वे इस दिव्य-रीति से।
विमुग्ध होने जिससे लगा फणी।
अचेत-आभीर सचेत हो उठे॥53॥
मुहुर्मुहुः अद्भुत-वेणु-नाद साज
बना वशीभूत विमूढ़-सर्प को।
सु-कौशलों से वर-अस्त्र-शस्त्र से।
उसे वधा नन्द नृपाल नन्द ने ॥54॥
विचित्र है शक्ति मुकुन्द देव में।
प्रभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
सदैव होता जिससे सजीव है।
नितान्त-निर्जीव बना मनुष्य भी ॥55॥
अचेत हो भूर पर जो गिरे रहे।
उन्हीं सबों ने विविधा-सहायता।
अशंक की थी बलभद्र-बंधु की।
विनाश होता अवलोक व्याल का ॥56॥
कई महीने तक थी पड़ी रही।
विशाल-काया उसकी वनान्त में।
विलोप पीछे यह चिह्न भी हुआ।
अघोपनामी उस क्रूर-सर्प का ॥57॥
बड़ा-बली का एक विशाल-अश्व था।
वनस्थली में अपमृत्यु-मूर्ति सा।
दुरन्तता से उसकी, निपीड़िता।
नितान्त होती पशु-मण्डली रही ॥58॥
प्रमत्त हो, था जब अश्व दौड़ता।
प्रचंडता-साथ प्रभूत-वेग से।
अरण्य-भू थी तब भूरि-काँपती।
अतीव होती ध्वनिता दिशा रही॥59॥
विनष्ट होते शतशः शशादि थे।
सु-पुष्ट-मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ठ-अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का ॥60॥
बड़ा-बली उन्नत-काय-बैल भी।
विलोक होता उसको विपन्न सा।
नितान्त-उत्पीड़न-दंशनादि
न त्राण पाता सुरभी-समूह था॥61॥
पराक्रमी वीर बलिष्ठ-गोप भी।
न सामना थे करते तुरंग का।
वरंच वे थे बने विमूढ़ से।
उसे कहीं देख भयाभिभूत हो ॥62॥
समुच्च-शाखा पर वृक्ष की किसी।
तुरन्त जाते चढ़ थे स-व्यग्रता।
सुने कठोरा-ध्वनि अश्व-टाप की।
समस्त-आभीर अतीव-भीत हो ॥63॥
मनुष्य आ सम्मुख स्वीय-प्राण को।
बचा नहीं था सकता प्रयत्न से।
दुरन्तता थी उसकी भयावनी।
विमूढ़कारी रव था तरंग का ॥64॥
मुकुन्द ने एक विशाल-दण्ड ले।
स-दर्प घेरा यक बार बाजि को।
अनन्तराघात अजस्त्र से उसे।
प्रदान की वांछित प्राण-हीनता ॥65॥
विलोक ऐसी बलवीर-वीरता।
अशंकता साहस कार्य-दक्षता।
समस्त-आभीर विमुग्ध हो गये।
चमत्कृता हो जन-मण्डली उठी॥66॥
वनस्थली कण्टक रूप अन्य भी।
कई बड़े-क्रर बलिष्ठ-जन्तु थे।
हटा उन्हें भी जिन कौशलादि से।
किया उन्होंने उसको अकण्टका ॥67॥
बड़ा-बली-बालिश व्योम नाम का।
वनस्थली में पशु-पाल एक था।
अपार होता उसको विनोद था।
बना महा-पीड़ित प्राणि-पंज को ॥68॥
प्रवंचना से उसको प्रवंचिता।
विशेष होती ब्रज की वसुंधरा।
अनेक-उत्पात पवित्र-भूमि में।
सदा मचाता यह दुष्ट-व्यक्ति था॥69॥
कभी चुराता वृष-वत्स-धेनु था।
कभी उन्हें था जल-बीच बोरता।
प्रहार-द्वारा गुरु-यष्टि के कभी।
उन्हें बनाता वह अंग-हीन था ॥70॥
दुरात्मता थी उसकी भयंकरी।
न खेद होता उसको कदापि था।
निरही गो-वत्स-समूह को जला।
वृथा लगा पावक कुंज-पुंज में ॥71॥
अबोध-सीधे बहु-गोप-बाल को।
अनेक देता वन-मध्य कष्ट था।
कभी कभी था वह डालता उन्हें।
डरावनी मेरु-गुहा समूह में ॥72॥
विदार देता शिर था प्रहार से।
कँपा कलेजा दृग फोड़ डालता।
कभी दिखा दानव सी दुरन्तता।लागत
निकाल लेता बहु-मूल्य-प्राण था ॥73॥
प्रयत्न नाना ब्रज-देव ने किये।
सुधार चेष्टा हित-दृष्टि साथ की।
परंतु छूटी उसकी न दुष्टता।
न दूर कोई कु-प्रवृत्ति हो सकी ॥74॥
विशुद्ध होती, सु-प्रयत्न से नहीं।
प्रभूत-शिक्षा उपदेश आदि से।
प्रभाव-द्वारा बहु-पूर्व पाप के।
मनुष्य-आत्मा स-विशेष दूषिता ॥75॥
निपीड़िता देख स्व-जन्मभूमि को।।
अतीव उत्पीड़न से खलेन्द्र के।
समीप आता लख एकदा उसे।
स-क्रोध बोले बलभद्र-बंधु यों ॥76॥
सुधार-चेष्टा बहु-व्यर्थ हो गई।
न त्याग तू ने कु-प्रवृत्ति को किया।
अतः यही है अब युक्ति उत्तमा।
तुझे वधूं मैं भव-श्रेय-दृष्टि से॥77॥
अवश्य हिंसा अति-निंद्य-कर्म है।
निगम तथापि कर्त्तव्य-प्रधान है यही।
न सद्म हो पूरित सर्प आदि से।
वसुंधरा में पनपें न पातकी ।।78 ।।
मनुष्य क्या एक पिपीलिका कभी।
न वध्य है जो न अश्रेय हेतु हो।
न पाप है किं च पुनीत-कार्य है।
पिशाच-कर्मी-नर की वध-क्रिया।।79 ।।
समाज-उत्पीड़क धर्म-विप्लवी ।
स्व-जाति का शत्रु दुरन्त पातकी।
मनुष्य-द्रोही भव-प्राणी-पुंज का।
न है क्षमा-योग्य वरंच वध्य है।।80॥
क्षमा नहीं है खल के लिए भली।
समाज-उत्सादक दण्ड योग्य है।
कु-कर्म-कारी नर उबारना।
सु-कर्मियों को करता विपन्न है ॥81॥
अतः अरे पामर सावधान हो।
समीप तेरे अब काल आ गया।
जन पा सकेगा खल आज त्राण तू।
गणना सम्हाल तेरा वध वांछनीय है ॥82॥
स-दर्प बातें सुन श्याम-मूर्ति की
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी।
उठा स्वीकाया-गुरु-दीर्घ यष्टि को।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को ॥83॥
अपूर्व-आस्फालन साथ श्याम ने।
अतीव-लांबी वह यष्टि छीन ली।
पुनः उसी के प्रबल-प्रहार से।
निपात उत्पात-निकेत का किया॥84॥
गुणावली है गरिमा विभूषिता।
गरीयसी गौरव-मूर्ति-कीर्ति है।
उसे सदा संयत-भाव साथ गा।
अतीव होती चित-बीच शान्ति है॥85॥
वनस्थली में पुर मध्य ग्राम में।
अनेक ऐसे थल हैं सुहावने।
अपूर्व-लीला व्रत-देव ने जहाँ।
स-मोद की है मन-मुग्धकारिणी ॥86॥
उन्हीं थलों को जनता शनैः शनैः।
बना रही है ब्रज-सिद्ध पीठ सा।
उन्हीं थलों की रज श्याम-मूर्ति के।
वियोग में हैं बहु-बोध-दायिनी ॥87॥
अपार होगा उपकार लाडिले ।
यहाँ पधारें यक बार और जो।
प्रफुल्ल होगी ब्रज-गोप-मण्डली।
विलोक आँखों वदनारविन्द को ॥88॥
मन्दाक्रान्ता छंद
श्रीदामा जो अति-प्रिय सखा श्यामली मूर्ति का था।
मेधावी जो सकल-ब्रज के बाबकों में बड़ा था।
पूरा ज्योंही कथन उसका हो गया मुग्ध सा हो।
बोला त्योंही मधुर-स्वर से दूसरा एक ग्वाला॥89॥
मालिनी छंद
विपुल-ललित-लीला-धाम आमोद-प्याले।
सकल-कलित-क्रीड़ा कौशलों में निराले।
अनुपम-वनमाला को गले बीच डाले।
कब उमग मिलेंगे लोक-लावण्य-वाले ॥90॥
कब कुसुमित-कुंजों में बजेगी बता दो।
वह मधु-मय-प्यारी-बाँसुरी लाडिले की।
कब कल-यमुना के कूल वृन्दाटवी में।
चित-पुलकितकारी चारु आलाप होगा ॥91॥
कब प्रिय विहरेंगे आ पुनः काननों में।
कब वह फिर खेलेंगे चुने-खेल-नाना।
विविध-रस-निमग्ना भाव सौंदर्य-सिक्ता।
कब वर-मुख-मुद्रा लोचनों में लसेगी ॥92 ॥
यदि ब्रज-धन छोटा खेल भी खेलते थे।
क्षण भर न गँवाते चित्त-एकाग्रता थे।
बहु चकित सदा थीं बालकों को बनाती।
अनुमत-मृदुता में छिप्रता की कलायें ॥93॥
चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं।
वर सब-विषयों में जो उन्हें हैं बनाती।
अति-कठिन-कला में केलि-क्रीड़ादि में भी।
वह मुकुट सबों थे मनोनीत होते ॥94॥
सबल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिले को।
निज छल बल-द्वारा था नहीं जीत पाता।
बहु अवसर ऐसे आँख से हैं विलोके।
जब कुँवर अकेले जीतते थे शतों को ॥95॥
तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा।
वह निज-सुहृदों से थे स्वयं हार खाते।
वह कतिपय जीते-खेल को थे जिताते।
सफलित करने को बालकों की उमंगें ॥96॥
वह अतिशय-भूखा देख के बालकों को।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी-शीघ्रता से।
निज-कमल-करों से तोड़ मीठे-फलों को।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हें यत्न-द्वारा ॥97॥
सरस-फल अनूठे-व्यंजनों को यशोदा।
प्रति-दिन वन में थीं भेजती सेवकों से।
कह कह मृदु-बातें प्यार से पास बैठे।
ब्रज-रमण खिलाते थे उन्हें गोपजों को ॥98॥
नव किशलय किम्वा पीन-प्यारे-दलों से।
वह ललित-खिलौने थे अनेकों बनाते।
वितरण कर पीछे भूरि-सम्मान द्वारा।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को ॥99॥
अभिनव-कलिका से पुष्प से पंकजों से ।
रच अनुपम-माला भव्य-आभूषणों को।
वह निज-कर से थे बालकों को पिन्हाते।
बहु-सुखित बनाते यों सखा-वृन्द को थे॥100॥
वह विविध-कथायें देवता-दानवों की।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से।
वह हँस-हँस बातें थे अनूठी सुनाते।
सुखकर-तरु-छाया में समासीन हो के ॥101॥
ब्रज-धन जब क्रीड़ा-काल में मत्त होते।
तब अभि मुख होती मूर्ति तल्लीनता की।
बहु थल लगती थीं बोलने कोकिलायें।
यदि वह पिक का सा कुंज में कूकते थे॥102॥
यदि वह पपीहा की शारिका या शुकी की।
श्रुति-सुखकर-बोली प्यार से बोलते थे।
कलरव करते तो भूरि-जातीय-पक्षी।
ढिग-तरु पर आ के मत्त हो बैठते थे ॥103॥
यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता।
यदि कलित कलापी-तुल्य वे नाचते थे।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनों को ॥104॥
यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी।
मृग-गण समता की तो न थे ताब लाते।
यदि वह वन में थे गर्जते केशरी सा।
थर-थर कँपता तो मत्त-मातङ्ग भी था॥105॥
नवल-फल-दलों औ पुष्प-संभार-द्वारा।
विरचित कर के वे राजसी-वस्तुओं को।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो।
वह छवि बन आती थी विलोक दृगों से ॥106॥
यह अवगत होता है वहाँ-बंधु मेरे।
कल कनक बनाये दिव्य-आभूषणों को।
स-मुकुट मन-हारी सर्वदा पैन्हते हैं।
सु-जटित जिनमें हैं रत्न आलोकशाली ॥107॥
शिर पर उनके है राजता छत्र-न्यारा।
सु-चमर दुलते हैं, पाट हैं रत्न शोभी।
परिकर-शतश: हैं वस्र औ वेशवाले।
वरचित नभ चुम्बी सद्म हैं स्वर्ण द्वारा ॥108॥
इन सब विभवों की न्यूनता थी न याँ भी।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे।
यह हरित-तृणों से शोभिता भूमि रम्या।
प्रिय-तर उनको थी स्वर्ण-पर्यङ्क से भी ॥109॥
यह अनुपम-नीला-व्योम प्यारा उन्हें था।
अतुलित छविवाले चारु-चन्द्रातपों से।
यह कलित निकुंजें थीं उन्हें भूरि प्यारी।
मयहृदय-विमोही-दिव्य-प्रासाद से भी ॥110॥
समधिक मणि-मोती आदि से चाहते थे।
विकसित-कुसुमों को मोहिनी मूर्ति मेरे।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण-आभूषणों से।
वह सुललित पुष्पों के अलंकार ही को ॥111॥
अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का।
अहह वह नहीं तो क्यों सभी भूल जाते।
यह नित-नव कुंजें भूमि शोभा-निधाना।
प्रति-दिवस उन्हें तो क्यों नहीं याद आतीं ॥112॥
सुन कर वह प्रायः गोप के बालकों से।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट-गाथा।
वन तज उन गेहों मध्य थे शीघ्र जाते।
नियमन करने को सर्ग-संभूत-वाधा ॥113॥
यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते।
रुज-ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते।
यदि कलह वितण्डावाद की वृद्धि होती।
वह मृदु-वचनों से तो उसे भी भगाते ॥114॥
'बहु नयन, दुखी हो वारि-धारा बहा के।'
पथ प्रियवर का ही आज भी देखते हैं
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होंने नहीं ली।
वह प्रथित दया का धाम भूल उन्हें क्यों ॥115॥
पद-रज ब्रज-भू है चाहती उत्सुका हो।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपों का।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनों की।
सरसिज मुख-शोभा देखने को पिपासा ॥116॥
प्रतपित-रवि तीखी-रश्मियों से शिखी हो।
प्रतिपल चित से ज्यों मेघ को चाहता है।
ब्रज-जन बहु तापों से महा तप्त हो के।
बन घन-तन-स्नेही हैं समुत्कण्ठ त्योंही॥117॥
नव-जल-धर-धारा ज्यों समुत्सन्न होते।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती।
हितकर दुख-दग्धों का उसी भाँति होगा।
नव-जलद शरीरी श्याम का सद्म आना॥118॥
द्रुतविलम्बित छंद
कथन यों करते ब्रज की व्यथा।
गगन-मण्डल लोहित हो गया।
इस लिए वुध-ऊधव को लिए।
सकल ग्वाल गये निज-गेह को ॥119॥
चतुर्दश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।
छोटे-छोटे सु-द्रुम उसके मुग्ध-कारी बड़े थे।
ऐसे न्यारे प्रति-विटप के अंक में शोभिता थी।
लीला-शीला-ललित लतिका पुष्पाभारावनम्रा ॥1॥
बैठे ऊधो मुदित-चित से एकदा थे इसी में।
लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।
धीरे-धीरे तपन-किरणें फैलती थीं दिशा में।
न्यारी-क्रीड़ा उमंग करती वायु थी पल्लवों से ॥2॥
बालाओं का यक दल इसी काल आता दिखाया।
आशाओं को ध्वनित करके मंजु-मंजीरकों से।
देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग में थीं।
भोली-भाली कपितय बड़ी-सुन्दरी-बालिकायें ।।3 ॥
नीला-प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा।
बोली हो के विरस-वदना अन्य-गोपांगना से।
कालिन्दी को पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।
लीला-मग्ना जलद-तन की मूर्ति है याद आती ।।4।।
श्यामा-बातें श्रवण कर के बालिका एक रोई।
रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।
ज्यों ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारि-धारा।
त्यों त्यों आँसू अधिकतर थे लोचनों मध्य आते ॥5॥
ऐसा रोता निरख उसको एक मर्मज्ञ बोली।
लियों रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी।
कैसे तेरे युगल-दृग ए ज्योति-शाली रहेंगे।
तू देखेगी वह छविमयी-श्यामली-मूर्ति कैसे ॥6॥
जो यों ही तू बहु-व्यथित हो दग्ध होती रहेगी।
का तेरे सूखे-कृशित-तन में प्राण कैसे रहेंगे।
शिा जी से प्यारा-मुदित-मुखड़ा जो न तू देख लेगी।
कि तो वे होंगे सुखित न कभी स्वर्ग में भी सिधा के ॥7॥
मिर्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली।
तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता-बालिका को।
जो बालायें विरह-दव में दग्धिता हो रही हैं।
आँखों का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है॥8॥
वाष्प-द्वारा बहु-विध-दुखों वर्द्धिता-वेदना के।
बालाओं का हृदय-नभ जो है समाच्छन्न होता।
तो निर्द्धूता तनिक उसकी म्लानता है न होती।
पर्जन्यों सा न यदि बरसें वारि हो, वे दृगों से॥9॥
प्यारी-बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी।
न्यारा-प्यारा-वदन जिसने था कभी देख पाया।
वे होती हैं बहु-व्यथित जो श्याम हैं याद आते।
क्यों रोवेगी न वह जिसके जीवनाधार वे हैं॥10॥
प्यारे-भ्राता-सुत-स्वजन सा श्याम को चाहती हैं।
बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो।
प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है।
हा! क्यों बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी ॥11॥
ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई।
त्यों सारी ही करुण-स्वर से रो उठीं कम्पिता हो।
ऐसा न्यारा-विरह उनका देख उन्माद-कारी।
धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये ॥12॥
ज्यों पाते ही सम-तल धरा वारि-उन्मुक्त-धरा।
पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विवता को।
त्योंही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी।
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का ॥13॥
प्यारी-बातें स- विध कह के मान-सम्मान-सिक्ता।
ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया।
पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये।
क्या वे भूले कमल-पग की प्रेमिका गोपियों को॥14॥
ऊधो बोले समय-गति है गूढ़-अज्ञात बेंडी।
क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता।
आवेंगे या न अब ब्रज में आ सकेंगे बिहारी।
हा! मीमांसा इस दुख-पगे प्रश्न की क्यों करूँ मैं॥15॥
प्यारा वृन्दा-विपिन उनको आज भी-सा है।
वे भेले हैं न प्रिय-जननी और न प्यारे-पिता को।
वैसी ही हैं सुरति करते श्याम गोपांगना को।
वैसी ही है प्रणय-प्रतिमा-बालिका याद आती॥16॥
प्यारी-बातें कथन करके बालिका-बालकों की।
माता की और प्रिय की गोप-गोपांगना की।
मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते।
उच्छ्वासों से व्यथित-उर के नेत्र में वारि लाते॥17॥
सांय- प्रात: प्रति-पल-घटी है, उन्हें याद आती।
सोते में भी ब्रज-अवनि का स्पप्न वे देखते हैं।
कुंजों में ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है।
देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी-मूर्ति का है॥18॥
हो के भी वे ब्रज-अवनि के चित्त से यों सनेही।
क्यों आते हैं न प्रति-जन का प्रश्न होता यही है।
कोई यों है कथन करता तीन ही कोस आना।
क्यों है मेरे कुँवर-वर को कोटिश: कोस होता॥19॥
दोनों आँखें सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हों।
जो वारों को कुँवर-पथ को देखते हैं बिताते
वे हो-हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी।
तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य ही है ॥20॥
ऐ संतप्ता-विरह-विधुरा गोपियों किंतु कोई।
थोड़ा सा भी कुँवर-वर के मर्म का है न ज्ञाता।
वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियों के हितैषी।
प्राणों से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा ॥21॥
स्वार्थों को औ विपुल-सुख को तुच्छ देते बना हैं।
जो आ जाता जगत-हित है सामने लोचनों के।
हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त।
लिप्साओं से भरित उर की सैकड़ों लालसायें ॥22॥
ऐसे-ऐसे जगत-हित के कार्य हैं चक्षु आगे।
हैं सारे ही विषम जिनके सामने श्याम भूले।
सच्चे जी से परम-व्रत के व्रती हो चुके हैं।
निष्कामी से अपर-कृति के कूल-वर्ती अतः हैं ॥23॥
मीमांसा हैं प्रथम करते स्वीय कर्त्तव्य ही की।
पीछे वे हैं निरत उसमें धीरता साथ होते।
हो के वांछा-विवश अथवा लिप्त हो वासना से।
प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य-कर्त्तव्य से हैं ।।24 ॥
घूमूं जा के कुसुम-वन में वायु-आनन्द मैं लूँ।
देखू प्यारी सुमन-लतिका चित्त यों चाहता है।
रोता कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे।
तो जावेंगे न उपवन में शान्ति देंगे उसे वे॥25॥
जो सेवा हों कुँवर करते स्वीय-माता-पिता की।
या वे होवें स्व-गुरुजन को बैठे सम्मान देते।
ऐसे बेले यदि सुन पड़े आर्त-वाणी उन्हें तो।
वे देवेंगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ों की॥26॥
जो वे बैठे सदन करते कार्य होवें अनेकों।
औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के
गेहों को है दहन करती वर्धिता-ज्वाल-माला।
तो दौड़ेंगे तुरत तज वे कार्य प्यारे-सहस्रों ॥27॥
कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व-जातीय-प्राणी।
दुष्टात्मा हो, मनुज-कुल का शत्रु हो, पातकी हो।
तो वे सारी हृदय-तल की भूल के वेदनायें।
शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे॥28॥
हाथों में जो प्रिय-कुँवर के न्यस्त हो कार्य कोई।
पीड़ाकारी सकल-कुल का जाति का बांधवों का।
तो हो के भी दुखित उसको वे सुखी हो करेंगे।
निजो देखेंगे निहित उसमें लोक का लाभ कोई ॥29॥
अच्छे-अच्छे बहु-फलद औ सर्व-लोकोपकारी।
कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनों के।
पूरे-पूरे निरत उनमें सर्वदा हैं बिहारी।
जी से प्यारी ब्रज-अवनि में हैं इसी से न आते ॥30॥
हो जावेंगी बहु-दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा।
जो देवेंगी सु-फल मति के साथ सम्पन्न हो के।
है ऐसी नाना-परम-जटिला राज की नीतियाँ भी।
वाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति में हो रही हैं ॥31॥
तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण-प्यारे।
आवेंगे ही न अब ब्रज में औ उसे भूल देंगे।
जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं।
निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे॥32॥
हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है।
होते होते जगत कितने काम ही हैं न होते।
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये।
तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियों! खो न देना ॥33॥
जो संतप्ता-सलिल-नयना-बालिकायें कई हैं।
ऐ प्राचीना-तरल-हृदया-गोपियों स्नेह-द्वारा।
शिक्षा देना समुचित इन्हें कार्य होगा तुमारा।
होने पावें न वह जिससे मोह-माया-निमग्ना ॥34॥
जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक-सेवा किसे हैं।
जो जानेगा न वह, भव के श्रेय का मर्म क्या है।
जो सोचेगा न गुरु-गरिमा लोक के प्रेमिकों की।
कर्तव्यों में कुँवर-वर को तो बड़ा-क्लेश होगा॥35॥
प्रायः होता हृदय-तल है एक ही मानवों का।
जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।
जो पीड़ायें-प्रबल बन के एक को हैं सताती।
तो होने से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है ॥36॥
जो ऐसी ही रुदन करती बलिकायें रहेंगी।
पीड़ायें भी विविध उनको जो इसी भाँति होंगी।
यों ही रो-रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।
तो आवेगा ब्रज-अधिप के चित्त को चैन कैसे ॥37॥
जो होवेगा न चित उनका शांत स्वच्छन्दचारी।
तो वे कैसे जगत-हित को चारुता से करेंगे।
सत्कार्यों में परम-प्रिय के अल्प भी विघ्न-वाधा।
कैसे होगी उचित, चित में गोपियों, सोच देखो ॥38॥
धीरे-धीरे भ्रमित-मन को योग-द्वारा सम्हालो।
स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो।
भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मूर्तियों को।
यों होवेगा दुख शमन औ शान्ति न्यारी मिलेगी ॥39॥
ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी।
खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व-गोपी-जनों ने।
पीछे बोलीं अति-चकित हो म्लान हो उन्मना हो।
कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझें ॥40॥
हो जाते हैं भ्रमित जिसमें भूरि-ज्ञानी मनीषी।
कैसे होगा सुगम-पथ सो मंद-धी नारियों को।
छोटे-छोटे सरित-सर में डूबती जो तरी है।
सो भू-व्यापी सलिल-निधि के मध्य कैसे तिरेगी॥41॥
वे त्यागेंगी सकल-सुख औ स्वार्थ-सारा तजेंगी।
औ रक्खेंगी निज-हृदय में वासना भी न कोई।
ज्ञानी-ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो।
कैसे त्यागें हृदय-धन को प्रेमिका-गोपिकायें ॥42॥
भोगों को औ भुवि-विभव को लोक की लालसा को।
माता-भ्राता स्वप्रिय-जन को बंधु को बांधवों को।
वे भूलेंगी स्व-तन-मन को स्वर्ग की सम्पदा को।
हा! भूलेंगी जलद-तन की श्यामली मूर्ति कैसे॥43॥
जो प्यारा है अखिल-ब्रज के प्राणियों का बड़ा ही।
रोमों की भी अवलि जिसके रंग ही में रँगी है।
कोई देही बन अवनि में भूल कैसे उसे दे।
जो प्राणों में हृदय-तल में लोचनों में रमा हो।44॥
भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो।
देखी जा के सु-छवि जिसकी लोचनों में रमी हो।
कैसे भूले कुँवर जिनमें चित्त ही जा बसा है।
प्यारी-शोभा निरख जिसकी आप आँखें रमी हैं ॥45॥
कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दें गोपिकायें।
प्यारा-न्यारा निज-हृदय तो वे उसे काढ़ देंगी।
हो पावेगा न यह उनसे देह में प्राण होते।
उद्योगी हो हृदय-तल से श्याम को काढ़ देवें॥46॥
मीठे-मीठे वचन जिसके नित्य ही मोहते थे।
हा! कानों से श्रवण करती हूँ उसी की कहानी।
भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती।
जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनों में सदा थे॥47॥
मैं रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा।
या आँखों से पग-युगल की माधुरी देखती थी।
या है ऐसा कु-दिन इतना हो गया भाग्य खोटा।
मैं प्यारे के चरण-तल की धूलि भी हूँ न पाती ॥48॥
ऐसी कुंजें ब्रज-अवनि में हैं अनेकों जहाँ जा।
आ जाती है दृग-युगल के सामने मूर्ति-न्यारी।
प्यारी-लीला उमग जसुदा-लाल ने है जहाँ की।
ऐसी ठौरों ललक दृग हैं आज भी लग्न होते ॥49॥
फूली डालें सु-कुसुममयी नीप की देख आँखों।
आ जाती है हृदय-धन की मोहनी मूर्ति आगे।
कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा ।
हो जाती है उदय उर में माधुरी अम्बुदों सी ॥50॥
सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हों कुंज-पुंजें।
फूटें आँखें, हृदय-तल भी ध्वंस हो गोपियों का।
सारा वृन्दा-विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे।
तो भूलेंगे प्रथित-गुण के पुण्य-पाथोधि माधो ॥51॥
आसीना जो मलिन-वदना बालिकायें कई हैं।
ऐसी ही हैं ब्रज-अवनि में बालिकायें अनेकों।
जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो।
रोना-धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना ॥52॥
पूजायें त्यों विविध-व्रत औ सैकड़ों ही क्रियायें।
सालों की हैं परम-श्रम से भक्ति-द्वारा उन्होंने।
ब्याही जाऊँ कुँवर-वर से एक वांछा यही थी।
सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यों न होंगी॥53॥
जो वे जी सो कमल-दृग की प्रेमिका हो चुकी हैं।
भोला-भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी हैं।
जो आँखों में सु-छवि बसती मोहिनी-मूर्ति की है।
प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यों वे धरा-मध्य होंगी॥54॥
नीला-प्यारा-जलद जिनके लोचनों में रमा है।
कैसे होंगी अनुरत कभी धूम के पुंज में वे।
जो आसक्ता स्व-प्रियवर में वस्तुतः हो चुकी हैं।
वे दवेंगी ह्दय-तल में अन्य को स्थान कैसे॥55॥
सोचो ऊधो यदि रह गईं बालिकायें कुमारी।
कैसी होगी ब्रज-अवनि के प्राणियों को व्यथायें।
वे होवेंगी दुखित कितनी और कैसे विपन्ना।
हो जावेंगे दिवस उनके कंटकाकीर्ण कैसे!॥56॥
सर्वांगों में लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।
जो है घोरा परम-प्रवला औ महोछ्वास-शीला।
तोड़े देती प्रबल-तरि जो ज्ञान औ बुद्धि की है।
घातों से है दलित जिसके धैर्य का शैल होता ।।57॥
ऐसे ओखे-उदक-निधि में हैं पड़ी बालिकायें।
झोंके से है पवन बहती काल की वामता की।
आवर्तों में तरि-पतित है नौ-धनी है न कोई।
हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे हैं ॥58॥
शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।
वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।
हा! सो शोभा-सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।
सारे प्यारे कुसुम-कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते ॥59॥
जो मर्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।
ड्के देती परम-तप से प्राप्त सं-सिद्ध को है।
ए बालायें परम-सरला सर्वथा अप्रगल्भा।
कैसे ऐसी मदन-दव की तीव्र-ज्वाला सहेंगी।60॥
चक्री होते चकित जिससे काँपते हैं पिनाकी।
जो वज्री के हृदय-तल को क्षुब्ध देता बना है।
जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियों को।
कैसे ऐसे रति-रमण के वाण से वे बचेंगी ॥61॥
जो हो के भी परम-मृदु है वज्र का काम देता।
जो हो के भी कुसुम-करता शेल की सी क्रिया है।
जो हो के भी मधुर बनता है महा-दग्ध-कारी।
कैसे ऐसे मदन-शर से रक्षिता वे रहेंगी॥62॥
प्रत्यंगों में प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।
जो हो जाता अति विषम है काल-कूटादिकों सा।
मद्यों से भी अधिक जिसमें शक्ति उन्मादिनी है।
कैसे ऐसे मदन-मद से वे न उन्मत्त होंगी॥63॥
कैसे कोई अहह उनको देख आँखों सकेगा।
वे होवेंगी विकटतम औ घोर रोमांच-कारी।
पीड़ायें जो 'मदन' हिम के पात के तुल्य देगा।
स्नेहोत्फुल्ला-विकच-वदना बालिकांभोजिनी को ॥64॥
मेरी बातें श्रवण करके आप जो पूछ बैठे।
कैसे प्यारे-कुँवर अकेले ब्याहते सैकड़ों को।
तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च-ज्ञानी।
क्या ज्ञाता है न वुध-विदिता प्रेम की अंधता का ॥65 ॥
आसक्ता हैं विमल-विधु की तारिकायें अनेकों।
हैं लाखों ही कमल-कलियाँ भानु की प्रेमिकायें। ।
जो बालायें विपुल हरि में रक्त हैं चित्र क्या है?
प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है॥66॥
जो धाता ने अवनि-तल में रूप की सृष्टि की है।
तो क्यों ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।
माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।
क्यों मोहेंगी न बहु-सुमना-सुन्दरी-बालिकायें ॥67॥
जो मोहेंगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।
वे होवेंगी न यदि सफला क्यों न उद्भ्रान्त होंगी।
ऊधो पूरी जटिल इनकी हो गई है समस्या।
यों तो सारी ब्रज-अवनि ही है महा शोक-मग्ना ॥68॥
जो वे आते न ब्रज बरसों, टूट जाती न आशा।
चोटें खाता न उर उतना जी न यों ऊब जाता।
जो वे जा के न मधुपुर में वृष्णि-वंशी कहाते।
प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के॥69॥
ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले बड़े हैं।
ऐसा न्यारा-रतन जिनको आज यों हाथ आया।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के हैं बड़े ही अभागे।
जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं।70॥
भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग की रीति जाने।
कैसे बूझें अ-वुध अबला ज्ञान-विज्ञान बातें।
देते क्यों हो कथन कर के बात ऐसी व्यथायें।
देखू प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे बता दो ॥71॥
न्यारी-क्रीड़ा ब्रज-अवनि में आ पुन: वे करेंगे।
आँखें होंगी सुखित फिर भी गोप-गोपांगना की।
वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज में काननों में।
आवेंगे वे दिवस फिर भी जो अनूठे बड़े हैं ॥72॥
श्रेय:कारी सकल ब्रज की है यही एक आशा।
थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है।
ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा।
क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी ॥73॥
देखो सोचो दुखमय-दशा श्याम-माता-पिता की।
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको।
गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो।
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो ॥74॥
वसन्ततिलका छंद
बोली स-शोक अपरा यक गोपिका यों।
ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ।
जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ।
लौटल श्याम-घन को ब्रज-मध्य लाओ॥75॥
अत्यन्त-लोक-प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी
जैसा तुम्हें चरित मैं अब हूँ सुनाती।
ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा।
लावण्य-धाम फिर दिव्य-कला दिखावें ॥76॥
भू में रमी शरद की कमनीयता थी।
नीला अनन्त-नभ निर्मल हो गया था।
थी छा गई ककुभ में अमिता सिताभा।
उत्फुल्ल सी प्रकृति थी प्रतिभात होती ॥77॥
होता सतोगुण प्रसार दिगन्त में है।
है विश्व-मध्य सितता अभिवृद्धि पाती।
सारे-स-नेत्र जन को यह थे बताते।
कान्तार-काश, विकसे सित-पुष्प-द्वारा ॥78॥
शोभा-निकेत अति-उज्वल कान्तिशाली।
था वारि-विन्दु जिसका नव मौक्तिकों सा।
स्वच्छोदका विपुल-मंजुल-वीचि-शीला।
थी मन्द-मन्द बहती सरितातिभव्या ॥79॥
उच्छ्वास था न अब कूल विलोनकारी।
था वेग भी न अति-उत्कट कर्ण-भेदी।
आवत-जाल अब था न धरा-विलोपी।
धीरा, प्रशांत, विमलाम्बुवती, नदी थी॥80॥
था मेघ शून्य नभ उज्वल-कान्तिवाला।
मालिन्य-हीन मुदिता नव-दिग्वधू थी।
थी भव्य-भूमि गत-कर्दम स्वच्छ रम्या।
सर्वत्र धौत जल निर्मलता लसी थी॥81॥
कान्तार में सरित-तीर सुगह्वरों में।
थे मंद-मंद बहते जल स्वच्छ-सोते।
होती अजस्र उनमें ध्वनि थी अनूठी।
वे थे कृती शरद की कल-कीर्ति गाते ॥82॥
नाना नवागत-विहंग-वरूथ-द्वारा।
वापी तड़ाग सर शोभित हो रहे थे।
फूले सरोज मिष हर्षित लोचनों से।
वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे ॥83॥
नाना-सरोवर खिले-नव-पंकजों को।
ले अंक में विलसते मन-मोहते थे।
मानों पसार अपने शतशः करों को।
वे माँगते शरद से सु-विभूतियाँ थे॥84॥
प्यारे सु-चित्रित सितासित रंगवाले।
थे दीखते चपल-खंजन प्रांतरों में।
बैठी मनोरम सरों पर सोहती थी।
आई स-मोद ब्रज-मध्य मराल-माला ॥85॥
प्रायः निरम्बु कर पावस-नीरदों को।
पानी सुखा प्रचुर-प्रांतर औ पथों का।
न्यारे-असीम-नभ में मुदिता मही में।
व्यापी नवोदित-अगस्त नई-विभा थी॥86॥
था क्वार-मास निशि थी अति-रम्य-राका।
पूरी कला-सहित शोभित चन्द्रमा था।
ज्योतिर्मयी विमलभूत दिशा बना के।
सौंदर्य साथ लसती क्षिति में सिता थी॥87॥
शोभा-मयी शरद की ऋतु पा दिशा में।
निर्मेघ-व्योम-तल में सु-वसुंधरा में।
होती सु-संगति अतीव मनोहरा थी।
न्यारी कलाकर-कला नव स्वच्छता की॥88॥
प्यारी-प्रभा रजनी-रंजन की नगों को।
जो थी असंख्य नव-हीरक से लसाती।
ता वीचि में तपन की प्रिय-कन्यका के।
थी चारु-पूर्ण मणि मौक्तिक के मिलाती ॥89॥
थे स्नात से सकल-पादप चन्द्रिका से।
प्रत्येक-पल्लव प्रभा-मय दीखता था।
फैली लता विकच-वेलि प्रफुल्ल-शाखा।
डूबी विचित्र-तर निर्मल-ज्योति में थी ॥90॥
जो मेदिनी रजत-पत्र-मयी हुई थी।
किम्वा पयोधि-पय से यदि प्लाविता थी।
तो पत्र-पत्र पर पादप-वेलियों के।
पूरी हुई प्रथित-पारद-प्रक्रिया थी॥91॥
था मंद-मंद हँसता विधु व्योम-शोभी।
होती प्रवाहित धरातल में सुधा थी।
जो पा प्रवेश दृग में प्रिय अंशु-द्वारा।
थी मत्त-प्राय करती मन-मानवों का।।92॥
अत्युज्वला पहन तारक-मुक्त-माला।
दिव्यांबरा बन अलौकिक-कौमुदी से।
शोभा-भरी परम-मुग्धकरी हुई थी।
राका कलाकर-मुखी रजनी-पुरंध्री ॥93॥
पूरी समुज्वल हुई सित-यामिनी थी।
होता प्रतीत रजनी-पति भानु सा था।
पीती कभी परम-मुग्ध बनी सुधा थी।
होती कभी चकित थी चतुरा-चकोरी ॥94॥
ले पुष्प-सौरभ तथा पय-सीकरों को।
थी मन्द-मन्द बहती पवनाति प्यारी।
जो थी मनोरम अतीव-प्रफुल्ल-कारी।
हो सिक्त सुंदर सुधाकर की सुधा से॥95॥
चन्द्रोज्वला रजत-पत्र-वती मनोज्ञा।
शान्ता नितान्त-सरसा सु-मयूख सिक्ता।
शुभ्रांगिनी-सु-पवना सुजला सु-कूला।
सत्पुष्पसौरभवती वन-मेदिनी थी॥96॥
ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा में।
ऐसे मनोरम-अलंकृत-काल को पा।
वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।
आनन्द-कन्द ब्रज-गोप-गणाग्रणी की ॥97॥
भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध-कारी।
आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त-व्यापी।
पीछे पड़ा श्रवण में बहु-भावकों के
पीयूष के प्रमुद-वर्द्धक-विन्दुओं सा ॥98॥
पूरी विमोहित हुईं यदि गोपिकायें।
तो गोप-वृन्द अति-मुग्ध हुए स्वरों से।
फैली विनोद-लहरें ब्रज-मेदिनी में।
आनन्द-अंकुर उगा उर में जनों के ॥99॥
वंशी-निनाद सुन त्याग निकेतनों को।
दौड़ी अपार जनताति उमंगिता हो।
गोपी-समेत बहु गोप तथांगनायें।
आईं विहार-रुचि से वन-मेदिनी में ॥100॥
उत्साहिता विलसिता बहु-मुग्ध-भूता।
आई विलोक जनता अनुराग-मग्ना।
की श्याम ने रुचिर-क्रीड़न की व्यवस्था।
कान्तार में पुलिन पै तपनांगजा के ॥101॥
हो हो विभक्त बहुशः दल में सबों ने।
प्रारंभ की विपिन में कमनीय-क्रीड़ा।
बाजे बजां अति-मनोहर-कण्ठ से गा।
उन्मत्त-प्राय बन चित्त-प्रमत्तता से ॥102॥
मंजीर नूपुर मनोहर-किंकिणी की।
फैली मनोज्ञ-ध्वनि मंजुल वाद्य की सी।
छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई।
अत्यन्त कांत कर से कमनीय-वीणा ॥103॥
थापें मृदंग पर जो पड़ती सधी थीं।
वे थीं स-जीव स्वर-सप्तक को बनाती।
माधुर्य-सार बहु-कौशल से मिला के।
थीं नाद को श्रुति मनोहरता सिखाती ॥104॥
मीठे-मनोरम-स्वरांकित वेणु नाना।
हो के निनादित विनोदित थे बनाते।
थी सर्व में अधिक-मंजुल-मुग्धकारी।
वंशी महा-मधुर केशव कौशली की॥105 ॥
हो-हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से।
कान्तार में मुरलिका जब गूंजती थी।
तो पत्र-पत्र पर था कल-नृत्य होता।
रागांगना-विधु-मुखी चपलांगिनी का ॥106॥
भू-व्योम-व्यापित कलाधर की सुधा में।
न्यारी-सुधा मिलित हो मुरली-स्वरों की
धारा अपूर्व रस की महि में बहा के।
सर्वत्र थी अति-अलौकिकता लसाती ॥107॥
उत्फुल्ल थे विटप-वृन्द विशेष होते।
माधुर्य था विकच, पुष्प-समूह पाता।
होती विकाश-मय मंजुल वेलियाँ थीं।
लालित्य-धाम बनती नवला लता थीं॥108॥
क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली।
धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी।
थी नाचती उमगती अनुरक्त होती।
उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी॥109॥
पाई अपूर्व-स्थिरता मृदु-वायु ने थी।
मानों अचंचल विमोहित हो बनी थी।
वंशी मनोज्ञ-स्वर से बहु-मोदिता हो।
माधुर्य्यु-साथ हँसती सित-चन्द्रिका थी॥110॥
सत्कण्ठ साथ नर-नारि-समूह-गाना।
उत्कण्ठ था न किसको महि में बनाता।
तानें उमंगित-करी कल-कण्ठ जाता।
तंत्री रहीं जन-उरस्थल की बजाती। ॥111॥
ले वायु कण्ठ-स्वर, वेणु-निनाद-न्यारा।
प्यारी मृदंग-ध्वनि, मंजुल बीन-मीड़ें।
सामोद घूम बहु-पान्थ खगों मृगों को।
थीं मत्तप्राय नर-किन्नर को बनाती।॥112॥
हीरा समान बहु-स्वर्ण-विभूषणों में।
नाना विहंगरव में पिक-काकली सी।
होती नहीं मिलित थीं अति थीं निराली।
नाना-सुवाद्य-स्वन में हरि-वेणु-तानें ॥113॥
ज्यों ज्यों हुई अधिकता कल-वादिता की।
ज्यों ज्यों रही सरसता अभिवृद्धि पाती।
त्यों त्यों कला विवशता सु-विमुग्धता की।
होती गई समुदिता उर में सबों के ॥114॥
गोपी समेत अतएव समस्त-ग्वाले।
भूले स्व-गात-सुधि हो मुरली-रसाई।
गाना रुका सकल-वाद्य रुके स-वीणा।
वंशी-विचित्र-स्वर केवल गूंजता था॥115॥
होती प्रतीति उर में उस काल यों थी।
है मंत्र साथ मुरली अभीमंत्रिता सी।
उन्माद-मोहन-वशीकरणादिकों के।
हैं मंजु-धाम उसके ऋजु-रंध्र-सातों ॥116॥
पुत्र-प्रिया-सहित मंजुल-राग गा-गा।
ला-ला स्वरूप उनका जन-नेत्र-आगे।
ले-ले अनेक उर-वेधक-चारु-तानें।
की श्याम ने परम-मुग्धकरी क्रियायों ॥117॥
पीछे अचानक रुकीं वर-वेणु तानें।
चावों समेत सबकी सुधि लौट आई।
आनंद-नादमय कंठ-समूह-द्वारा।
हो-हो पड़ी ध्वनित बार कई दिशाएँ ॥118॥
माधो विलोक सबको मुद-मत्त बोले।
देखो छटा-विपिन की कल-कौमुदी में।
आना करो सफल कानन में गृहों से।
शोभामयी-प्रकृति की गरिमा विलोको ॥119॥
बीसों विचित्र-दल केवल नारि का था।
यों ही अनेक दल केवल थे नरों के।
नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रों।
उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम-बातें ॥120॥
सानन्द सर्व-दल कानन-मध्य फैला।
होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना।
देने लगा उर कभी नवला-लता को।
गाने लगा कलित-कीर्ति कभी कला की ॥121॥
आभा-अलौकिक दिखा निज-वल्लभा को।
पीछे कला-कर-मुखी कहता उसे था।
तोभी तिरस्कृत हुए छवि-गर्विता से।
ए होता प्रफुल्ल तम था दल-भावुकों का ॥122॥
जो कुल स्वच्छ-सर के नलिनी दलों में।
आबद्ध देख दृग से अलि-दारु-वेधी।
उत्फुल्ल हो समझता अवधारता था।
उद्दाम-प्रेम-महिमा दल-प्रेमिकों का॥123॥
विच्छिन्न हो स्व-दल से बहु-गोपिकायें।
स्वच्छन्द थीं विचरती रुचिर-स्थलों में।
या बैठ चन्द्र-कर-धौत-धरातलों में।
वे थीं स-मोद करती मधु-सिक्त बातें ॥124॥
कोई प्रफुल्ल-लतिका कर से हिला के।
वर्षा-प्रसून चय की कर मुग्ध होता।
कोई स-पल्लव स-पुष्प मनोज्ञ-शाखा।
था प्रेम साथ रखता कर में प्रिया के ॥125॥
आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली में।
बातें बड़ी-सरस थे सबको सुनाते।
हो भाव-मत्त-स्वर में मृदुता मिला के।
या थे महा-मधु-मयी-मुरली बजाते ॥126॥
आलोक-उज्वल दिखा गिरि-शृंग-माला।
थे यों मुकुन्द कहते छवि-दर्शकों से।
देखो गिरीन्द्र-शिर पै महती-प्रभा का।
है चन्द्र-कांत-मणि-मण्डित-क्रीट कैसा ॥127॥
धारा-मयी अमल श्यामल-अर्कजा में।
प्रायः स-तारक विलोक मयंक-छाया।
थे सोचते खचित-रत्न असेत शाटी।
है पैन्ह ली प्रमुदिता वन-भू-वधू ने ॥128॥
ज्योतिर्मयी-विकसिता-हसिता लता को।
लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के।
थे भाखते पति-रता-अवलम्बिता का।
कैसा प्रमोदमय जीवन है दिखाता ॥129॥
आलोक से लसित पादप-वृन्द नीचे।
छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के।
थे यों मुकुन्द कहते मलिनान्तरों का।
है वाह्य रूप बहु-उज्वल दृष्टि आता ॥130॥
ऐसे मनोरम-प्रभामय-काल में भी।
म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को।
थे यों ब्रजेन्दु कहते कुल-कामिनी को।
स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता ॥131॥
फूले हुए कुमुद देख सरोवरों में।
माधो सु-उक्ति यह थे सबको सुनाते।
उत्कर्ष देख निज-अंकपले-शशी का।
है वारि-राशि कुमुदों मिष हृष्ट होता ॥132॥
फैली विलोक सब ओर मयंक-आभा।
आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी।
है कीर्ति, भू ककुभ में अति-कांत छाई।
प्रत्येक धूलि-कणरंजन-कारिणी की ॥133॥
फूलों दलों पर विराजित ओस-बूंदें।
जो श्याम को दमकती द्युति से दिखातीं।
तो वे समोद कहते वन-देवियों ने।
की है कला पर निछावर-मंजु-मुक्ता ॥134॥
आपाद-मस्तक खिले कमनीय पौधे।
जो देखते मुदित होकर तो बताते।
होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से।
फूले नहीं नवल-पादप हैं समाते॥135॥
यों थे कलाकर दिखा कहते बिहारी।
है स्वर्ण-मेरु यह मंजुलता-धरा का।
है कल्प-पादप मनोहरताटवी का।
आनन्द-अंबुधि महामणि है मृगांक ॥136॥
है ज्योति-आकर पयोनिधि है सुधा का।
शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का।
है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा।
सर्वस्व है परम-रूपवती कला का ॥137॥
जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी।
वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी।
जैसी बही रससरी इस शर्वरी में।
वैसी कभी न ब्रज-भूतल में बही थी॥138॥
न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी।
वंशी-निनाद मन दे जिसने सुना है।
देखा विहार जिसने इस यामिनी में।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥139॥
जैसी बजी मधुर-बीन मृदंग-वंशी।
जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना।
जैसा बंधा इस महा-निशि में समाँ था।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥140॥
हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे।
देवे मयंक-कर को तज माधुरी भी।
तो भी नहीं ब्रज-धरा-जन के उरों से।
उत्फुल्ल-मूर्ति मनमोहन की कढ़ेगी॥141॥
धारा वही जल वही यमुना वही है।
है कुंज-वैभव वही वन-भू वही है।
हैं पुष्प-पल्लव वही ब्रज भी वही है।
ए हैं वही न घनश्याम बिना जनाते ॥142॥
कोई दुखी-जन विलोक पसीजता है।
कोई विषाद-वश रो पड़ता दिखाया।
कोई प्रबोध कर, 'है' परितोष देता।
है किंतु सत्य हित-कारक व्यक्ति कोई ॥143॥
सच्चे हितू तुम बनो ब्रज की धरा के।
ऊधो यही विनय है मुझ सेविका की।
कोई दुखी न ब्रज के जन-तुल्य होगा।
ए हैं अनाथ-सम भूरि-कृपाधिकारी॥144॥
मन्दाक्रान्ता छंद
बातों ही में दिन गत हुआ किंतु गोपी न ऊबीं।
वैसे ही थीं कथन करती वे व्यथायें स्वीकाया।
पीछे आई पुलिन पर जो सैकड़ों गोपिकायें।
वे कष्टों को अधिकतर हो उत्सुका थीं सुनाती॥145॥
वंशस्थ छंद
परंतु संध्या अवलोक आगता।
मुकुन्द के बुद्धि-निधान बंधु ने।
समस्त गोपी-जन को प्रबोध दे।
समाप्त आलोचित-वृत्त को किया ॥146॥
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त अतीव सराहना।
कर अलौकिक-पावन प्रेम की।
ब्रज-वधू-जन की कर सान्त्वना।
ब्रज-विभूषण-बंधु बिदा हुए ॥147॥
पंचदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
छाई प्रातः सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवों में।
कुंजों में थे भ्रमण करते हो महा-मुग्ध ऊधो।
आभा-वाले अनुपम इसी काल में एक बाला।
भावों-द्वारा-भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई ॥1॥
नाना बातें कथन करते देख पुष्पादिकों से।
उन्मत्ता की तरह करते देख न्यारी-क्रियायें।
उत्कण्ठा के सहित उसका वे लगे भेद लेने।
कुंजों में या विटपचय की ओट में मौन बैठे ॥2॥
थे बाला के दृग-युगल के सामने पुष्प नाना।
जो हो-हो के विकच, कर में भानु के सोहते थे।
शोभा पाता यक कुसुम था लालिमा पा निराली।
सो यों बोली निकट उसके जा बड़ी ही व्यथा से॥3॥
आहा कैसी तुझ पर लसी माधुरी है अनूठी।
तू ने कैसी सरस-सुषमा आज है पुष्प पाई।
चूसूं चाटू नयन भर मैं रूप तेरा विलोकूँ।
जी होता है हृदय-तल से मैं तुझे ले लगा लूँ॥4॥
क्या बातें हैं मधुर इतना आज तू जो बना है।
क्या आते हैं ब्रज-अवनि में मेघ सी कान्तिवाले?।
या कुंजों में अटन करते देख पाया उन्हें है।
या आ के है स-मुद परसा हस्त-द्वारा उन्होंने ॥5॥
तेरी प्यारी मधुर-सरसा-लालिमा है बताती।
डूबा तेरा हृदय-तल है लाल के रंग ही में।
मैं होती हूँ विकल पर तू बोलता भी नहीं है।
कैसे तेरी सरस-रसना कुंठिता हो गई है॥6॥
हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ।
जो जिह्वा हूँ कथन-रहिता-पंखड़ी को बनाती।
तू क्यों होगा सदय दुख क्यों दूर मेरा करेगा।
तू काँटों से जनित यदि है काठ का जो सगा है ।।7।।
आ के जूही-निकट फिर यों बालिका व्यग्र बोली।
मरी बातें तनिक न सुनी पातकी-पाटलों ने।
पीड़ा नारी-हृदय-तल की नारि ही जानती है।
जूही तू है विकच-वदना शान्ति तू ही मुझे दे॥8॥
तेरी भीनी-महँक मुझको मोह लेती सदा थी।
क्यों है प्यारी न वह लगती 'आज' सच्ची बता दे।
क्या तेरी है महँक बदली या हुई और ही तू।
या तेरा भी सरबस गया साथ ऊधो-सखा के॥9॥
छोटी-छोटी रुचिर अपनी श्याम-पत्रावली में।
तू शोभा से विकच जब थी भूरिता साथ होती।
ताराओं से खचित नभ सी भव्य तो थी दिखाती।
हा! क्यों वैसी सरस-छवि से वंचिता आज तू है ॥10॥
वैसी ही है सकल दल में श्यामता दृष्टि आती।
तू वैसी ही अधिकतर है वेलियों-मध्य फूली।
क्यों पाती हूँ न अब तुझमें चारुता पूर्व जैसी।
क्यों है तेरी यह गत हुई क्या न देगी बता तू॥11॥
मैं पाती हूँ अधिक तुझसे क्यों कई एक बातें।
क्यों देती है व्यथित कर क्यों वेदना है बढ़ाती।
क्यों होता है न दुख तुझको वंचना देख मेरी।
क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी ॥12॥
हो-हो पूरी चकित सुनती वेदना है हमारी।
या तू खोले वदन हँसती है दशा देख मेरी।
मैं तो तेरा सुमुखि! इतना मर्म भी हूँ न पाती।
क्या आशा है अपर तुझसे है निराशामयी तू ।।13।।
जो होता है सुखित, उसको अन्य की वेदनायें।
क्या होती हैं विदित वह जो भुक्त-भोगी न होवे।
तू फूली है हरित-दल में बैठ के सोहती है।
क्या जानेगी मलिन बनते पुष्प की यातनायें ॥14॥
तू कोरी है न, कुछ तुझ में प्यार का रंग भी है।
क्या देखेगी न फिर मुझको प्यार की आँख से तू।
मैं पूछूगी भगिनि! तुझसे आज दो-एक बातें।
तू क्या भी है प्रिय-मगन से यों महा-शोक-मग्ना॥15॥
थोड़ी लाली पुलकित-करी पंखड़ी-मध्य जो है।
क्या सो वृन्दा-विपिन-पति की प्रीति की व्यंजिका है।
जो है तो तू सरस-रसना खोल ले औ बता दे।
क्या तू भी है प्रिय-गमन से यों महा-शोक-मग्ना॥16॥
मेरा जी तो व्यथित बन के बावला हो रहा है।
व्यापी सारे हृदय-तल में वेदनायें सहस्रों।
मैं पाती हूँ न कल दिन में, रात में ऊबती हूँ।
भींगा जाता सब वदन है वारि-द्वारा दृगों के॥17॥
क्या तू भी है रुदन करती यामिनी-मध्य यों ही।
जो पत्तों में पतित इतनी वारि की बूँदियाँ हैं।
पीड़ा द्वारा मथित-उर के प्रायशः काँपती है।
या तू होती मृदु-पवन से मन्द आन्दोलिता है॥18॥
तेरे पत्ते अति-रुचिर है कोमला तू बड़ी है।
तेरा पौधा कुसुम-कुल में है बड़ा ही अनूठा।
मेरी आँखें ललक पड़ती हैं तुझे देखने को।
हा! क्यों तो भी कथित चित की तू न आमोदित है ॥19॥
हा! बोली तू न कुछ मुझसे औ बताईं न बातें।
मेरा जी है कथन करता तू हुई तद्गता है
मेरे प्यारे-कुँवर तुझको चित्त से चाहते थे।
तेरी होगी न फिर दयिते! आज ऐसी दशा क्यों ॥20॥
जूही बोली न कुछ जतला प्यार बोली चमेली।
मैंने देखा दृग-युगल से रंग भी पाटलों का।
तू बोलेगा सदय बन के ईदृशी है न आशा।
पूरा कोरा निठुरपन के मूर्ति ऐ पुष्प बेला ॥21॥
मैं पूछूगी तदपि मुझसे आज बातें स्वकीया।
तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।
क्यों होते हैं पुरुष कितने, प्यार से शून्य कोरे।
क्यों होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा ॥22॥
आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मैं हूँ।
तेरी तीखी महँक मुझको कष्टिता है बनाती।
क्यों होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की।
क्यों तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू ॥23॥
तेरी सारे सुमन-चय से श्वेतता उत्तमा है।
अच्छा होता अधिक यदि तू सात्विकी वृत्ति पाता।
हा! होती है प्रकृति रुचि में अन्यथा कारिता भी।
तेरा एरे निठुर नतुवा साँवला रंग होता ॥24॥
नाना पीड़ा निठुर-कर से नित्य मैं पा रही हूँ।
तेरे में भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है।
हो-हो खिन्ना परम तुझसे मैं अतः पूछती हूँ।
क्यों देते हैं निठुर जन यों दूसरों को व्यथायें ॥25॥
हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है।
मैं कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ।
खोटे होते दिवस जब हैं भाग्य जो फूटता है।
कोई साथी अवनि-तल में है किसी का न होता॥26॥
जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के।
पीड़ा मेरे हृदय-तल की पाटलों ने न जानी।
तो तू हो के धवल-तन औ कुन्त-आकार-अंगी।
क्यों बोलेगा व्यथित चित की क्यों व्यथा जान लेगा॥27॥
चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली।
पाई जाती सुरभि तुझमें एक सत्पुष्प-सी है
तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता।
क्या है ऐसी कसर तुझमें न्यूनता कौन सी है ॥28॥
क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।
क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।
तू ने की है सुमुखि ! अलि का कौन सा दोष ऐसा।
जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है ॥29॥
सर्वांगों में सरस-रज और धूलियों को लपेटे।
आ पुष्पों में स-विधि करती गर्भ-आधान जो है।
जो ज्ञाता है मधुर-रस का मंजु जो गूंजता है।
ऐसे प्यारे रसिक-अलि से तू असम्मानिता है ॥30॥
जो आँखों में मधुर-छवि की मूर्ति सी आँकता है।
जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका-शशी है।
जो वंशी के सरस-स्वर से है सुधा सी बहाता ।
ऐसे माधो-विरह-दव से मैं महादग्धिता हूँ॥31॥
मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनायें कई हैं।
आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।
जो रोती हैं दिवस-रजनी दोष जाने बिना ही।
ऐसी भी हैं अवनि-तल में जन्म लेती अनेकों ॥32॥
मैंने देखा अवनि-तल में श्वेत ही रंग ऐसा।
जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।
तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखो।
क्या तू मेरे हृदय-तल के रंग में भी रँगेगा॥33॥
क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते हैं।
तू कैसा है रुचिर लगता पत्तियों-मध्य फूला।
तो भी कैसी व्यथित-कर है सो कली हाय! होती।
हो जाती है विधि-कुमति से म्लान फूले बिना जो ॥34॥
मेरे जी की मृदुल-कलिका प्रेम के रंग राती।
म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली।
क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू ।
या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा ॥35॥
वे हैं मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को।
जो तू मेरे हृदय-तल में अल्प भी ला सकेगा।
हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा।
तो तू मेरे मलिन-मन की म्लानता पा सकेगा॥36॥
हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी।
जो तू होगा व्यथित न किसी कष्टिता की व्यथा से।
कैसे तेरी सुमन-अभिधा सार्थ ऐ कुन्द होगी।
जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितों से॥37॥
सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया।
चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है।
यों काँटों से भरित तुझको क्यों उसीने किया है।
दी है धूली अलि अवलि की दृष्टि-विध्वंसिनी क्यों ॥38॥
कालिन्दी सी कलित-सरिता दर्शनीया-निकुंजें।
प्यारा-वृन्दा-विपिन विटपी चारु न्यारी-लतायें।
शोभावाले-विहग जिसने हैं दिये हा! उसीने।
कैसे माधोरहित ब्रज की मेदनी को बनाया ॥39॥
क्या थोड़ा भी सजनि! इसका मर्म तू पा सकी है।
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती।
कैसा होता जगत सुख का धाम और मुग्धकारी।
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती ॥40॥
मैंने देखा अधिकतर है भंग आ पास तेरे।
अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है।
आ जाती है दृग-युगल में अंधता धूलि-द्वारा।
काँटों से हैं उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते ॥41॥
क्यों होती है अहह इतनी यातना प्रेमिकों की।
क्यों वाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता।
जो प्यारा औ रुचिर-विटपी जीवनोद्यान का है।
सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटकों से भरा है ॥42॥
पूरा रागी हृदय-तल है पुष्प बन्धूक तेरा।
मर्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है
तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती।
पूरा-पूरा दिवस-पति के प्रेम में तू पगा है॥43॥
तेरे जैसे प्रणय-पथ के पान्थ उत्पन्न हो के।
प्रेमी की हैं प्रकट करते पक्वता मेदनी में।
मैं पाती हूँ परम-सुख जो देख लेती तुझे हूँ।
क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा॥44॥
मैं गोरी हूँ कुँवर-वर की कान्ति है मेघ की सी।
कैसे मेरा, महर-सुत का, भेद निर्मूल होगा।
जैसे तू है परम-प्रिय के रंग में पुष्प डूबा ।
कैसे वैसे जलद-तन के रंग में मैं रँगूँगी॥45॥
पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियों का।
मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ।
मैं पाऊँगी हृदय-तल में उत्तमा-शांति कैसे।
जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही में ॥46॥
'ऐसी' हो के कुसुम तुझमें प्रेम की पक्वता है।
मैं हो के भी मनुज-कुल की, न्यूनता से भरी हूँ।
कैसी लज्जा-परम-दुख की बात मेरे लिए है।
छा जावेगा न प्रियतम का रंग सर्वांग में जो ॥47॥
वंशस्थ छंद
खिला हुआ सुंदर-वेलि-अंक में।
मुझे बता श्याम-घटा प्रसून तू।
तुझे मिलि क्यों किस पूर्व-पुण्य से।
अतीव-प्यारी-कमनीय-श्यामता॥48॥
हरीतिमा वृन्त समीप की भली।
मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता।
लसी हुई श्यामलताग्रभाग में।
नितान्त है दृष्टि विनोद-वर्धिनी ॥49॥
परंतु तेरा बहु-रंग देख के।
अतीव होती उर-मध्य है व्यथा।
अपूर्व होता भव में प्रसून तू।
निमग्न होता यदि श्याम-रंग में ॥50॥
तथापि तु अल्प न भाग्यवान है।
चढ़ा हुआ है कुछ श्याम रंग तो।
अभागिनी है वह, श्यामता नहीं।
विराजती है जिसके शरीर में ॥51॥
न स्वल्प होती तुझमें सुगंधि है।
तथापि सम्मानित सर्व-काल में।
तुझे रखेगा ब्रज-लोक दृष्टि में
प्रसून तेरी यह श्यामलांगता ॥52॥
निवास होगा जिस ओर सूर्य का।
उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू।
विलोकती है जिस चाव से उसे।
सदैव ऐ सूर्यमुखी सु-आनना ॥53॥
अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय भी।
अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी।
विलोकती थी जब हो विनोदिता।
मुकुन्द के मंजु-मुखारविन्द को ॥54॥
परंतु मेरे अब वे न वार हैं।
न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता।
तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू।
विभावरी में बनती मलीन है ॥55॥
निशांत में तू प्रिय स्वीय कांत से।
पुनः सदा है मिलती प्रफुल्ल हो।
परंतु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये।
मदीय घोरा रजनी-वियोग की ॥56॥
नृलोक में है वह भाग्य-शालिनी।
सुखी बने जो विपदावसान में।
अभागिनी है वह विश्व में बड़ी।
न अन्त होवे जिसकी विपत्ति का ॥57॥
मालिनी छंद
कुवलय-कुल में से तो अभी तू कढ़ा है।
बहु-विकसित प्यारे-पुष्प में भी रमा है।
अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की।
सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें ॥58॥
यह समझ प्रसूनों पास में आज आई।
क्षिति-तल पर हैं ए मूर्त्ति-उत्फुल्लता की।
पर सुखित करेंगे ए मुझे आह! कैसे।
जब विविध दुखों में मग्न होते स्वयं हैं ॥59॥
कतिपय-कुसुमों को म्लान होते विलोका।
कतिपय बहु कीटों के पड़े पेच में हैं।
मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।
कतिपय-सुमनों की पंखड़ी भू पड़ी है॥60॥
तदपि इन सबों में ऐंठ देखी बड़ी ही।
लख दुखित-जनों को ए नहीं म्लान होते।
चित व्यथित न होता है किसी की व्यथा से।
बहु भव-जनितों की वृत्ति ही ईदृशी है॥61॥
अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती।
मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।
अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है
थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥
यदि तज कर के तू गूंजना धैर्य-द्वारा।
कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।
तब अवगत होगा बालिका एक भू में।
विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो ॥63॥
अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।
निज दुख तुझसे मैं आज तो भी कहूँगी।
कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता।
क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मूर्ति पाती ॥64॥
इस क्षिति-तल में क्या व्योम के अंक में भी
प्रिय वपु छवि शोभी मेघ जो घूमते हैं।
इक टक पहरों मैं तो उन्हें देखती हूँ।
कह निज मुख द्वारा बात क्या-क्या न जानें ॥65॥
मधुकर सुन तेरी श्यामता है न वैसी।
अति-अनुपम जैसी श्याम के गात की है।
पर जब-जब आँखें देख लेती तुझे हैं।
तब-तब सुधि आती श्यामली-मूर्ति की है॥66॥
तव तन पर जैसी पीत-आभा लसी है।
प्रियतम कटि में है सोहता वस्त्र वैसा।
गुन-गुन करना औ गूंजना देख तेरा।
रस-मय-मुरली का नाद है याद आता ॥67॥
जब विरह विधाता ने सृजा विश्व में था।
तब स्मृति रचने में कौन सी चातुरी थी।
यदि स्मृति विरचा तो क्यों उसे है बनाया।
वपन-पटु कु-पीड़ा बीज प्राणी-उरों में ॥68॥
अलि पड़ कर हाथों में इसी प्रेम के ही।
लघु-गुरु कितनी तू यातना भोगता है।
विधि-वश बँधता है कोष में पंकजों के।
बहु-दुख सहता है विद्ध हो कंटकों से॥69॥
पर नित जितनी मैं वेदना पा रही हूँ।
अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी।
मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है।
तब दुख उसकी ही पीतता तुल्य तो है ॥70॥
बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा।
अपहृत चित होता है अनायास तेरा।
कतिपय-मति-शाली हेतु आसक्तता का।
अनुपम-मधु किम्वा गंध को हैं बताते ॥71॥
यदि इन विषयों को रूप गंधादिकों को।
मधुकर हम तेरे मोह का हेतु मानें।
यह अवगत होना चाहिए भृङ्ग तो भी।
दुख-प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं ॥72॥
पर मुझ अबला की वेदना-दायिनी हा।
समधिक गुण-वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
तदुपरि कितनी हैं मानवी-वंचनायें।
विचलित-कर होंगी क्यों न मेरी व्यथायें ॥73॥
जब हम व्यथिता हैं ईदृशी तो तुझे क्या।
कुछ सदय न होना चाहिए श्याम-बन्धो।
प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के दृगों से।
मत निठुर बने तू सामने लोचनों के ॥74॥
नव-नव-कुसुमों के पास जा मुग्ध हो-हो।
गुन-गुन करता है चाव से बैठता है।
पर कुछ सुनता है तू न मेरी व्यथायें।
मधुकर इतना क्यों हो गया निर्दयी है॥75॥
कब टल सकता था श्याम के टालने से।
मुख पर मँडलाता था स्वयं मत्त हो के।
यक दिन वह था औ एक है आज का भी।
जब भ्रमर न मेरी ओर तू ताकता है ॥76॥
कब पर-दुख कोई है कभी बाँट लेता।
सब परिचय-वाले प्यार ही हैं दिखाते।
अहह न इतना भी हो सका तो कहूँगी।
मधुकर यह सारा दोष है श्यामता का ॥77॥
द्रुतविलम्बित छंद
कमल-लोचन क्या कल आ गये।
पलट क्या कु-कपाल-क्रिया गई।
मुरलिका फिर क्यों वन में बजी।
वन रसा तरसा वरसा सुधा ॥78॥
किस तपोबल से किस काल में।
सच बता मुरली कल-नादिनी।
अवनि में तुझको इतनी मिली।
मदिरता, मृदुता, मधुमानता ॥79॥
चकित है किसको करती नहीं।
अवनि को करती अनुरक्त है।
विलसती तव सुंदर अंक में।
सरसता, शुचिता, रुचिकारिता ॥80॥
निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की।
कथन क्यों न करूँ अयि वंशिके।
निहित है तब मोहक पोर में।
सफलता, कलता, अनुकूलता ॥81॥
मुरलिके कह क्यों तव-नाद से।
विकल हैं बनती ब्रज-गोपिका।
किस लिए कल पा सकती नहीं।
पुलकती, हँसती, मृदु बोलती ॥82॥
स्वर पूँका तव है किस मंत्र से।
सुन जिसे परमाकुल मत्त हो।
सदन है तजती ब्रज-बालिका।
उमगती, ठगती, अनुरागती ॥83॥
तव प्रवंचित है बन छानती।
विवश सी नवला ब्रज-कामिनी।
युग विलोचन से जल मोचती।
ललकती, कँपती, अवलोकती ॥84॥
यदि बजी फिर, तो बज ऐ प्रिये।
अपर है तुझ सी न मनोहरा।
पर कृपा कर के कर दूर तू।
कुटिलता, कटुता, मदशालिता ॥85॥
विपुल छिद्र-वती बन के तुझे।
यदि समादर का अनुराग है।
तज न तो अयि गौरव-शालिनी।
सरलता, शुचिता, कुल-शीलता ॥86॥
लसित है कर में ब्रज-देव के।
मुरलिके तप के बल आज तू।
इस लिए अबलाजन को वृथा।
मत सता, न जता मति-हीनता ॥87॥
वंशस्थ छंद
मदीय प्यारी अयि कुंज-कोकिला।
मुझे बता तू ढिग कूक क्यों उठी।
विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी।
विषादिता, संकुचिता, निपीड़िता ॥88॥
प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की।
भला नहीं तो ब्रज-मध्य श्याम की।
कभी बजेगी अब क्यों सु-बाँसुरी।
सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी ॥89॥
विषादिता तू यदि कोकिला बनी।
विलोक मेरी गति तो कहीं न जा।
समीप बैठी सुन गूढ-वेदना।
कुसंगजा, मानसजा,मदंगजा ॥190॥
यथैव हो पालि काक-अंक में।
त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय हैं।
तथैव माधो यदु-वंश में मिले।
अशोभना, खिन्न मना मुझे बना ॥191॥
तथापि होती उतनी न वेदना।
न श्याम को जो ब्रज-भूमि भूलती।
नितान्त ही है दुखदा, कपाल की।
कुशीलता, आविलता, करालता ॥92॥
कभी न होगी मथुरा-प्रवासिनी।
गरीबिनी गोकुल-ग्राम-गोपिका।
भला करे लेकर राज-भोग क्या।
यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता ॥93॥
जहाँ न वृन्दावन है विराजता।
जहाँ नहीं है ब्रज-भू मनोहरा।
न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नहीं।
प्रवाहिता भानु-सुता प्रफुल्लिता ॥94॥
करील हैं कामद कल्प-वृक्ष से।
गवादि हैं काम-दुधा गरीयसी।
सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा।
महामना, श्यामघना लुभावना ॥95॥
जहाँ न वंशी-वट है न कुंज है
जहाँ न केकी-पिक है न शारिका।
न चाह वैकुण्ठ रखें, न है जहाँ।
बड़ी भली, गोप-लली, समाअली ॥96॥
न कामुका हैं हम राज-वेश की।
न नाम प्यारा यदु-नाथ है हमें।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की।
विरागिनी, पागलिनी, वियोगिनी ॥97॥
विरक्ति बातें सुन वेदना-भरी।
पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही।
बना रहा है तब बोलना मुझे।
व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी ॥98॥
नहीं-नहीं है मुझको बता रही।
नितान्त तेरे स्वर की अधीरता।
वियोग से है प्रिय के तुझे मिली।
अवांछिता, कातरता, मलीनता ॥99॥
अतः प्रिये तू मथुरा तुरन्त जा।
सुनास्व-वेधी-स्वर जीवितेश को।
अभिज्ञ वे हों जिससे वियोग की।
कठोरता, व्यापकता, गंभीरता ॥100॥
परंतु तू तो अब भी उड़ी नहीं।
प्रिये पिकी क्या मथुरा न जायगी?
न जा, वहाँ है न पधारना भला।
उलाहना है सुनना जहाँ मना 101॥
वसंततिलका छंद
पा के तुझे परम-पूत-पदार्थ पाया।
आई प्रभा प्रवह मान दुखी दृगों में।
होती विवर्द्धित घटी उर-वेदनायें।
ऐ पद्म-तुल्य पद-पावन चिन्ह प्यारा ॥102॥
कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा।
कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ।
तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था।
कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे ॥103॥
माथे चढ़ा मुदित हो उर में लगाऊँ।
है चित्त चाह सु-विभूति उसे बनाऊँ।
तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं।
सानन्द अंजित सुरंजित-लोचनों में ॥104॥
लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया।
तीसी-प्रसून-सम श्यामलता सलोनी।
कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी।
तो भी विमुग्ध करती तब माधुरी है॥105॥
संयोग से पृथक हो पद-कंज से तू।
जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है।
त्योंहीं मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो।
मैं भी अचिन्तित-अचेतनतामयी हूँ॥106॥
होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की।
पाती अलौकिक-पदार्थ वसुंधरा में।
होता स-शान्ति मम जीवन शेष भूत।
लेती पदांक तुझको यदि अंक में मैं ॥107॥
हूँ मैं अतीव-रुचि से तुझको उठाती।
प्यारे पदांक अब तू मम-अंक में आ।
हा! दैव क्या यह हुआ? उह! क्या करूँ मैं।
कैसे हुआ प्रिय पदांक विलोप भू में ॥108॥
क्या हैं कलंकित बने युग-हस्त मेरे।
क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था।
ए हैं अवश्य अति-निंद्य महा-कलंकी।
जो हैं प्रवंचित हुए पद-अर्चना से ॥109॥
मैं भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय! मैंने।
अत्यन्त भ्रान्त वन के इतना न जाना।
जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े हैं।
वे हैं किसी अपर के कब हाथ आते ॥110॥
पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया।
मैं बाँधती सरुचि अंचल में तुझे हूँ।
होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता।
देगी प्रकाश तम में फिरते दृगों को॥111॥
मालिनी छंद
कुछ कथन करूँगी मैं स्वकीया व्यथायें।
बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा।
प्रति-पल बहती ही क्या चली जायगी तू।
कल-कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला ॥112॥
कल-मुरलि-निनादी लोभनीयांग-शोभी।
अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तलो कांति-शाली।
अयि पुलकित अंके आज भी क्यों न आया।
वह कलित-कपोलों कांत आलापवाला ॥113॥
अब अप्रिय हुआ है क्यों उसे गेह आना।
प्रति-दिन जिसकी ही ओर आँखें लगी हैं।
पल-पल जिस प्यारे के लिए हूँ बिछाती।
पुलकित-पलकों के पाँवड़े प्यार-द्वारा ॥114॥
मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।
निज उर वह क्यों है संग जैसा बनाता।
विलसित जिसमें है चारु-चिन्ता उसी की।
वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता ॥115॥
जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैंने।
वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।
जिस कुँवर बिना हैं याम होते युगों से।
वह छवि दिखलाता क्यों नहीं लोचनों को ॥116॥
सब तज हमने है एक पाया जिसे ही।
अयि अलि! उसने है क्या हमें त्याग पाया।
हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती हैं।
वह प्रिय न हमारी ओर क्यों ताक पाया॥117॥
विलसित उर में है जो सदा देवता सा।
वह निज उर में है ठौर भी क्यों न देता।
नित वह कलपाता है मुझे कांत हो क्यों।
जिस बिन 'कल' पाते हैं नहीं प्राण मेरे ॥118॥
मम दृग जिसके ही रूप में हैं रमे से।
अहह वह उन्हें है निर्ममों सा रुलाता।
यह मन जिनके ही प्रेम में मग्न सा है।
वह मद उसको क्यों मोह का है पिलाता ॥119॥
जब अब अपने ए अंग ही हैं न आली।
तब प्रियतम में मैं क्या करूँ तर्कनायें।
जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती।
तब कुछ कहना ही कांत को अज्ञता है ॥120॥
दृग अति अनुरागी श्यामली-मूर्ति के हैं
युग श्रुति सुनना हैं चाहते चारु-तानें।
प्रियतम मिलने को चौगुनी लालसा से।
प्रति-पल अधिकाती चित्त की आतुरी है ॥121॥
उर विदलित होता मत्तता वृद्धि पाती।
बहु विलख न जो मैं यामिनी-मध्य रोती।
विरह-दव सताता, गात सारा जलाता।
यदि मम नयनों में वारि-धारा न होती ॥122॥
कब तक मन मारूँ दग्ध हो जी जलाऊँ।
निज-मृदुल-कलेजे में शिला क्यों लगाऊँ।
वन-वन विलयूँ या मैं धुंकूँ मेदिनी में।
निज-प्रियतम प्यारी मूर्ति क्यों देख पाऊँ ॥123॥
तव तट पर आ के नित्य ही कांत मेरे।
पुलकित बन भावों में पगे घूमते हैं।
यक दिन उनको पा प्रीत जी से सुनाना।
कल-कल-ध्वनि-द्वारा सर्व मेरी व्यथायें ॥124॥
विधि वश यदि तेरी धार में आ गिरूँ मैं।
मम तन ब्रज की हो मेदिनी में मिलाना।
उस पर अनुकूला हो, बड़ी मंजुता से।
कल-कुसुम अनूठी-श्यामता के उगाना ॥125॥
घन-तन रत मैं हूँ तू असेतांगिनी है।
तरलित-उर तू है चैन मैं हूँ न पाती।
अयि अलि बन जा तू शान्ति-दाता हमारी।
अति-प्रतपित मैं हूँ ताप तू है भगाती ॥126॥
मन्दाक्रान्ता छंद
रोई आ के कुसुम-ढिग औ भृङ्ग के साथ बोली।
वंशी-द्वारा-भ्रमित बन के बात की कोकिला से।
देखा प्यारे कमल-पग के अंक को उन्मना हो।
पीछे आयी तरणि-तनया-तीर उत्कण्ठिता सी॥127 ॥
द्रुतविलम्बित छंद
तदुपरान्त गई गृह-बालिका।
व्यथित ऊधव को अति ही बना।
सब सुना सब ठौर छिपे गये।
पर न बोल सके वह अल्प भी॥128॥
षोड़श सर्ग
वंशस्थ छंद
विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था।
वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी।
विचित्रता-साथ विराजिता रही।
वसंत वासंतिकता वनान्त में॥1॥
नवीन भूता वन की विभूति में।
विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में।
अनूपता व्यापित थीह वसंत की।
निकुंज में कूजित-कुंज-पुंज में ॥2॥
प्रफुल्लिता कोमल-पल्लवान्विता।
मनोज्ञता-मूर्ति नितान्त-रंजिता।
वनस्थली थी मकरंद-मोदिता।
अकीलिता कोकिल-काकली-मयी॥3॥
निसर्ग ने, सौरभ ने, पराग ने।
प्रदान की थी अति कांत-भाव से।
वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को।
मनोज्ञता, मादकता, मदांधता॥4॥
वसंत की भाव-भरी विभूति सी।
मनोज की मंजुल-पीठिका-समा।
लसी कहीं थी सरसा सरोजिनी।
कुमोदिनी-मानस-मोदिनी कहीं॥5॥
नवांकुरों में कलिका-कलाप में।
नितान्त न्यारे फल पत्र-पुंज में।
निसर्ग-द्वारा सु प्रसूत-पुष्प में।
प्रभूत पुंजी-कृत थी प्रफुल्लता ॥6॥
विमुग्धता की वर-रंग-भूमि सी।
प्रलुब्धता केलि वसुंधरोपमा।
मनोहरा थीं तरु-वृन्द-डालियाँ।
नई कली मंजुल-मंजरीमयी ॥7॥
अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा।
महत्व औ गौरव, सत्य-त्याग का।
विचित्रता से करती प्रकाश थी।
स-पत्रता पादप पत्र-हीन की॥8॥
वसंत-माधुर्य-विकाश-वर्द्धिनी।
क्रिया-मयी, मार-महोत्सवांकिता।
सु-कोंपलें थीं तरु-अंक में लसी।
स-अंगरागा अनुराग-रंजिता ॥9॥
नये-नये पल्लववान पेड़ में।
प्रसून में आगत थी अपूर्वता।
वसंत में थी अधिकांश शोभिता।
विकाशिता-वेलि प्रफुल्लिता-लता ॥10॥
अनार में औ कचनार में बसी।
ललामता थी अति ही लुभावनी।
बड़े लसे लोहित-रंग-पुष्प से।
पलाश की थी अपलाशता ढकी।
स-सौरभा लोचन की प्रसादिका॥11॥
स-सौरभा लोचन की प्रसादिका।
कांक वसंत-वासंतिका-विभूषिता।
विनोदिता हो बहु थी विनोदिनी।
प्रिया-समा मंजु-प्रियाल-मंजरी॥12॥
दिशा प्रसन्ना महि पुष्प-संकुला।
नवीनता-पूरित पादपावली।
वसंत में थी लतिका सु-यौवना।
अलापिका पंचम-तान कोकिला ॥13॥
अपूर्व-स्वर्गीय-सुगंध में सना।
सुधा बहाता धमनी-समूह में।
समीर आता मलयाचलांक से।
किसे बनाता न विनोद-मग्न था॥14॥
प्रसादिनी-पुष्प सुगंध-वर्द्धिनी।
विकाशिनी वेलि लता विनोदिनी।
अलौकिकी थी मलयानिली क्रिया।र
विमोहिनी पादप पंक्ति-मोदिनो॥15॥
वसंत शोभा प्रतिकूल थी बड़ी।
वियोग-मग्ना ब्रज-भूमि के लिए।
बना रही थी उसको व्यथामयी।
विकाश पाती वन-पादपावली ॥16॥
दृगों उरों को दहती अतीव थीं।
शिखाग्नि-तुल्या तरु-पुंज-कोंपलें।
अनार-शाखा कचनार-डाल थी।
अपार अंगारक पुंज-पूरिता ॥17॥
नितान्त ही थी प्रतिकूलता-मयी।
प्रियाल की प्रीति-निकेत-मंजरी।
बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।
विदारता था तरु कोबिदार का18॥
भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।
सशंकता-मूर्ति प्रमोद-नाशिनी।
अतीव थी रक्तमयी अशोभना।
पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा॥19॥
इतस्ततः भ्रान्त-समान घूमती।
प्रतीत होती अवली मिलिन्द की।
विदूषिता हो कर थी कलंकिता।
अलंकृता कोकिल कांत कंठता ॥20॥
प्रसून को मोहकता मनोज्ञता।
नितान्त थी अन्यमनस्कतामयी।
न वांछिता थी न विनोदनीय थी।
अ-मानिता हो मलयानिल-क्रिया ॥21॥
बड़े यशस्वी वृष-भानु गेह के।
समीप थी एक विचित्र वाटिका।
प्रबुद्ध-ऊधो इसमें इन्हीं दिनों।
प्रबोध देने ब्रज-देवि को गये॥22॥
वसंत को पा यह शांत वाटिका।
स्वभावतः कांत नितान्त थी हुई।
परंतु होती उसमें स-शान्ति थी।
विकाश की कौशल-कारिणी-क्रिया ॥23॥
शनैः शनैः पादप पुंज कोंपलें।
विकाश पा के करती प्रदान थीं।
स-आतुरी रक्तिमता-विभूति को।
प्रमोदनीया-कमनीय श्यामता ॥24॥
अनेक आकार-प्रकार से मनों।
बता रही थीं यह गूढ़-मर्म वे।
नहीं रँगेगा वह श्याम-रंग में।
न आदि में जो अनुराग में रंगा॥25॥
प्रसून थे भाव-समेत फूलते।
लुभावने श्यामल पत्र अंक में।
सुगंध को पूत बना दिगन्त में।
पसारती थी पवनातिपावनी ॥26॥
प्रफुल्लता में अति-गूढ़-म्लानता।
मिली हुई साथ पुनीत-शान्ति के।
सु-व्यंजिता संयत भाव संग थी।
प्रफुल्ल-पाथोज प्रसून-पुंज में ॥27॥
स-शान्ति आते उड़ते निकुंज में।
स-शान्ति जाते ढिग थे प्रसून के।
बने महा-नीरव, शांत, संयमी।
स-शान्ति पीते मधु को मिलिन्द थे ॥28॥
विनोद से पादप पै विराजना।
विहंगिनी साथ विलास बोलना।
बँधा हुआ संयम-सूत्र साथ था।
कलोलकारी खग का कलोलना ॥29॥
न प्रायशः आनन त्यागती रही।
न थी बनाती ध्वनिता दिगन्त को।
न बाग में पा सकती विकाश थी।
अ-कुंठिता हा कल-कंठ-काकली ॥30॥
इसी तपोभूमि-समान वाटिका।
सु-अंक में सुंदर एक कुंज थी।
समावृता श्यामल-पुष्प-संकुला।
अनेकशः वेलि-लता-समूह से ॥31॥
विराजती थीं वृष-भानु-नन्दिनी।
इसी बड़े नीरव शांत-कुंज में।
अतः यहीं श्री बलवीर-बंधु ने।
उन्हें विलोका अलि-वृन्द आवृता॥32॥
प्रशांत, म्लाना, वृषभानु-कन्यका।
सु-मूर्ति देवी सम दिव्यतामयी।
विलोक, हो भावित भक्ति-भाव से।
विचित्र ऊधो-उर की दशा हुई ॥33॥
अतीव थी कोमल-कान्ति नेत्र की।
परंतु थी शान्ति विषाद-अंकिता।
विचित्र-मुद्रा मुख-पद्म की मिली।
प्रफुल्लता आकुलता समन्विता ।।34॥
स-प्रीति वे आदर के लिए उठीं।
विलोक आया ब्रज-देव-बंधु को।
पुनः उन्होंने निज-शांत-कुंज में।
उन्हें बिठाया अति-भक्ति-भाव से ॥35॥
अतीव-सम्मान समेत आदि में।
ब्रजेश्वरी की कुशलादि पूछ के।
पुनः सुधी-ऊधव ने स-नम्रता।
कहा सँदेसा वह श्याम-मूर्ति का ॥36॥
मन्दाक्रान्ता छंद
प्राणाधारे परम-सरले प्रेम की मूर्ति राधे।
निर्माता ने पृथक तुमसे यों किया क्यों मुझे है।
प्यारी आशा प्रिय-मिलन की नित्य है दूर होती।
कैसे ऐसे कठिन-पथ का पान्थ मैं हो रहा हूँ ॥37॥
जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये हैं।
क्यों धाता ने विलग उनके गात को यों किया है।
कैसे आ के गुरु-गिरि पड़े बीच में हैं, उन्हीं के।
जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यशःथे॥38॥
उत्कण्ठा के विवश नभ को, भूमि को, पादपों को।
ताराओं को, मनुज-मुख को प्रयाशः देखता हूँ।
प्यारी! ऐसी न ध्वनि मुझको है कहीं भी सुनाती।
जो चिन्ता से चलित-चित की शान्ति का हेतु होवे ॥39॥
जाना जाता परम विधि के बंधनों का नहीं है।
तो भी होगा उचित चित में यों प्रिये सोच लेना।
होते जाते विफल यदि हैं सर्व-संयोग सूत्र।
तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई ॥40॥
हैं प्यारी औ मधुर सुख औ भोग की लालसायें।
कान्ते, लिप्सा जगत-हित की और भी है मनोज्ञा।
इच्छा आत्मा परम-हित की मुक्ति की उत्तमा है।
वांछा होती विशद उससे आत्म-उत्सर्ग की है॥41॥
जो होता है निरत तप से मुक्ति की कामना से
आत्मार्थी है, न कह सकते हैं उसे आत्मत्यागी।
जी से प्यारा जगत-हित औ लोक-सेवा जिसे है।
प्यारी सच्चा अवनि-तल में आत्मत्यागी वही है ॥42॥
जो पृथ्वी के विपुल-सुख की माधुरी है विपाशा।
प्राणी-सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है।
जो आद्या है नखत द्युति सी व्याप जाती उरों में
तो होती है लसित उसमें कौमुदी सी द्वितीया ॥43॥
भोगों में भी विविध कितनी रंजिनी-शक्तियाँ हैं।
वे तो भी हैं जगत-हित से मुग्धकारी न होते।
सच्ची यों है कलुष उनमें हैं बड़े क्लान्ति-कारी।
पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा ॥44॥
है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा।
सारे प्राणी स-रुचि इसकी माधुरी में बँधे हैं।
जो होता है न वश इसके आत्म-उत्सर्ग-द्वारा।
ऐ कान्ते है सफल अवनी-मध्य आना उसी का ॥45॥
जो है भावी परम-प्रबला दैव-इच्छा प्रधाना।
तो होवेगा उचित न, दुखी वांछितों हेतु होना।
श्रेय:कारी सतत दयिते सात्विकी-कार्य होगा।
जो हो स्वार्थोपरत भव में सर्व-भूतोपकारी ॥46॥
वंशस्थ छंद
अतीव हो अन्यमना विषादिता।
विमोचते वारि दृगारविन्द से।
समस्त सन्देश सुना ब्रजेश का।
ब्रजेश्वरी ने उर वज्र सा बना ॥47॥
पुनः उन्होंने अति शांत-भाव से।
कभी बहा अश्रु कभी स-धीरता।
कहीं स्व-बातें बलवीर-बंधु से।
दिखा कलत्रोचित-चित्त-उच्चता ॥48॥
मन्दाक्रान्ता छंद
मैं हूँ ऊधो पुलकित हुई आपको आज पा के
सन्देशों को श्रवण कर के और भी मोदिता हूँ।
मंदीभूता, उर-तिमिर की ध्वंसिनी ज्ञान आभा।
उद्दीप्ता हो उचित-गति से उज्ज्वला हो रही है॥49॥
मेरे प्यारे, पुरुष, पृथिवी-रत्न औ शांत धी हैं।
सन्देशों में तदपि उनकी, वेदना, व्यंजिता है।
मैं नारी हूँ, तरल-उर हूँ, प्यार से वंचिता हूँ।
जो होती हूँ विकल, विमना, व्यस्त, वैचित्र्य क्या है॥50॥
हो जाती है रजनि मलिना ज्यों कला-नाथ डूबे।
वाटी शोभा रहित बनती ज्यों वसन्तान्त में है।
त्योंही प्यारे विधु-वदन की कान्ति से वंचिता हो।
श्री-हीना मलिन ब्रज की मेदिनी हो गई है ॥51॥
जैसे प्रायः लहर उठती वारि में वायु से है।
त्योंही होता चित चलित है कश्चिदावेग-द्वारा।
उद्वेगों में व्यथित बनना बात स्वाभाविकी है।
हाँ, ज्ञानी औ विवुध-जन में मुह्यता है न होती ॥52॥
माग पूरा-पूरा परम-प्रिय का मर्म मैं बूझती हूँ।
है जो वांछा विशद उर मैं जानती भी उसे हूँ।
यत्नों द्वारा प्रति-दिन अतः मैं महा संयता हूँ।
तो भी देती विरह-जनिता-वासनायें व्यथा हैं ॥53॥
जो मैं कोई विहग उड़ता देखती व्योम में हूँ।
तो उत्कण्ठा-विवश चित में आज भी सोचती हूँ।
होते मेरे अबल तन में पक्ष जो पक्षियों से।
तो यों ही मैं स-मुद उड़ती श्याम के पास जाती ॥54॥
जो उत्कण्ठा अधिक प्रबल है किसी काल होती।
तो ऐसी है लहर उठती चित्त में कल्पना की।
जो हो जाती पवन, गति पा वांछिता लोक-प्यारी।
मैं छू आती परम-प्रिय के मंजु-पादाम्बुजों को ॥55॥
निर्लिप्ता हूँ अधिकतर मैं नित्यशः संयता हूँ।
तो भी होती अति व्यथित हूँ श्याम की याद आते।
वैसी वांछा जगत-हित की आज भी है न होती।
जैसी जी में लसित प्रिय के लाभ की लालसा है॥56॥
हो जाता है उदित उर में मोह जो रूप-द्वारा।
व्यापी भू में अधिक जिसकी मंजु-का-वली है।
जो प्राय: है प्रसव करता मुग्धता मानसों में।
जो है क्रीड़ा अवनि चित की भ्रान्ति उद्विग्नता का ॥57॥
जाता है पंच-शर जिसकी 'कल्पिता-मूर्ति' माना।
जो पुष्पों के विशिख-बल से विश्व को वेधता है।
भाव-ग्राही मधुर-महती चित्त-विक्षेप-शीला।
न्यारी-लीला सकल जिसकी मानसोन्मादिनी है ॥58॥
वैचित्र्यों से वलित उसमें ईदृशी शक्तियाँ हैं।
ज्ञाताओं ने प्रणय उसको है बताया न तो भी।
है दोनों से सबल बनती भूरि-आसंग-लिप्सा।
होती है किंतु प्रणयज ही स्थायिनी औ प्रधाना॥59॥
जैसे पानी प्रणय तृषितों की तृषा है न होती।
हो पाती है न क्षुधित-क्षुधा अन्न-आसक्ति जैसे।
वैसे ही रूप निलय नरों मोहनी-मूर्तियों में।
हो पाता है न 'प्रणय' हुआ मोह रूपादि-द्वारा ॥60॥
मूली-भूता इस प्रणय की बुद्धि की वृत्तियाँ हैं।
हो जाती हैं समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणों से।
वे होते हैं नित नव, तथा दिव्यता-धाम, स्थायी।
पाई जाती प्रणय-पथ में स्थायिता है इसी से॥61॥
हो पाता है विकृत स्थिरता-हीन हैं रूप होता।
पाई जाती नहिं इस लिए मोह में स्थायिता है।
होता है रूप विकसित भी प्रायशः एक ही सा।
हो जाता है प्रशमित अत: मोह संभोग से भी।।62 ।।
नाना स्वार्थों सरस-सुख की वासना-मध्य-डूबा।
आवेगों से वलित ममतावान है मोह होता।
निष्कामी है प्रणय-शुचिता-मूर्ति है सात्विकी है।
होती पूरी प्रमिति उसमें आत्म-उत्सर्ग की है॥63॥
सद्यः होती फलित, चित में मोह की मत्तता है।
धीरे-धीरे प्रणय बसता, व्यापता है उरों में।
हो जाता है विवश अपरा-वृत्तियाँ मोह-द्वारा।
भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है॥64॥
हो जाते हैं उदय कितने भाव ऐसे उरों में।
होती है मोह-वश जिनमें प्रेम की भ्रान्ति प्रायः।
वे होते हैं न प्रणय न वे हैं समीचीन होते।
पाई जाती अधिक उनमें मोह की वासना है॥65॥
हो के उत्कण्ठ प्रिय-सुख की भूयसी-लालसा से।
जो है प्राणी हृदय-तल की वृत्ति उत्सर्ग-शीला।
पुण्याकांक्षा सुयश-रुचि वा धर्म-लिप्सा बिना ही।
ज्ञाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसी को॥66॥
आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सवृत्ति-द्वारा।
हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा।
होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है।
पीछे खो आत्म-सुधि लसती आत्म-उत्सर्गता है॥67॥
सद्गंधों से, मधुर-स्वर से, स्पर्श से औ रसों से।
जो हैं प्राणी हृदय-तल में मोह उद्भूत होते।
वे ग्राही हैं जन-हृदय के रूप के मोह ही से।
हो पाते हैं तदपि उतने मत्तकारी नहीं वे ॥68 ॥
व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता
पाया जाता प्रबल उसका चित्त-चाञ्चल्य भी है।
मानी जाती न क्षिति-तल में है पतंगोपमाना।
भृङ्गों, मीनों द्विरद मृग की मत्तत्ता प्रीतिमत्ता॥69॥
मोहों में है प्रबल सबसे रूप का मोह होता।
कैसे होंगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता।
जो है प्यारा प्रणय-मणि सा काँच सा मोह तो है।
ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है॥70॥
दोनों आँखें निरख जिसको तृप्त होती नहीं हैं।
ज्यों-ज्यों देखें अधिक जिसकी दीखती मंजुता है।
जो है लीला-निलय महि में वस्तु स्वर्गीय जो है।
ऐसा राका-उदित-विधु सा रूप उल्लासकारी ॥71॥
उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा बार लाखों।
कानों की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा।
हृत्तन्त्री में ध्वनित करता स्वर्ग-संगीत जो है।
ऐसा न्यारा-स्वर उर-जयी विश्व-व्यामोहकारी ॥72॥
होता है मूल अग जग के सर्वरूपों-स्वरों का।
या होती है मिलित उसमें मुग्धता सद्गुणों की।
ए बातें ही विहित-विधि के साथ हैं व्यक्त होतीं।
न्यारे गंधों सरस-रस, औ स्पर्श-वैचित्र्य में भी ॥73॥
पूरी-पूरी कुँवर-वर के रूप में है महत्ता।
मंत्रों से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है।
सारे न्यारे प्रमुख-गुण की सात्विकी मूर्ति वे हैं।
कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरों में न होगा ॥74॥
जो आसक्ता ब्रज-अवनि में बालिकायें कई हैं।
वे सारी ही प्रणय रंग से श्याम के रञ्जिता हैं।
मैं मानूँगी अधिक उनमें हैं महा-मोह-मग्ना।
तो भी प्रायः प्रणय-पथ की पंथिनी ही सभी हैं ॥75॥
मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूं क्यों।
काढूँ कैसे हृदय-तल से श्यामली-मूर्ति न्यारी।
जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु-तानें।
तो क्यों होंगी शमित प्रिय के लाभ की लालसायें ॥76॥
आँखें हैं जिधर फिरती चाहती श्याम को हैं।
कानों को भी मधुर-रव की आज भी लौ लगी है।
कोई मेरे हृदय-तल को पैठ के जो विलोके।
तो पावेगा लसित उसमें कान्ति-प्यारी उन्हीं की॥77॥
जो होता है उदित नभ में कौमुदी कांत आ के।
या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कहीं हूँ।
शोभा-वाले हरित दल के पादपों को विलोके।
है प्यारे का विकच-मुखड़ा आज भी याद आता ॥78॥
कालिन्दी के पुलिन पद जा, या, सजीले-सरों में।
जो मैं फूले-कमल-कुल को मुग्ध हो देखती हूँ। ललित
तो प्यारे के कलित-कर की औ अनूठे-पगों की। जिला
छा जाती है सरस-सुषमा वारि स्रावी-दृगों में ॥79॥
ताराओं से खचित-नभ को देखती जो कभी हूँ।
किणित या मेघों में मुदित-बक की पंक्तियाँ दीखती हैं।
तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है।
मानों मुक्ता-लसित-उर है श्याम का दृष्टि आता॥80॥
छू देती है मृदु-पवन जो पास आ गात मेरा।
तो हो जाती परस सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
ले पुष्पों की सुरभि वह जो कुञ्ज में डोलती है।
तो गंधों से बलित मुख की वास है याद आती ॥81॥
कलिनी ऊँचे-ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते।
कम्यो ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे दृगों के।
नाना-क्रीड़ा-निलय-झरना चारु-छीटें उड़ाता।
किमि उल्लासों को कुँवर-वर के चक्षु में है लसाता ॥82॥
कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही
मेरे प्यासे दृग-युगल के सामने है न लाती।
प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से।
सद्भावों के सहित चित में सर्वदा है लसाती ॥83॥
फूली संध्या परम-प्रिय की कान्ति सी है दिखाती।
मैं पाती हूँ रजनी-तन में श्याम का रङ्ग छाया।
ऊषा आती प्रति-दिवस है प्रीति से रंजिता हो।
पाया जाता वर-वदन सा ओप आदित्य में है ॥184॥
मैं पाती हूँ अलक-सुषमा भृङ्ग की मालिका में।
है आँखों की सु-छवि मिलती खंजनों औ मृगों में।
दोनों बाहें कलभ कर को देख हैं याद आती।
पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की ॥85॥
है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में।
विम्बाओं में वर अधर सी राजती लालिमा है
मैं केलों में जघन-युग ही मंजुता देखती हूँ।
गुल्फों की सी ललित सुषमा है गुलों में दिखाती ॥86॥
नेत्रोन्मादी बहु-मुदमयी-नीलिमा गात की सी।
न्यारे नीले गगन-तल के अङ्क में राजती है।
भूमें शोभा, सुरस जल में, वन्हि में दिव्य-आभा।
मेरे प्यारे-कुँवर वर सी प्रायशः है दिखाती ॥87॥
सायं-प्रात: सरस-स्वर से कूजते हैं पखेरू।
प्यारी-प्यारी मधुर-ध्वनियाँ मत्त हो, हैं सुनाते।
मैं पाती हूँ मधुर ध्वनि में कूजने में खगों के।
मीठी-तानें परम-प्रिय को मोहिनी-वंशिका की॥8॥
मेरी बातें श्रवण कर के आप उद्विग्न होंगे।
जानेंगे मैं विवश बन के हूँ महा-मोह-मग्ना।
सच्ची यों है न निज-सुख के हेतु मैं मोहिता हूँ।
संरक्षा में प्रणय-पथ के भावतः हूँ सयला ॥89॥
हो जाती है विधि-सृजन से इक्षु में माधुरी जो।
आ जाता है सरस रँग जो पुष्प की पंखड़ी में।
क्यों होगा सो रहित रहते इक्षुता-पुष्पता के।
ऐसे ही क्यों प्रसृत उर से जीवनाधार होगा॥90॥
क्यों मोहेंगे न दृग लख के मूर्तियाँ रूपवाली।
कानों को भी मधुर-स्वर से मुग्धता क्यों न होगी।
क्यों डूबेंगे न उर रंग में प्रीति-आरंजितों के।
धाता-द्वारा सृजित तन में तो इसी हेतु वे हैं ॥91॥
छाया-ग्राही मुकुर यदि हो, वारि हो चित्र क्या है।
जो वे छाया ग्रहण न करें चित्रता तो यही है।
वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर में जो न रूपादि व्यायें।
तो विज्ञानी, विवुध उनको स्वस्थ कैसे कहेंगे॥92॥
पाई जाती श्रवण करने आदि में भिन्नता है।
देखा जाना प्रभृति भव में भूरि-भेदों भरा है।
कोई होता कलुष-युत है कामना-लिप्त हो के।
त्योंही कोई परम-शुचितावान औ संयमी है॥93॥
पक्षी होता सु-पुलकित है देख सत्पुष्प फूला।
भौंरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूंजता है।
अर्थी-माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता।
तीनों का ही कल-कुसुम का देखना यों त्रिधा है ॥94॥
लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की।
कोई होता मदन-वश है मोद में मग्न कोई।
कोई गाता परम-प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो।
यों तीनों की प्रचुर-प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती ॥95॥
शोभा-वाले विटप विलसे पक्षियों के स्वरों से।
विज्ञानी है परम-प्रभु के प्रेम का पाठ पाता।
व्याधा की हैं हनन-रुचियाँ और भी तीव्र होती।
यों दोनों के श्रवण करने में बड़ी भिन्नता है ॥96॥
यों ही है भेद युत चखना, सूंघना और छूना।
पात्रों में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती।
ऐसी ही हैं हृदय-तल के भाव में भिन्नतायें।
भावों ही से अवनि-तल है स्वर्ग के तुल्य होता॥97॥
प्यारे आवें सु-बयन कहें प्यार से गोद लेवें।
ठंढे होवें नयन, दुख हों दूर मैं मोद पाऊँ।
ए भी हैं भाव मम उर के और ए भाव भी हैं।
प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवे॥98॥
जो होता है हृदय-तत का भाव लोकोपतापी।
छिद्रान्वेषी, मलिन, वह है तामसी-वृत्ति-वाला।
नाना भोगाकलित, विविधा-वासना-मध्य डूबा ।
जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी-वृत्ति शाली॥99॥
निष्कामी है भव-सुखद है और है विश्व-प्रेमी।
जो है भोगोपरत वह सात्विकी-वृत्ति-शोभी।
ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था।
आत्मोत्सर्गी, हृदय-तल की सात्विकी-वृत्ति ही है ॥100॥
जिह्वा, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी।
क्यों त्यागेंगे प्रकृति अपने कार्य को क्यों तजेंगे।
क्यों होवेंगी शमित उर की लालसायें, अत: मैं।
रंगे देती प्रति-दिन उन्हें सात्विकी-वृत्ति में हूँ ॥101॥
कंजों का या उदित-विधु का देख सौंदर्य आँखों।
या कानों से श्रवण कर के गान मीठा खगों का।
मैं होती थी व्यथित, अब हूँ शान्ति सानन्द पाती।
प्यारे के पाँव, मुख, मुरली-नाद जैसा उन्हें पा॥102॥
यों ही जो है अवनि नभ में दिव्य, प्यारा, उन्हें मैं।
जो छूती हूँ श्रवण करती देखती सूंघती हूँ।
तो होती हूँ मुदित उनमें भावतः श्याम की पा।
न्यारी-शोभा, सुगुण-गरिमा अंग संभूत साम्य ॥103॥
हो जाने से हृदय-तल का भाव ऐसा निराला।
मैंने न्यारे परम गरिमावान दो लाभ पाये।
मेरे जी में हृदय विजयी विश्व का प्रेम जागा।
मैंने देखा परम प्रभु को स्वीय-प्राणेश ही में ॥104॥
पाई जाती विविध जितनी वस्तुयें हैं सबों में।
जो प्यारे को अमित रँग औ रूप में देखती हूँ।
तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूँगी।
यों है मेरे हृदय-तल में विश्व का प्रेम जागा ॥105॥
जो आता है न जन-मन में जो परे बुद्धि के है
जो भावों का विषय न बना नित्य अव्यक्त जो है।
है ज्ञाता की न गति जिसमें इन्द्रियातीत जो है।
सो क्या है, में अबुध अबला जान पाऊँ उसे क्यों ॥106॥
शास्रों में है कथित प्रभु के शीश औ लोचनों की।
संख्यायें हैं अमित पग औ हस्त भी हैं अनेकों।
सो हो के भी रहित मुख से नेत्र नासादिकों से।
छूता, खाता, श्रवण करता, देखता, सूंघता है ॥107॥
ज्ञाताओं ने विशद इसका मर्म यों है बताया।
सारे प्राणी अखिल जग के मूर्तियाँ हैं उसी की।
होती आँखें प्रभृति उनकी भूरि-संख्यावती हैं।
सो विश्वात्मा अमित-नयनों आदि-वाला अतःहै॥108॥
निष्प्राणों की विफल बनतीं सर्व-गात्रेन्द्रियाँ हैं।
है अन्या-शक्ति कृति करती वस्तुतः इन्द्रियों की।
सो है नासा न दुग रसना आदि ईशांश ही है।
होके नासादि रहित अतः सूंघता आदि सो है ॥109॥
ताराओं में तिमिर-हर में वह्नि-विद्युल्लता में।
नाना रत्नों, विविध मणियों में विभा है उसीकी।
पृथ्वी, पानी, पवन, नभ में, पादपों में, खगों में।
मैं पाती हूँ प्रथित-प्रभुता विश्व में व्याप्त की ही ॥110॥
प्यारी-सत्ता जगत-गत की नित्य लीला-मयी है।
स्नेहोपेता परम-मधुरा पूतता में पगी है।
ऊँची-न्यारी-सरल-सरसा ज्ञान-गर्भा मनोज्ञा।
पूज्या मान्या हृदय-तल की रंजिनी उज्वला है ॥111॥
मैंने की हैं कथन जितनी शास्त्र-विज्ञात बातें।
वे बातें हैं प्रकट करती ब्रह्म है विश्व-रूपी।
व्यापी है विश्व प्रियतम में विश्व में प्राणप्यारा।
यों ही मैंने जगत-पति को श्याम में है विलोका ॥112॥
शास्त्रों में है लिखित प्रभु की भक्ति निष्काम जो है।
सो दिव्या है मनुज-तन की सर्व संसिद्धियों से।
मैं होती हूँ सुखित यह जो तत्वतः देखती हूँ।
प्यारे की औ परम-प्रभु की भक्तियाँ हैं अभिन्ना ॥113॥
द्रुतविलम्बित छंद
जगत-जीवन प्राण स्वरूप का।
निज पिता जननी गुरु आदि का।
स्व-प्रिय साधन भक्ति है।
वह अकाम महा-कमनीय है॥114॥
श्रवण, कीर्तन, वन्दन, दासता।
स्मरण, आत्म-निवेदन, अर्चना।
सहित सख्य तथा पद-सेवना।
निगदिता नवधा प्रभु-भक्ति है ॥115॥
वंशस्थ छंद
बना किसी की यक मूर्ति कल्पिता।
करे उसकी पद-सेवनादि जो।
न तुल्य होगा वह बुद्धि दृष्टि से।
स्वयं उसीकी पद-अर्चनादि के ॥116॥
मन्दाक्रान्ता छंद
विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो हैं उसीके।
सारे प्राणी सरि गिरि लता वेलियाँ वृक्ष नाना।
रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।
भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तमा हैं॥117॥
जी से सारा कथन सुनना आर्त्त-उत्पीड़ितों का।
रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक-उन्नायकों का।
सच्छास्त्रों का श्रवण सुनना वाक्य सत्संगियों का।
मानी जाती श्रवण-अभिधा-भक्ति है सज्जनों में ॥118॥
सोये जागें, तम-पतित की दृष्टि में ज्योति आवे।
भूले आवें सु-पथ पर औ ज्ञान-उन्मेष होवे।
ऐसे गाना कथन करना दिव्य-न्यारे गुणों का।
है प्यारी भक्ति प्रभुवर की कीर्तनोपाधिवाली ॥119॥
विद्वानों के स्व-गुरु-जन के देश के प्रेमिकों के।
ज्ञानी दानी सु-चरित गुणी सर्व-तेजस्वियों के।
आत्मोत्सर्गी विवुध जन के देव सद्विग्रहों के।
आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या ॥120॥
जो बातें हैं भव-हितकरी सर्व-भूतोपकारी।
जो चेष्टायें मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती।
हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना।
विश्वात्मा-भक्ति भव-सुखदा दासता-संज्ञका है॥121॥
कंगालों को विवश विधवा औ अनाथाश्रितों की।
उद्विग्नों की सुरति करना औ उन्हें त्राण देना।
सत्कार्यों का पर-हृदय की पीर का ध्यान आना।
मानी जाती स्मरण-अभिधा भक्ति है भावुकों में ॥122॥
द्रुतविलम्बित छंद
विपद-सिन्धु पड़े नर वृन्द के।
दुख-निवारण औ हित के लिए।
अरपना अपने तन प्राण को।
प्रथित आत्म-निवेदन-भक्ति है ॥123॥
मन्दाक्रान्ता छंद
संत्रस्तों को शरण मधुरा-शान्ति संतापितों को।
निर्बोधों को सु-मति विविधा औषधी पीड़ितों को।
पानी देना तृषित-जन को अन्न भूखे नरों को।
सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना-संज्ञका है॥124॥
नाना प्राणी तरु गिरि लता आदि की बात ही क्या।
जो दूर्वा से धु-मणि तक है व्योम में या धरा में
सद्भावों के सहित उनसे कार्य-प्रत्येक लेना।
सच्चा होना सहृद उनका भक्ति है सख्य-नाम्नी॥125॥
वसन्ततिलका छंद
जो प्राणी-पुंज निज कर्म-निपीड़नों से।
नीचे समाज-वपु के पग सा पड़ा है।
देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा।
है भक्ति लोक-पति की पद-सेवनाख्या ॥126॥
द्रुतविलम्बित छंद
कह चुकी प्रिय-साधन ईश का।
कुँवर का प्रिय-साधन है यही।
इस लिए प्रिय की परमेश की।
परम-पावन-भक्ति अभिन्न है ॥127॥
यह हुआ मणि-कांचन-योग है।
मिलन है यह स्वर्ण-सुगंध का।
यह सुयोग मिले बहु-पुण्य से।
अवनि में अति-भाग्यवती हुई॥128॥
मन्दाक्रान्ता छंद
जो इच्छा है परम-प्रिय की जो अनुज्ञा हुई है।
मैं प्राणों के अछत उसको भूल कैसे सकूँगी।
यों भी मेरे परम व्रत के तुल्य बातें यही थीं।
हो जाऊँगी अधिक अब मैं दत्तचित्ता इन्हीं में ॥129॥
मैं मानूँगी अधिक मुझमें मोह-मात्रा अभी है।
होती हूँ मैं प्रणय-रंग से रंजिता नित्य तो भी।
ऐसी हूँगी निरत अब मैं पूत-कार्यावली में।
मेरे जी में प्रणय जिससे पूर्णत: व्याप्त होवे॥130॥
मैंने प्रायः निकट प्रिय के बैठ, है भक्ति सीखी।
जिज्ञासा से विविध उसका मर्म है जान पाया।
चेष्टा ऐसी सतत अपनी बुद्धि-द्वारा करूँगी।
भूलूं-चूकूँ न इस व्रत की पूत-का-वली में ॥131॥
जा के मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावें।
मेरे प्यारे कुँवर-वर को आप सौजन्य-द्वारा।
मैं ऐसी हूँ न निज-दुख से कष्टिता शोक-मग्ना।
हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियों के दुखों से॥132॥
गोपी गोपों विकल ब्रज की बालिका बालकों को।
आ के पुष्पानुपम मुखड़ा प्राणप्यारे दिखावें।
वाधा कोई न यदि प्रिय के चारु-कर्त्तव्य में हो।
तो वे आ के जनक-जननी की दशा देख जावें॥133॥
मैं मानूँगी अधिक बढ़ता लोभ है लाभ ही से।
तो भी होगा सु-फल कितनी भ्रान्तियाँ दूर होंगी।
जो उत्कण्ठा-जनित दुखड़े दाहते हैं उरों को।
सद्वाक्यों से प्रबल उनका वेग भी शांत होगा॥134॥
सत्कर्मी हैं परम-शुचि हैं आप ऊधो सुधी हैं।
अच्छा होगा सनय प्रभु से आप चाहें यही जो।
आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ।
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे ॥135॥
द्रुतविलम्बित छंद
चुप हुई इतना कह मुग्ध हो।
ब्रज-विभूति-विभूषण राधिका।
चरण की रज ले हरिबंधु भी।
परम-शान्ति-समेत विदा हुए॥136॥
सप्तदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छंद
ऊधे लौटे नगर मथुरा में कई मास बीते ।
आये थे वे ब्रज-अवनि में दो दिनों के लिए ही।
आया कोई न फिर ब्रज में औ न गोपाल आये।
धीरे-धीरे निशि-दिन लगे बीतने व्यग्रता से॥1॥
बीते थोड़ा दिवस ब्रज में एक सम्वाद आया।
कन्याओं से निधन सुन के कंस का कृष्ण द्वारा।
जाना ग्रामों पुर नगर को फूंकता भू-कॅपाता।
सारी सेना सहित मथुरा है जरासन्ध आता ॥2॥
ए बातें ज्यों ब्रज-अवनि में हो गई व्यापमाना।
सारे प्राणी अति व्यथित हो, हो गये शोक-मग्न ।
क्या होवेगा परम-प्रिय की आपदा क्यों टलेगी।
ऐसी होने प्रति-पल लगीं तर्कनायें उरों में ॥3॥
जो होती थी गगन-तल में उत्थिता धूलि यों ही।
तो आशंका विवश बनते लोग थे बावले से।
जो टापें हो ध्वनित उठती घोटकों की कहीं भी।
तो होता है हृदय शतधा गोप-गोपांगना का॥4॥
धीरे-धीरे दुख-दिवस ए त्रास के साथ बीते।
लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहों में।
सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम-हाथों।
प्राणों को ले मगध-पति हो भूरि उद्विग्न भागा॥5॥
बारी-बारी ब्रज-अवनि को कम्पमाना बना के।
बातें धावा-मगध-पति की सत्तरा-बार फैलीं।
आया सम्वाद ब्रज-महि में बार अट्ठारहीं जो।
टूटी आशा अखिल उससे नन्द-गोपादिकों की ॥6॥
हा! हाथों से पकड़ अबकी बार ऊबा-कलेजा
रोते-धोते यह दुखमयी बात जानी सबों ने।
उत्पातों से मगध-नृप के श्याम ने व्यग्र हो के।
त्यागा प्यारा-नगर मथुरा जा बसे द्वारिका में ॥7॥
ज्यों होता है शरद त्रतु के बीतने से हताश ।
स्वाती-सेवी अतिशय तृष्णावान प्रेमी पपीहा।
वैसे ही श्री कुँवर-वर के द्वारिका में पधारे।
छाई सारी ब्रज-अवनि में सर्वदेशी निराशा ॥8॥
प्राणी आशा-कमल-पग को है नहीं त्याग पाता।
सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि में है।
व्यापी भू के उर-तिमिर सी है जहाँ पै निराशा।
हैं आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी॥9॥
आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी।
लाखों आँखें पथ कुँवर का आज भी देखती थीं।
मात्रायें थीं समधिक हुईं शोक दुःखादिकों की।
लोहू आता विकल-दृग में वारि के स्थान में था ॥10॥
कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा।
ढालेगा अश्रु कब तक क्यों थाम टूटा-कलेजा।
जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध होके।
कोई होगा बिरत कब लौं विश्व-वयापी-सुखों से॥11॥
न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की।
ताराओं से खचित नभ की नीलिमा मेघ-माला।
पेड़ों की औ ललित-लतिका-वेलियों की छटायें।
कान्ता-क्रीड़ा सरित सर औ निर्झरों के जलों की॥12॥
मीठी-तानें मधुर-लहरें गान-वाद्यादिकों को।
प्यारी बोली विहग-कुल की बालकों की कलायें।
सारी-शोभा रुचिर-ऋतु की पर्व की उत्सवों की।
वैचित्र्यों से बलित धरती विश्व की सम्पदायें ॥13॥
संतप्तों का, प्रबल-दुख से दग्ध का, दृष्टि
आना।
जो आँखों में कुटिल-जग का चित्र सा खींचते हैं
आख्यानों से सहित सुखदा-सान्त्वना सज्जनों की।
संतानों की सहज ममता पेट-धन्धे सहस्रों॥14॥
हैं प्राणी के हृदय-तल को फेरते मोह लेते।
धीरे-धीरे प्रबल-दुख का वेग भी हैं घटाते।
नाना भावों सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से।
वे हैं प्रायः व्यथित-उर की वेदनायें हटाते॥15॥
गोपी-गोपों जनक-जननी बालिका-बालकों के।
चित्तोन्मादी प्रबल-दुख का वेग भी काल पा सके।
धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्रायः।
तो भी व्यापी हृदय-तल में श्यामली मूर्ति ही थी॥16॥
वे गाते तो मधुर-स्वर से श्याम की कीर्ति गाते।
प्रायः चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की।
मानी जाती सुतिथि वह थीं पर्व औ उत्सवों की।
थीं लीलायें ललित जिनमें राधिका-कांत ने की॥17॥
खो देने में विरह-जनिता वेदना किल्विषों के।
ला देने में व्यथित-उर में शान्ति भावानुकूल।
आशा दग्धा जनक-जननी चित्त के बोधने में।
की थी चेष्टा अधिक परमा-प्रेमिका राधिका ने॥18॥
चिन्ता-ग्रस्ता विरह-विधुरा भावना में निमग्ना।
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे होती थीं बहु-उपकृता-नित्य श्री राधिका से।
घंटों आ के पग-कमल के पास वे बैठती थीं॥19॥
जो छा जाती गगन-तल के अंक में मेघ-माला।
जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा
प्रायः उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा।
तो उन्मत्ता-सदृश बन के बालिकायें अनेकों ॥20॥
ये बातें थीं स-जल घन को खिन्न हो हो सुनाती।
क्यों तू हो के परम-प्रिय सा वेदना है बढ़ाता।
तेरी संज्ञा सलिल-धर है और पर्जन्य भी है।
ठंढा मेरे हृदय-तल को क्यों नहीं तू बनाता ॥21॥
तू केकी को स्व-छवि दिखला है महा मोद देता।
वैसा ही क्यों मुदित तुझसे है पपीहा न होता।
क्यों है मेरा हृदय दुखता श्यामता देख तेरी।
क्यों ए तेरी त्रिविध मुझको मूर्तियाँ दीखती हैं॥22॥
ऐसी ठौरों पहुँच बहुधा राधिका कौशलों से।
ए बातें थीं पुलक कहतीं उन्मना-बालिका से।
देखो प्यारी भगिनि भव को प्यार की दृष्टियों से।
जो थोड़ी भी हृदय-तल में शान्ति की कामना है॥23॥
ला देता है जलद दृग में श्याम की मंजु-शोभा।
पक्षाभा से मुकुट-सुषमा है कलापी दिखाता।
पी का सच्चा प्रणय उर में आँकता है पपीहा।
ए बातें हैं सुखद इनमें भाव क्या है व्यथा का ॥24॥
होती राका विमल-विधु से बालिका जो विपन्ना।
तो श्री राधा मधुर-स्वर से यों उसे थीं सुनाती।
तेरा होना विकल सुभगे बुद्धिमत्ता नहीं है।
क्या प्यारे की वदन-छवि तू इन्दु में है न पाती॥25॥
मालिनी छंद
जब कुसुमित होतीं वेलियाँ औ लतायें।
जब ऋतुपति आता आम की मंजरी ले।
जब रसमय होती मेदिनी हो मनोज्ञा।
जब मनसिज लाता मत्तता मानसों में ॥26॥
जब मलय-प्रसूता-वायु आती सु-सिक्ता।
जब तरु कलिका औ कोंपलों से लुभाता।
जब मधुकर-माला गूंजती कुंज में थी।
जब पुलकित हो हो कूकतीं कोकिलायें ॥27॥
तब ब्रज बनता था मूर्ति उद्विग्नता की।
प्रति-जन उर में थी वेदना वृद्धि पाती।
गृह, पथ, वन, कुंजों मध्य
थीं दृष्टि आती।
बहु-विकल उनींदी, ऊबती, बालिकायें ॥28॥
इन विविध व्यथाओं मध्य डूबे दिनों में।
अति-सरल-स्वभावा सुन्दरी एक बाला।
निशि-दिन फिरती थी प्यार से सिक्त हो के।
गृह, पथ, बहु-बागों,
कुंज-पुंजों, वनों में॥29॥
वह सहृदयता से ले किसी मूर्छिता को।
निज अति उपयोगी अंक में यत्न-द्वारा।
मुख पर उसके थी डालती वारि-छींटे।
वर-व्यजन डुलाती थी कभी तन्मयी हो॥30॥
कुवलय-दल बीछे पुष्प औ पल्लवों को।
निज-कलित-करों से थी धरा में बिछाती।
उस पर यक तप्ता बालिका को सुला के।
वह निज कर से थी लेप ठंढे लगाती॥31॥
यदि अति अकुलाती उन्मना-बालिका को ।
वह कह मृदु-बातें बोधती कुंज में जा।
वन-वन बिलखाती तो किसी बावली का।
वह ढिग रह छाया-तुल्य संताप खोती ॥32॥
यक थल अवनी में लोटती वंचिता का।
तन रज यदि छाती से लगा पोंछती थी।
अपर थल उनींदी मोह-मग्ना किसी को।
वह शिर सहला के गोद में थी सुलाती॥33॥
सुन कर उसमें की आह रोमांचकारी।
वह प्रति-गृह में थी शीघ्र से शीघ्र जाती।
फिर मृदु-वचनों से मोहनी-उक्तियों से।
वह प्रबल-व्यथा का वेग भी थी घटाती॥34॥
गिन-गिन नभ-तारे ऊब आँसू बहा के।
यदि निज-निशि होती कश्चिदार्ता बिताती।
वह ढिग उसके भी रात्रि में ही सिधाती।
निज अनुपम राधा-नाम की सार्थता से॥35॥
मन्दाक्रान्ता छंद
राधा जाती प्रति-दिवस थीं पास नन्दांगना के।
नाना बातें कथन कर के थीं उन्हें बोध देती।
जो वे होती परम-व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना।
तो वे आठों पहर उनकी सेवना में बितातीं॥36॥
घंटों ले के हरि-जननि को गोद में बैठती थीं।
वे थीं नाना जतन करतीं पा उन्हें शोक-मग्ना।
धीरे-धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त-पीड़ा।
हाथों से थीं दृग-युगल के वारि को पोंछ देती ॥37॥
हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थीं यशोदा।
क्या आवेंगे न अब ब्रज में जीवनाधार मेरे।
तो वे धीरे मधुर-स्वर से हो विनीता बताती।
हाँ आवेंगे, व्यथित-ब्रज को श्याम कैसे तजेंगे॥38॥
आता ऐसा कथन करते वारि राधा-दृगों में।
बूंदों-बूंदों टपक पड़ता गाल पै जो कभी था।
जो आँखों से सदुख उसको देख पाती यशोदा।
तो धीरे यों कथन करती खिन्न हो तू न बेटी ॥39॥
हो के राधा विनत कहतीं मैं नहीं रो रही हूँ।
आता मेरे दृग युगल में नीर आनन्द का है
जो होता है पुलक करके आप की चारु सेवा।
हो जाता है प्रकटित वही वारि द्वारा दृगों में॥40॥
वे थीं प्राय: ब्रज-नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं।
सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती।
बातों ही में जग -विभव की तुच्छता थीं दिखाती।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनाती॥41॥
होती मारे मन यदि कहीं गोप की पंक्ति बैठी।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता।
तो कार्यों में सविधि उनको यत्नतः वे लगातीं।
औ ए बातें कथन करती भूरि गंभीरता से ॥42॥
जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को हैं।
तो पा भू में पुरुष-तन को, खिन्न हो के न बैठे।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिये कार्य्य ऐसे।
जो प्यारे हैं परम प्रिय के विश्व के प्रेमिकों के॥43॥
जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
देतीं पुष्पों रचित उनको मुग्धकारी खिलौने।
दे शिक्षायें विविध उनसे कृष्ण-लीला करातीं।
घंटों बैठी परम-रुचि से देखतीं तद्गता हो॥44॥
पाई जातीं दुखित जितनी अन्य गोपांगनायें।
राधा द्वारा सुखित वह भी थीं यथा रीति होती।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।
प्यारी-बातें कथन कर के वे उन्हें बोध देतीं ॥145॥
संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना-कार्य में भी।
वे सेवा थीं सतत करती वृद्ध-रोगी जनों की।
दीनों, हीनों, निबल विधवा आदि को मनाती
थीं।
पूजी जाती ब्रज-अवनि में देवियों सी अतः थीं॥46॥
खो देती थीं कलह-जनिता आधि के दुर्गुणों को।
धो देती थीं मलिन-मन की व्यापिनी कालिमायें।
बो देती थीं हृदय-तल के बीज भावज्ञता का।
वे थीं चिन्ता-विजित-गृह में शान्ति-धारा बहाती ॥147॥
आटा चींटी विहग गण थे वारि औ अन्न पाते।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी।
पत्तों को भी न तरु-वर के वे वृथा तोड़ती थीं।
जी से वे थीं निरत रहती भूत-सम्बर्द्धना में॥48॥
वे छाया थीं सु-जन शिर की शासिका थीं खलों कीं।
कंगालों की परम निधि थीं औषधी पीड़ितों की।
दीनों की थीं बहिन, जननी थीं अनाथाश्रितों की।
आराध्या थीं ब्रज -अवनि की प्रेमिका विश्व की थीं॥49॥
जैसा व्यापी विरह-दुख था गोप गोपांगना का।
वैसी ही थीं सदय-हृदया स्नेह ही मूर्ति राधा।
जैसी मोहावरित-ब्रज में तामसी-रात आई।
वैसे ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थीं ॥50॥
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।
श्री राधा के हृदय-बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।
वे भी छाया-सदृश उनकी वस्तुतः हो गई थीं ॥51॥
तो भी आई न वह घटिका औ न वे वार आये।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते।
वैसे उन्माद-कर-स्वर से कोकिला भी न बोली ॥52॥
जीते भूले न ब्रज-महि के नित्य उत्कण्ठ प्राणी।
जी से प्यारे जलद-तन को, केलि-क्रीड़ादिकों को।
पीछे छाया विरह-दुख की वंशजों-बीच व्यापी।
सच्ची यों है ब्रज-अवनी में आज भी अंकिता है ॥53॥
सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे।
राधा जैसी सदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
हे विश्वात्मा! भरत-भुव के अंक में और आवें।
ऐसी व्यापी विरह-घटना किंतु कोई न होवे ॥54॥